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प्रणव दा किस्मत के धनी या….

बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
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राष्ट्रपति पद के लिए आखिर प्रणव दा के नाम पर ही संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने मुहर लगाई। समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो मुलायम सिहं यादव से सहमति लेकर सोनिया गांधी मनमुताबिक उम्मीदवार की घोषणा करने में सफल हुईं। एक दिन पहले ही जब ममता बनर्जी ने मुलायम सिंह यादव से वार्ता की थी और दोनों की ओर से एपीजे अब्दुल कलाम, मनमोहन सिंह और सोमनाथ चटर्जी के नाम प्रस्तावित कर दिए थे तो राजनीतिक हलकों में बवंडर सी स्थिति पैदा हो गई थी। बहरहाल अब जब प्रणव दा का नाम सरकार की ओर से तय हो ही गया है तो इस पर मंथन होना चाहिए कि इस पद पर आगामी उम्मीदवार के नाम पर विचार करते समय जो मुद्दे उठाए गए थे उनका समाधान इसमें कहां तक हुआ?
नामों को एक तरफ कर दें तो मुलायम सिंह यादव की ओर से ही जो मुद्दा सबसे प्रमुखता से उठाया गया था उसका सार यह था कि राष्ट्रपति के पद पर राजनीतिक पृष्ठभूमि का उम्मीदवार अनिवार्य है। हमारे देश में भावनात्मक तरीके से सोचने की परंपरा है जिसमें व्यवहारिक तकाजों की अनदेखी हो जाती है। इसी परंपरा की देन है कि आमतौर पर लोग यही कहते हैं कि राष्ट्रपति विद्वान, बेहद स्वच्छ छवि का व्यक्ति और निर्विवाद होना चाहिए। लेकिन कई मौके ऐसे आए जिन्होंने साबित किया कि निर्णायक घडी में वे राष्ट्रपति चूक कर गए जिनमें सब कुछ था लेकिन राजनीतिक सूझबूझ नहीं। इस श्रेणी में एपीजे अब्दुल कलाम भी आते हैं जिन्होंने बिहार में राष्ट्रपति शासन के मुद्दे पर देश की आला अदालत द्वारा उनके विवेकाधिकार पर भी जब सवालिया निशान लगाया गया था तो अपराध बोध से ग्रसित व्यक्ति की तरह वे चुप हो गए थे। अगर चंद्रशेखर जैसा कोई खांटी राजनीतिज्ञ होता तो आला अदालत द्वारा संवैधानिक लक्ष्मण रेखा पार करने का तीव्र प्रतिवाद कर डालता। दरअसल तत्कालीन गवर्नर बूटा सिंह की रिपोर्ट पर केंद्रीय मंत्रिमंडल के अनुमोदन के बाद एपीजे अब्दुल कलाम के पास कोई विकल्प ही नहीं था कि वे बिहार की सरकार को भंग कर राष्ट्रपति शासन लागू करने के फैसले पर रोक लगाते।
पूरी प्रक्रिया में कहीं कोई संवैधानिक त्रुटि नहीं थी और राष्ट्रपति को इसके बावजूद सरकार के फैसले में बाधक बनने के लिए प्रेरित करने का मतलब सत्ता के दो केंद्र स्थापित करना था, जो निश्चित रूप से एक बड़ी भूल थी। राष्ट्रपति के विवेकाधिकार की समीक्षा करना भी सुप्रीम कोर्ट के अधिकार क्षेत्र में नहीं है, लेकिन ऐसा किया गया था। इस तरह के तमाम उदाहरण गिनाए जा सकते हैं जिनके आधार पर कहा जा सकता है कि मुलायम सिंह सैद्धांतिक रूप से एकदम सही थे।
