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नचिकेता यम प्रसंग से गॉड पार्टिकल तक

बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
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क्लोन के बाद गॉड पार्टिकल की खोज कुछ ही अंतराल में ईश्वर के दर्जे तक पहुंचने की मनुष्य की महत्वाकांक्षा के फलीभूत होने का एक रूप है। वैसे मनुष्य को जब पहली बार अनुभव हुआ कि उसके पास दूसरे जीवों से अलग हटकर विवेक के रूप में एक विलक्षण शक्ति है तो उसने इस शक्ति का उपयोग सृष्टि और ब्रह्मांड से जुड़े रहस्यों को वैचारिक जगत में खोजने के लिए किया। आदिकालीन धार्मिक ग्रंथ और नचिकेता, यक्ष प्रश्न से जूझते युधिष्ठिर आदि प्रसंगों में इसकी झलक मिलती है। इसके माध्यम से मालूम होता है कि शुरू में मनुष्य में कितनी उत्कट जिज्ञासा थी कि वह कहां से आया, उसे किसने जन्म दिया, मृत्यु के बाद जीवन कहां चला जाता है, इत्यादि-इत्यादि…। आज मनुष्य बहुत परिपक्व हो गया है और अचानक वेदकालीन जिज्ञासाओं से भरे अपने पूर्वजों की चर्चा आने पर वह इस बात को सिद्ध करने का प्रयास करता है कि तत्कालीन जिज्ञासाओं में बहुत बचकानापन था और तब से आज तक आदमी प्रकाशवर्ष से भी अधिक की दूरी नाप चुका है, लेकिन यह सत्य नहीं है। हजारों सालों के फासले के बावजूद मनुष्य की मौलिक जिज्ञासाएं एक जैसी हैं। बहरहाल गॉड पार्टिकल के बारे में जिनेवा में वैज्ञानिकों द्वारा आज की गई प्रेस कांफ्रेंस में अभी बहुत विश्वास से कोई बात नहीं की गई है। कुछ संकेत दिए गए हैं कि नई खोज और नई स्थापना से तत्व की मौलिकता का सिद्धांत परिवर्तित करने की आवश्यकता पड़ सकती है। हालांकि, यह काम तो तभी हो गया था जब रेडियोधर्मी तत्वों का अस्तित्व खोजा गया था। कैसे यूरेनियम विघटित होते-होते अंत में जस्ते के रूप में परिवर्तित होता है। भौतिक शास्त्र की इस परिघटना को जानने के बाद तत्व की मौलिकता के सिद्धांत में दृढ़ता कहां रह गई थी?
विज्ञान भी कह रहा है कि निराकार ने पहले किरण का रूप लिया। फिर द्रव्यमान होकर पदार्थ की अन्य अवस्थाएं विकसित हुईं। यही बात अध्यात्म भी कहता रहा है, चूंकि मनुष्य में पहले दिन से ही अंतश्चेतना की ऐसी शक्ति रही है जिससे उसे सृष्टि के निर्माण की प्रक्रिया का आभास मिलता रहा। आगे चलकर अकादमिक जगत में यह बहस निश्चित रूप से शुरू होगी कि बहुत ज्यादा पढ़-लिखकर मनुष्य अपनी आंतरिक शक्तियों का विकास करता है या इस प्रक्रिया में उसका दिमागी कंप्यूटर इतना ओवरलोडेड हो जाता है कि उसे मूल रूप में प्रकृति के संकेतों को समझने की जो शक्ति मिली है वह ब्लॉक हो जाती है वरना आदिमानव तो निश्चित रूप से पशु-पक्षियों की तरह भूकम्प आने, ज्वालामुखी फटने आदि अनहोनियों की पूर्व सूचना पाने में सक्षम था। यही नहीं बहुत पढ़े-लिखे का बोझ उसकी विश्लेषण क्षमता और अनदिखे सत्य तक पहुंचने की उसकी प्रतिभा को भी क्षीण करता है। मनुष्य गॉड पार्टिकल की खोज की साधना में अपनी आदिकालीन जिज्ञासा की ओर पुनः उन्मुख दिखा तो यह भी सिद्ध हुआ कि काल प्रवाह ऋजुरेखीय न होकर वर्तुलाकार है। क्या आज जो घटित हो रहा है वह पहले भी कभी घटित हो चुका था? क्या लाखों वर्ष पहले का घटनाक्रम तरंगों में बदलकर ऊर्ध्वमुखी होता जाता है और अंत में अपने शिखर से पुनः वह नीचे की ओर अग्रसर होता है और एक समय किसी सुरक्षित फ्लॉपी की तरह फिर से वह सब कुछ दिखाने लगता है जो पहले कभी घटित हो चुका है। तमाम वैज्ञानिक अनुसंधानों के बावजूद प्रकृति इतनी रहस्यमयी और अबूझ है कि एक दिन बड़े से बड़ा वैज्ञानिक उसे पूर्णतः बूझने में बौनापन महसूस किए बिना नहीं रहता।

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