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विश्व गुरु तो आज भी है भारत

बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
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आज गुरु पूर्णिमा है। विश्व के अनेकों देश हैं जो आज भी भारत को अपनी गुरु भूमि मानते हैं। बौद्ध धर्म दुनिया का पहला मिशनरी धर्म था, जिसके कारण इसके अनुयायी संसार भर में फैले। यह धर्म विशुद्ध रूप से अपने सिद्धांतों के कारण लोकप्रिय हुआ, किसी प्रलोभन या दबाव का कोई योगदान इसे प्रसारित करने में नहीं रहा। चीन, जापान जैसे देशों से भी कोई बुद्धिष्ट भारत में संकिशा, सारनाथ, सांची आदि की तीर्थयात्रा करने आता है तो अपने गुरु की भूमि की रज उठाते हुए श्रद्धा से विभोर हो जाता है। बुद्ध से उनके निर्वाण के ठीक पहले उनके सबसे प्रिय शिष्य आनंद ने पूछा कि मेरे लिए क्या मार्ग निर्देश है। बुद्ध का उत्तर था अप्पो दीपो भव यानी अपने दीपक स्वयं बनो।
गुरु का अर्थ शिष्य को मानसिक रूप से बंधक बनाना नहीं बल्कि उसे ऐसा अभय प्रदान करना है जिससे वह स्वतंत्र रूप से अपने चिंतन का विकास कर सके। सच्चे गुरु की सबसे बड़ी महत्वाकांक्षा यह होती है कि वह कितना भी प्रकांड ज्ञानी क्यों न हो, लेकिन शिष्य अपने भवितव्य में उससे भी आगे निकल जाए। तथागत बुद्ध में यह विशेषता थी, इसी कारण बौद्ध संसार में इतनी ज्यादा संगीति हुई। शास्त्रार्थ की परम्परा बौद्ध संसार से ही शुरू हुई। तथागत बुद्ध एक प्रतिमान हैं जिनको आगे रखकर किसी भी गुरु की गहराई को नापा जा सकता है। जिन्होंने गुरु ऋण के लिए अपने शिष्य के विवेक का विस्तार कीला है उन्होंने इस देश का बड़ा नुकसान किया है।
गुरु शिष्य के संदर्भ में भगवान दत्तात्रेय भी एक दृष्टांत हैं। निश्चित रूप से भगवान दत्तात्रेय के गुरु भी ऐसे रहे होंगे जिन्होंने कहा होगा कि मेरे योग्य शिष्य तुम सिर्फ मुझसे बंधकर न रह जाना बल्कि ज्ञान जहां से मिले उससे शिष्य बनकर ग्रहण करना। भगवान दत्तात्रेय ने २४ गुरु बनाए जिनमें जानवर तक शामिल थे।
उत्तर प्रदेश के जनपद जालौन में कालपी के निकट इटौरा नामक स्थान के बारे में बताया जाता है कि कभी यहां भगवान दत्तात्रेय ने तपस्या की थी तो मुझे बेहद गर्व होता है कि मैंने ऐसे जिले में जन्म लिया जहां ज्ञानयोग खूब फलाफूला। अध्यात्म में विकास की तीन अवस्थाएं हैं भक्ति योग, कर्मयोग और ज्ञानयोग- आरम्भिक अवस्था भक्ति है जिसमें अंध समर्पण रहता है, लेकिन इसके बाद विवेक जागृत होने पर साधक स्वयं अनुसंधानकर्ता बन जाता है और मौलिक चिंतन के क्रम को विस्तार देकर ज्ञान शास्त्र में नया अध्याय जोड़ता है।
कहने का तात्पर्य यह है कि ज्ञान योग भक्ति योग की तुलना में विकास का उच्च सोपान है और जब ज्ञान को कर्म में परिणित कर संसार के कल्याण का निमित्त बनाने की सामर्थ्य आ जाती है तो कर्म योग की छटा दिखाई पड़ती है। जालौन जिले में अक्षरा देवी, रक्तदंतिका देवी जैसी शक्तिपीठ हैं जहां मूल रूप से कोई प्रतिमा स्थापित नहीं थी। आज भी कोई निरपेक्ष चिंतक इन पीठों को निहारे तो उसके सामने स्पष्ट हो जाएगा कि यहां स्वतः आध्यात्मिक चिंतन का स्फुरण करने वाला परिवेश है। जिसकी वजह से यहां भक्ति नहीं सम्यक समाधि होती थी।
