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कद्रदान नहीं बाजार गढ़ता सुपरस्टार

बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
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फिल्म अभिनेता राजेश खन्ना इन दिनों बुरी तरह बीमार हैं। हालांकि उनके परिजन लगातार यह विश्वास दिलाने की कोशिश कर रहे हैं कि काका किसी खतरे में नहीं हैं, लेकिन दो बार उनका आईसीयू में पहुंचना तमाम आशंकाएं पैदा करता है। मैं भी यही कामना करता हूं कि काका अभी आयुष्मान रहें और लम्बी पारी खेलें। वैसे भी उनकी उम्र ६९ वर्ष ही है और दिलीप कुमार से वे काफी छोटे हैं।
राजेश खन्ना और दिलीप कुमार दोनों उस जमाने के सुपरस्टार हैं जब बाजार की शक्तियां किसी सुपरस्टार को नहीं गढ़ती थीं बल्कि स्वाभाविक जनमान्यता के तहत वह इस दर्जे को हासिल करता था। दिलीप कुमार और काका को अमिताभ बच्चन की तुलना में देखा जाना चाहिए। अमिताभ बच्चन सुपरस्टार ही नहीं उससे ऊपर मिलेनियम स्टार का खिताब भी हासिल कर चुके हैं, लेकिन वितंडा की परतें कालप्रवाह में आगे चलकर जब उधड़ जाएंगी तो उन्हें जो तगमे मिले हैं वे कितने विश्वसनीय हैं, इसकी परीक्षा होगी। अमिताभ बच्चन की जब चर्चा होती है तो कई राजनीतिक अध्याय भी खुले बिना नहीं रहते। उन्हें पहली फिल्म सात हिंदुस्तानी में पीएमओ की सिफारिश पर लिया गया था। तब उनका रोल छोटा था। बाद में उन्हें हीरो के रूप में भी काम पीएमओ के दबाव पर ही दिया गया वरना कोई प्रोड्यूसर, डायरेक्टर उनके व्यक्तित्व को हीरो के बतौर देखने के लिए तैयार नहीं था। वे लोग एकदम सही भी थे क्योंकि अमिताभ बच्चन की शुरुआती एक दर्जन से ज्यादा फिल्में बॉक्स ऑफिस पर बुरी तरह पिटीं। फिर भी उन्हें चांस मिलता रहा क्योंकि प्रोड्यूसर, डायरेक्टर इंदिरा गांधी जैसी प्रधानमंत्री की नाराजी मोल नहीं ले सकते थे। संयोग से जंजीर फिल्म सुपरहिट क्या हुई इसके बाद तो अमिताभ बच्चन ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। ऐसा क्यों हुआ, जनसामान्य के मनोविज्ञान को ध्यान में रखकर आंकलन करें तो सब कुछ स्पष्ट हो जाएगा। अमिताभ बच्चन ने इंदिरा गांधी के पुत्र राजीव गांधी के विवाह में बेहद अहम भूमिका निभाई थी, यह बात न सिर्फ प्रचारित थी बल्कि अमिताभ बच्चन ने सत्ता में जबर्दस्त दखल दिखाने वाले कई काम भी किए। उस समय जबकि बड़ी से बड़ी फिल्मी हस्ती के लिए जुहू के एसएचओ तक से पार पाना मुश्किल था अमिताभ बच्चन का यह मयार लोगों के दिमाग में उन्हें ऐसे शक्ति केंद्र के रूप में नक्श कर गया कि उसके बाद उन्हें सुपरस्टार मानना स्वतः स्फूर्त प्रक्रिया रही। कहने का तात्पर्य यह है कि अमिताभ बच्चन अपनी किसी अदा, अभिनय शैली के कारण, फिल्मी हुनर में किसी दक्षता के कारण सुपरस्टार नहीं कहलाए बल्कि दबदबे की वजह से उन्हें यह मुकाम हासिल हुआ।
