कुछ ही दिन पहले फादर्स डे गुजरा है। मेरा दुर्भाग्य है कि मित्रों ने मुझे इस दिन मातृ-पितृ भक्त श्रवण कुमार का स्मरण नहीं कराया। बहरहाल दो दिन पहले ही मगरौठ के पास के कुछ लोग आए थे। उन्होंने बताया कि उनके गांव से कुछ दूरी पर चंदावरी गांव है जहां खड़े होकर नीचे हो रहे बेतवा और धसान के मिलाप को देखा जा सकता है। इस गांव में वह टीला आज भी मौजूद है जहां आखेट के लिए आए भगवान राम के पिता दशरथ ने अपने माता-पिता के लिए बेतवा-धसान के संगम पर पात्र में पानी भर रहे श्रवण कुमार पर इस भ्रम में तीर चला दिया कि कोई हिरण पानी पी रहा है। उन लोगों ने यह भी बताया कि बेतवा-धसान के इस संगम के दूसरे छोर पर झांसी जनपद का देवरी गांव है जहां श्रवण कुमार का मंदिर बना है।
मुझे यह पता है कि श्रवण कुमार की कहानी एक मिथक है, लेकिन तमाम मिथकीय कहानियों में मैंने प्रगतिशील धारणाओं को पुष्ट करने के सूत्र हासिल किए हैं। इस कारण मुझे इन कहानियों से कोई परहेज नहीं है। मेरा प्रयास रहता है कि मिथकों से जुड़े स्थलों पर जाने का अवसर मिले ताकि मैं यह जान सकूं कि किन परिस्थितियों में ऐसे मिथक प्रचलित हुए और उनके पीछे सार्वभौम सिद्धांत क्या है? यही वजह रही कि श्रवण कुमार से जुड़े स्थल का भ्रमण करने के लोभ का संवरण मौसम भीषण गर्मी का होने के बावजूद मैं नहीं कर पाया। एक्शन एड के सामाजिक कार्यकर्ता शिवमंगल सिंह मेरे साथ रहे। चंदावरी हमीरपुर जिले के गोहांड ब्लॉक का गांव है।
तपन के कारण नदियां सूखकर पोखर की शक्ल में रह गई हैं। उस हिसाब से चंदावरी के पास संगम में अभी भी ठीकठाक पानी है। मैंने उस चबूतरे को देखा जहां से दशरथ द्वारा तीर चलाने की बात कही जाती है। उस चबूतरे पर आकृतियों की शक्ल में गढ़े गए पत्थर रखे हुए हैं, जिनमें किसी मुकुटधारी का सिर तराशा गया है।
गांव के लोग और नीचे संगम पर नहाते मवेशियों को पानी पिलाते ग्रामीण अपने यहां की महिमा को लेकर कोई खास उत्सुक नहीं थे। तेज पसीना निकलने और बार-बार गला सूखने के बावजूद मैं रोमांचित था कि एक ऐसे स्थल का साक्षात्कार कर रहा हूं जहां से मातृ-पितृ भक्ति की एक अमर कहानी जन्मी, जो वक्त के सदियों से आगे बढ़े चले आ रहे काफिले के साथ हमकदम बनी हुई आज भी जीवंत है। गांव वालों से मैंने श्रवण कुमार के मंदिर तक पहुंचने का रास्ता पूछा। उन्होंने कहा कि आपको नदी पारकर चार-पांच किलोमीटर बीहड़ के रास्ते से देवरी गांव तक पैदल जाना पड़ेगा। गर्मी के कारण यह बेहद कष्टसाध्य था, लेकिन हम लोग इसके बावजूद एडवेंचर किस्म की भावना के भरे हुए थे, जिससे पीछे नहीं हटे। किसी तरह डेढ़ घंटे की पदयात्रा के बाद देवरी में श्रवण कुमार के मंदिर तक पहुंच गए। यह मंदिर गुमनामी में है। शायद ही कोई यहां आता-जाता हो। मंदिर की भित्तियों पर श्रवण कुमार की पूरी कहानी का चित्रांकन है।
गांजा पी रहे वहां मौजूद बाबाओं ने बताया कि छत पर जो कांवर रखी है, श्रवण कुमार ने उसी पालकी में नेत्रहीन मां-बाप को बैठाकर देशाटन कराया था। मुझे यह लगा कि शिवरात्रि में जगतपिता भगवान शिव की आराधना के लिए कांवर उठाकर चलने की परम्परा श्रवण कुमार की कहानी से प्रेरित होकर ही प्रवर्तित हुई होगी। वैसे भी बेतवा धसान का संगम स्थल होने के कारण पर्यावरणविदों के लिए यह महत्वपूर्ण केंद्र है। उस पर श्रवण कुमार के मिथक से जुड़ाव इस क्षेत्र को और अनूठा बना देता है। फिर भी कल्पना शक्ति की कमी के कारण अधिकारी और जनप्रतिनिधि यहां पर्यटन के विकास के लिए कुछ नहीं कर पाए। यह ग्लानि का विषय है।
पर्यटन सिर्फ उद्योग या व्यवसाय ही नहीं धार्मिक और आध्यात्मिक पर्यटन का केंद्र बन जाने से सम्बंधित इलाके के लोगों का आत्मगौरव बढ़ता है, जो उनकी रचनात्मक और सृजनात्मक शक्ति के लिए त्वरण का कार्य करता है, लेकिन मानव संसाधन के महत्व से मानव संसाधन के इस युग में भी हमारे तथाकथित कर्ताधर्ता अपरिचित हैं। इसे लेकर क्या कहा जाए?
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