जालौन जिले में कालपी में वेदव्यास का आश्रम रहा है, बबीना में लोकश्रुति के अनुसार महर्षि वाल्मीकि का आश्रम था, संदी गांव में बताया जाता है कि संदीपन ऋषि का गुरुकुल चलता था। परासन में पाराशर ऋषि का गुरुकुल था। किंवदंतियों को सुनने के बाद जब वस्तुस्थिति खंगाली जाती है तो कहीं से यह बात प्रमाणित नहीं हो पाती कि कभी वाल्मीकि जालौन जिले में आए भी थे या संदीपन ऋषि ने यहां कोई गुरुकुल चलाया था। उरई के पास बड़ागांव को लेकर भी एक किंवदंती है कि यहां उद्दालक ऋषि के आश्रम में कुछ दिनों आचार्य चाणक्य ने अध्ययन किया था। वाल्मीकि रामायण काल के ऋषि हैं तो संदीपन महाभारत काल के। चाणक्य नंद वंश के समकालीन हैं, सबमें हजारों का नहीं तो सैकड़ों वर्षों का अंतर है। मैं इन सबकी चर्चा इसलिए कर रहा हूं कि जालौन जिला किसी समय बहुत बड़ा अध्ययन केंद्र था जहां हर काल के चोटी के ऋषि और ज्ञानी ने अपने गुरुकुल की शाखा चलाई।
यह संयोग नहीं है कि इस्लाम का सबसे पहले दारुल उलूम भी इसी जनपद की धरती में तिरमिजी उलेमाओं ने कालपी में स्थापित किया था। गुरु पूर्णिमा के उपलक्ष्य में गुरु-शिष्य परम्परा की इस भूमि से लेखन करते हुए लीक से हटकर विचारों का प्रतिपादन होना सायास नहीं बल्कि एक स्वतः स्फूर्त प्रक्रिया है।
इस देश की वैचारिक यात्रा में कई विरोधाभासी पड़ाव हैं। बहुत वस्तुपरक होकर ही उनके विषय में नीर-क्षीर विवेचन हो सकता है। भारतीय परम्परा में ईश्वर को परमपिता कहा गया है और पिता के सामने कोई पुत्र भययुक्त नहीं पूर्णतः भयमुक्त होना चाहिए। ऐसा ही होता रहा होगा लेकिन यह कैसे हुआ कि लोग अपने पिता के सामने केंचुए की तरह कई किलोमीटर दूर से रेंगते हुए से जाएं। यह आभास कराएं कि अपने परमपिता से नहीं किसी आतंकवादी से मिलने जा रहे हैं। इन प्रक्रियाओं ने परमपिता द्वारा प्रदत्त प्रतिरोध की मानवीय शक्ति को किस तरह दमित किया कि जो भी सिंहासन पर बैठा वह प्रभु घोषित हो गया और निरीह, कातर होते गए हम उसका प्रतिकार न कर सके। सदियों की गुलामी हमारे नसीब में लिख गई।
राजा को प्रभु और उससे बढ़कर भगवान विष्णु का अवतार मानने की धारणा भारतीय समाज में आरोपित की गई। क्या ऐसा तो नहीं है कि इसके बाद परमपिता की आराधना के लिए साष्टांग दंडवत होने जैसी प्रक्रियाएं ईजाद हुईं जिसका लाभ सिंहासन पर बैठे विदेशी शासकों तक ने उठाया क्योंकि सिंहासन पर होने से धर्मभीरू जनता के लिए वह भी दिव्य अवतार और अपने प्रभु के रूप में ही दिखते थे। नेपाल में भी भारतीय धर्म की जड़ें गहरी रहीं और इस कारण वहां भी राजा को भगवान का अवतार मानने की रूढ़ि इतनी हावी रही कि वास्तविक राजा की हत्या करने वाले भी सिंहासन पर आरूढ़ हुए तो धर्मभीरू नेपाली जनता उनके खिलाफ खड़ी न हो सकी। अन्याय और दमन चक्र बढ़ता गया और अंत में यह हुआ कि एक नास्तिक विचारधारा की ओर नेपाली जनमानस उन्मुख हो गया।
पुनः इसी बात पर आता हूं कि आज गुरु पूर्णिमा का पावन उपलक्ष्य है जहां हमें यह याद रखना होगा कि व्यक्ति के विचार स्वातंत्र्य को पंगु बनाने वाली किसी परम्परा का पोषण करने की बजाय उसे और धार देने में समर्थ बनाने वाली परम्परा का अनुशीलन हो ताकि गुलामी का अतीत कभी भारतीय समाज के सामने दोबारा न आ सके।

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