सही बात तो यह है कि अमिताभ बच्चन चाहे कुली बने हों या रिक्शा वाले वे रोल को जीने की नाना पाटेकर की तरह कला कभी नहीं दिखा सके। उन्होंने अपने दौर में डायरेक्टर को इस बात के लिए मजबूर किया कि वह रोल से ऊपर अमिताभ बच्चन को रखने की स्थिति को स्वीकार करे। हालांकि स्थापित होने के बाद राजेश खन्ना को भी इतना अहंकार हो गया था कि यह गलती उन्होंने भी की और इसका परिणाम भी भोगा। दूसरी ओर अमिताभ बच्चन राजीव गांधी के समय सांसद बनकर इतने अहम हो गए थे कि उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री को सर्वेंट की तरह बुलाने के उनके व्यवहार की खबरें माया व अन्य पत्र-पत्रिकाओं में छपी थीं। राजस्थान के मुख्यमंत्री सहित उस दौर में कई महत्वपूर्ण राजनीतिक, प्रशासनिक नियुक्तियां अपने कृपापात्रों की कराने में वे सक्षम थे। इससे उनका ताकतवर हस्ती के रूप में तो स्थान ऊंचा होता गया, लेकिन कलाकार के रूप में मूल्यांकन गिरता गया। बाद में उन्हें राजनीति से भी रुखसत होना पड़ा। उन्होंने इसके बाद राजनीति को बेहद गंदा पेशा करार देते हुए बहुत गालियां दीं और फिर फिल्मी कैरियर संवारने में जुट पड़े। स्थिति यह थी कि दर्शक उनको स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे। इस बीच बीपीएल से हुए २५ करोड़ रुपए के मेहनताना के करार के बाद उन्होंने अमेरिका की ग्रीनकार्ड सदस्यता स्वीकार कर ली। जिससे अपने हिसाब-किताब को दुरुस्त करने में उन्हें काफी सहूलियत मिली, लेकिन लोग देश के प्रति उनकी निष्ठा को लेकर संदिग्ध होते गए। उसी दौरान एबीसीएल में फिल्मी कैरियर के लिए आवेदन करने वाले युवक-युवतियों की फीस हजम हो जाने का मुद्दा भी उनके गले की फांस बना। इन विपरीत परिस्थितियों में अमिताभ बच्चन बागवान तक आते-आते कैसे दोबारा सुपरस्टार का अवतार लेते हैं और मिलेनियम स्टार तक का दर्जा हासिल कर लेते हैं, यह अपने आपमें एक दिलचस्प कहानी है। इस कहानी के अंदर झांकने पर पता चलता है कि अमिताभ बच्चन ने जिन कंपनियों के विज्ञापन में काम किया वे मीडिया की बड़ी विज्ञापनदाता थीं और मीडिया का एजेंडा तय करने में सक्षम थीं।
यही वजह है कि रात १० बजे ही दारू पीकर टुन्न हो जाने वाले पत्रकारों को अपने मालिकान के इशारे पर सुबह ३ बजे सिद्धिविनायक मंदिर में दर्शन के लिए जा रहे अमिताभ बच्चन को शूट करने के लिए पहुंचना पड़ता है। उनके सुरक्षाकर्मी मीडिया के हमारे भाइयों को लतियाते हैं फिर भी उनके पीछे लगे रहना उनकी मजबूरी होती है। अवचेतन में मीडिया कर्मियों के सामने उनकी यह निरीहता लोगों में उनके दबदबे को इतना बढ़ा गई कि वे उन्हें मिलेनियम स्टार कहने के लिए तत्पर हो गए तो इसमें न कुछ अनहोना है न विचित्र, लेकिन आज मेरी चर्चा का विषय काका हैं न कि अमिताभ बच्चन इसलिए उन पर विशद चर्चा किसी दिन बाद करूंगा। अपनी बात को विराम देने के पहले सिर्फ इतना कहना चाहता हूं कि आज प्रोपोगंडा की शक्तियां मानवीय विवेक को हाईजैक करती जा रही हैं। वे जो मान्यताएं परोसती हैं वही प्रचलित हो जाती हैं। ऐसा नहीं होना चाहिए। बाजार इतिहास और विचारधारा की समाप्ति की बात कहता है जिसके साथ प्रतिबद्धता का गुण भी गौण हो जाता है, लेकिन हम बाजार के बंधक नहीं हैं। समाज और कला के उच्च प्रतिमान हमेशा ध्यान रखने होंगे और उनकी कसौटी पर कसने के बाद ही यह मूल्यांकन होना चाहिए कि कौन महाकाय है और कौन औसत व्यक्तित्व।

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