अब दूसरा सवाल यह है कि मुलायम सिंह ने एक बार प्रणव दा के नाम पर सकारात्मक विचार देने के बाद कांग्रेस को नखरे क्यों दिखाए और पहले ममता के साथ खड़े होना और इसके बाद मुकर जाना क्या उनकी अवसरवादिता का द्योतक है? इस मामले में स्थिति स्पष्ट है। मुलायम सिंह की राजनीतिक लाइन उनको वामपंथियों से अलग होकर बहुत दूर तक चलने की इजाजत नहीं देती जबकि ममता का अस्तितत्व ही वामपंथ के विरोध पर टिका है, इस कारण मुलायम सिंह मौका पड़ने पर ममता बनर्जी का इस्तेमाल भले ही कर लें लेकिन वे उनके साथ कोई स्थाई गठबंधन करेंगे, ऐसा सोचना सरासर नादानी होगी। मुलायम सिंह ने इस कारण जो किया वह उनकी राजनीतिक लाइन के अनुरूप है। कुछ लोग सवाल कर सकते हैं कि वामपंथी दल कांग्रेस का विरोध कर रहे हैं जबकि वे साथ दे रहे हैं। ऐसे में कैसे कहा जा सकता है कि मुलायम सिंह वामपंथियों के प्रति अपनी स्वाभाविक मित्रता को लेकर सचेत हैं। इसका उत्तर यह है कि मुलायम सिंह की कांग्रेस से मित्रता रणनीतिक है, वैचारिक नहीं और यह बात वामपंथियों को भी मालूम है।
ममता बनर्जी को इस मामले में किस रूप में देखा जाना चाहिए यह भी एक मुद्दा है? वे पिछले कुछ महीनों से लगातार सरकार को ब्लैकमेल करने का काम कर रही हैं, उनके किसी कदम का सैद्धांतिक औचित्य स्थापित नहीं किया जा सकता। खासतौर से रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी के इस्तीफे के मामले में उन्होंने इंतहा कर दी थी। सरकार झुक गई थी जिसके कारण उन्हें अपने विघ्न मूल्य का बेहद अभिमान हो गया है। ममता बनर्जी का न प्रणव मुखर्जी से कोई विरोध है और न ही एपीजे अब्दुल कलाम आदि से लगाव..। मनमोहन सिंह का नाम प्रस्तावित करके उन्होंने खुद ही अपनी कुटिलता को बेनकाब कर दिया था। जिस सरकार को वे सहारा देने का ढोंग कर रही हैं उस सरकार को गर्त में ढकेलने का इससे ज्यादा सटीक उपक्रम कोई दूसरा नहीं हो सकता। इसी कारण सोनिया गांधी भी अब ममता के प्रति बेहद तल्ख हो गई हैं और आने वाले दिनों में इससे केंद्र की राजनीति में नये समीकरण देखने को मिल सकते हैं। प्रणव मुखर्जी का जहां तक सवाल है, आज उन्हें सोनिया निर्देशित सरकार का सबसे बड़ा संकटमोचक कहा जा रहा है, लेकिन एक समय था जब उनकी बेहद धूर्त छवि प्रस्तुत की गई थी और इसके बाद राजीव गांधी के समय से ही कांग्रेस में लम्बे समय तक उनको नेपथ्य में रखा गया। आश्चर्यजनक बात यह है कि सोनिया गांधी ने नारायण दत्त तिवारी और अर्जुन सिंह पर कांग्रेस के सत्ता में आने के बाद से कभी भरोसा नहीं किया जबकि यह दोनों नेता उनके लिए राव से टकराकर बड़ी कीमत चुकाने का दम भरते रहे, और प्रणव ने ऐसा कुछ नहीं किया फिर भी वे एकाएक उनके लिए इतने विश्वसनीय हो गए कि उन्होंने सर्वोच्च पद के लिए दादा का नाम प्रस्तावित कर दिया। अब सवाल यह है कि क्या मुलायम सिंह ने प्रणव मुखर्जी के राष्ट्रपति बनने में कुछ और सम्भावनाओं की झलक देखी है, जिसकी वजह से दूरदर्शिता दिखाते हुए उनका समर्थन किया है। इसे लेकर फिलहाल कयास ही लगाए जा सकते हैं, लेकिन यदि आगामी लोकसभा चुनाव के बाद अनिश्चित राजनीतिक तस्वीर उभरी तो प्रणव मुखर्जी का रोल कैसा होगा, यह ऐसे कयासों का औचित्य सिद्ध करेगा।

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