Menu
blogid : 11678 postid : 12

तालिबान से ही सीखो हे मनमोहन…

बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
  • 100 Posts
  • 458 Comments

अर्थ व्यवस्था के क्षेत्र में देश तीन कारणों से विशेष रूप से चर्चा में है। एक तो रुपया का भारी अवमूल्यन दूसरे विकास दर घटकर ६ प्रतिशत रह जाने की आशंका और तीसरे फिज द्वारा प्रमुख बैंकों को नकारात्मक रेटिंग में डालना। विलाप किया जा रहा है कि डॉ. मनमोहन सिंह जैसे महान अर्थशास्त्री के होते हुए आखिर अर्थ नीति के परिणाम इतने निराशाजनक क्यों सामने आ रहे हैं। मनमोहन सिंह को कड़े फैसले लेने की हिदायत दी जा रही है। मनमोहन सिंह खुद भी कह रहे हैं कि वे अब कठोर फैसला लेने में चूक नहीं करेंगे। उनका यह कठोर फैसला किनके खिलाफ होगा, वे जो टैक्स दे सकते हैं लेकिन छूट के दायरे में रखे जा रहे हैं या वह आम जनता जो एक-एक रोटी काटकर रसोई गैस की मूल्यवृद्धि के चलते बढ़ने वाले घरेलू बजट के खर्चे की भरपाई करती है। मनमोहन सिंह ने तो अभी तक यही साबित किया है कि देश की जरूरतें पूरी करने के नाम पर उन्हें गरीब जनता का खून चूसना आता है जबकि खरबपति से शंखपति की ओर कदम बढ़ा रहे धनाढ्यों से वे अपनी सरकार के लिए उनकी कृपाकोर चाहते हैं।
इस मामले में मनमोहन सिंह की नीतियों की समीक्षा बाद में, पहला सवाल यह है कि क्या सफल अर्थनीति बुनियादी नैतिक मूल्यों से परे है? यह देश बात-बात में गांधीजी के नाम की दुहाई देने वाले कर्णधारों का देश है और गांधीजी ने कहा था कि वे ये सोच भी नहीं सकते कि व्यापारिक लाभ के लिए हर तरह की नैतिकता का गला घोंट दिया जाए।
मनमोहन सिंह जिस अर्थनीति के धुरंधर खिलाड़ी हैं वह जुए का दूसरा रूप है। जिस कंपनी का कोई उत्पाद बाजार में न बिक रहा हो, जिसकी किसी सेवा की ग्राहक की निगाह में कोई साख न हो उस कंपनी के शेयर सबसे ऊंचे जा सकते हैं और जिस कंपनी के माल की बाजार में जमकर मांग हो उसका दीवाला निकल सकता है, यह है इस अर्थनीति की भूलभुलैया।
मनमोहन सिंह ने लक्ष्य बनाया कि देश में करोड़पतियों और अरबपतियों की संख्या बढ़ाने का कीर्तिमान स्थापित किया जाए, इसके तहत एक रुपए से एक लाख रुपए का मुनाफा कमाने वाले बाजीगरों को उनकी सरकार से भरपूर प्रोत्साहन मिला। रिजर्व बैंक के बैंकिंग के बारे में कड़े नियमों के रहते हुए भी देश के हर गली-कूचे में लोगों की बचत का पैसा बटोरने वाली चिट-फंड कंपनियों की कुकुरमुत्तों की तरह बाढ़, बाजार की मूल्य प्रणाली पर सट्टेबाजों का पूर्ण नियंत्रण इत्यादि इस तरह की मिसालें हैं जिनसे यह उजागर होता है कि मनमोहन सिंह की अर्थनीति में नैतिकता को किस तरह ताक पर रख दिया गया है। यह मौलिक, आध्यात्मिक मान्यताओं और आदर्शों के विरुद्ध है। जुआ को सभी धर्मों में पाप करार दिया गया है और इस्लाम तो इसे हराम घोषित करता है। एनरॉन, जीरॉक्स और वर्ल्ड कॉम जैसी अमेरिकी कंपनियों का दीवाला जब निकला था तब यह बात स्पष्ट हो गई थी कि इनके उत्पादों की बाजार में चाहत में कोई कमी नहीं थी, इनसे चूक हुई तो सिर्फ इतनी कि शेयर बाजार के जुआड़खाने में यह अपने पत्ते ठीक से शो नहीं कर सके।
इस्लाम जैसी विचारधारा अगर इस कुफ्र के नाते अपने कुछ अनुयायियों को डब्लूटीओ पर विमान हमले के लिए प्रेरित करती है तो इसमें आश्चर्य क्या है? तालिबानी संकुचित दायरे में सोचते रहे हैं, लेकिन उनका आतंकवाद कहीं न कहीं जुए का स्वरूप ले चुके आधुनिक बाजारवाद के खिलाफ मौलिक रूप से आध्यात्मिक घृणा की ही अभिव्यक्ति है। इस अर्थनीति के आयाम पूरी तरह से मनुष्यता विरोधी हैं। एक रुपए से एक लाख रुपए का मुनाफा कमाने वाला कम से कम दस हजार लोगों के जायज हक पर डाका डालता है। नई अर्थनीति के नाम पर मुनाफे की यह होड़ कितने लोगों की जीविका छीन रही है इसका अंदाजा लगाया जा सकता है? साथ ही पानी के संकट के इस युग में अमीरों के घर वाटर पार्क बनाने का फैशन एक उदाहरण है जो यह जताता है कि यह अर्थनीति सफल लोगों को उकसाती है कि वे अपनी शक्ति और अहंकार के प्रदर्शन के लिए आम लोगों को मौलिक अधिकारों की श्रेणी में आने वाले उन साधनों से भी वंचित कर दें जिनके बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। अध्यात्म के मामले में इस देश का इतिहास तो हजारों वर्ष पुराना है फिर उसे आधुनिक बाजारवाद के सामने समर्पण करते हुए हिचकिचाहट क्यों महसूस नहीं हुई? इस देश के लोगों ने मनमोहन सिंह जैसों को अर्थव्यवस्था में भगवान के अवतार के रूप में नवाजने की बजाय एक ऐसा रास्ता तलाशने के लिए अपनी प्रतिबद्धता का प्रदर्शन क्यों नहीं किया जो बाजीगरी की बजाय पारदर्शिता पर आधारित हो? अमेरिका प्रेरित अर्थनीति अब एक अंधी गली में प्रवेश करती जा रही है और इस कारण स्वस्थ अर्थनीति के नए मॉडल को सामने लाने के लिए किसी न किसी को पहल तो करनी ही पड़ेगी।
उदाहरण के तौर पर खेती आज लगातार घाटे का सौदा बन रही है और मानव सभ्यता के लिए खेती जरूरी भी है। ऐसे में किसी भी मजबूरी के नाम पर किया जाए, लेकिन डीजल की कीमत बढ़ाने का फैसला खेती को और दुरूहकर्म बना देगा। ऐसी मजबूरी प्राकृतिक न्याय के विरुद्ध है तो हमें सोचना पड़ेगा कि वर्तमान मुद्रा आधारित मूल्य प्रणाली की सीमाओं के कारण हम आत्मघाती कदम आगे बढ़ाने की ओर चल पड़े हैं तब क्यों न यह विचार हो कुछ मामलों में गुत्थियों को सुलझाने के लिए बाजार में वस्तु विनिमय प्रणाली एक कारगर विकल्प हो सकती है। सरकार को डीजल की कीमत बढ़ानी है तो बढ़ाए लेकिन किसान से उसकी कीमत रुपए में वसूलने की बजाय अनाज के रूप में ली जाए और इसकी मात्रा स्थिर हो। यानी आज अगर लगभग ४४ रुपए लीटर में डीजल खरीदकर किसान गेहूं पैदा करता है और अगर सरकार पे्ट्रो पदार्थों की अंतरराष्ट्रीय मूल्यवृद्धि की दुहाई देकर डीजल की कीमत अचानक ५५ रुपए करने का फैसला करती है, यह जानते हुए भी कि इसके बावजूद आने वाली फसल में गेहूं की कीमत नहीं बढ़ेगी, तो होना यह चाहिए कि वह तय करे कि वह किसान को रुपया लेकर डीजल उपलब्ध कराने की बजाय साढ़े ४ किलो गेहूं के बदले में एक लीटर डीजल देगी। जीवन की सच्चाइयों के बीच संतुलन के लिए ऐसा करना जरूरी है, यह बात बहुत जल्दी बहुत लोगों को महसूस हो जाएगी।
मैंने यहां केवल बात समझाने के लिए एक उदाहरण की चर्चा की है, लेकिन आधुनिक अर्थनीति में कई ऐसी विसंगतियां हैं जिनका निराकरण करने के लिए तयशुदा विकल्पों से अलग हटकर नए विकल्प अजमाने ही होंगे। इस देश में प्रतिभाशाली लोगों की कमी नहीं है, लेकिन यह हीन भावना से भरा हुआ एक देश है जो सोचने की शक्ति दूसरों के हवाले कर देता है और फिर वे जो थोपते हैं उन विचारों को अनिवार्य नियति समझकर भेड़ की तरह उनके पीछे चल देता है। यह स्थिति बदलने की जरूरत है। देश के लोगों में यह साहस पैदा होना चाहिए हम शक्तिशाली देशों के पिछलग्गू होने के लिए पैदा नहीं हुए बल्कि हमारी फितरत वो है जो तथाकथित महाशक्तियों सहित पूरी दुनिया को अपने पीछे चलने के लिए मजबूर कर दे। यह केवल जबरिया अपनी श्रेष्ठता दूसरों के ऊपर थोपने की महत्वाकांक्षा नहीं है बल्कि अपनी नैतिक प्रतिबद्धता के कारण हम वास्तव में सारे लोगों के भले के लिए सोच सकते हैं। इस कारण हमारे सोचने पर दुनिया चलेगी तो सब आगे बढ़ेंगे और सब खुशहाल होंगे। आइये विचारों के इस कारवां में जुड़कर आप हम जैसों का मार्गदर्शन करें ताकि मृत हो चुकी हमारी वैचारिक जिजीविषा पुनः उत्कट रूप में जीवित हो सके।

Tags:   

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply