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बलात्कारियों के लिए नहीं पत्रकारों के लिए है जेल

बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
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उरई (जिला-जालौन उत्तर प्रदेश) में पत्रकारों का पुलिस और प्रशासन द्वारा उत्पीड़न आम बात है। वजह यह है कि बुंदेलखंड में यह जिला पत्रकारिता के क्षेत्र में शुरू से ही राजनीतिक जागरूकता अधिक होने के कारण बेहद सक्रिय रहा है।
मैं उरई में बाद में आया, लेकिन मुझे यह नहीं मालूम कि यह सिर्फ एक किंवदंती है या सच्चाई कि प्रदेश के सभी जिलों का आईक्यू के मामले में एक बार सर्वे हुआ था, जिसमें जालौन को सबसे आगे पाया गया था। बहरहाल यहां ताजा पत्रकार उत्पीड़न का मामला यह है कि पुलिस ने बलात्कार के एक आरोपी के पक्ष में खड़े होकर १३ पत्रकारों को नामजद करते हुए और ३० अन्य को अज्ञात में रखकर भयादोहन का मुकदमा कायम कर लिया है।
भले ही यह मुकदमा बाद में एक्सपंज हो जाए, लेकिन उरई की पुलिस ने अगर इस मुकदमे के निहितार्थ और दूरगामी परिणाम देखे जाएं, तो अपने राजनीतिक करियर का आगाज कर रहे युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के लिए प्रथम ग्रासे मच्छिका पाते की स्थिति पैदा कर दी है। एक तो जबकि महिला उत्पीड़न का मामला पूरी दुनिया में संवेदनशील माना जा रहा है उसके सबसे जघन्य पहलू से जुड़े आरोपी की हमदर्दी में जिसे इस मुकदमे के बाद अब छुपाया नहीं जा सकता, अखिलेश की पुलिस का आगे आना दो ही बातें साबित करता है, या तो यह कि सपा मूल रूप में आज भी वही है जिसके लिए वह बदनाम रही है, अखिलेश ने केवल इस बदनामी को ओट में करने के लिए अपना तरीका बदला है या फिर उनकी प्रशासनिक पकड़, गवर्नेंस क्षमता कमजोर है।
ध्यान रहे कि पृथक उत्तराखंड के लिए आंदोलन कर रही महिलाओं के साथ पुलिस द्वारा बलात्कार का मामला उस समय गूंजा था जब सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री थे। हालांकि, मुलायम सिंह ने महिलाओं की शर्म से जोड़कर हर घर में शौचालय बनाने की वकालत जिस तरह अपने पहले मुख्यमंत्रित्व काल में की थी, वे अपनी हर सार्वजनिक सभा में उस समय के कुलीन समाज द्वारा उपहास का पात्र बनाए जाने के बावजूद इस मुद्दे को उठाने से नहीं चूकते थे। उसके कारण उनकी छवि महिलाओं के लिए बेहद संवेदनशील और प्रतिबद्ध नेता के रूप में उभरी थी, लेकिन पृथक उत्तराखंड के लिए आंदोलित महिलाओं के साथ हुई अभद्रता के मामले में जब उन्होंने हठधर्मिता दिखाई तो उनके अतीत के सारे पुण्य नष्ट हो गए थे।
बहुत बाद में मुलायम सिंह को अपनी गलती का अहसास हुआ। वक्त के साथ उन जख्मों की याद आज लोग भूल चुके हैं, लेकिन अखिलेश जिन्हें अभी लम्बी पारी खेलनी है, अपने पिता द्वारा अनजाने में की गई भूल को न दोहराएं, यही श्रेयष्कर है। वैसे उरई के पत्रकार उत्पीड़न के मामले में मुख्यमंत्री की या उनके आदमी की कोई भूमिका नहीं है और यह हम भी जानते हैं कि अवसरवादी नौकरशाही किसी की नहीं है। कल तक मायावती के आगे दुम हिलाती थी और आज उनके सामने दुम हिलाना, यही उसका चरित्र है।
तथापि, उरई के ताजा पत्रकार उत्पीड़न में डीआईजी झांसी ठाकुर सूर्यनाथ सिंह का रोल भी सामने आया है। पत्रकार जब उनसे बात करने गए और उन्होंने यह प्रमाणित किया कि उक्त मुकदमे का तो प्रथम दृष्टया ही कोई विधिक आधार नहीं था तो डीआईजी से जवाब देते नहीं बना और प्रकारांतर से उन्होंने बलात्कार के आरोपी के पक्ष को सही ठहराकर खुद ही अपना चेहरा बेनकाब कर लिया। यहां फिर दोहराना होगा कि बलात्कार का आरोपी बड़ा गुटखा व्यापारी है और ऐसे ही लोग आजकल अधिकारियों की सेवा करते हैं। अधिकारियों का भी धर्म है कि वे अपने इन शुभचिंतकों पर चाहे वे कोई धतकर्म करें, आंच न आने दें।
उरई के पत्रकारों ने मुकदमे के भय से अपनी कलम से समझौता करना कभी गवारा नहीं किया। यहां से पहला हिंदी दैनिक निकालने का श्रेय रखने वाले पंडित यज्ञदत्त त्रिपाठी ने १९६२ में चीन युद्ध के समय तत्कालीन सरकार की कायरता पर लिखे लेख के लिए उस समय के कलक्टर के आगे झुकना गवारा नहीं किया, जिससे उन्हें कई महीने जेल रहना पड़ा और उनकी प्रेस कुर्क हो गई। १९८६ में झांसी के तत्कालीन डीआईजी ने स्वयं मुझे यहां से प्रकाशित और उस समय दूर-दूर तक के कई जिलों में प्रसारित होने वाले दैनिक के सम्पादक पद से मालिकान को आतंकित कर हटने के लिए मजबूर कर दिया था, लेकिन आखिर में उसी मगरूर पुलिस अधिकारी को बेआबरू होकर जाना पड़ा।
दिसम्बर १९९२ में साम्प्रदायिक दंगा के समय जब उरई के पत्रकारों को पुलिस ने समाचार संकलित नहीं करने दिया तो कर्फ्यू तोड़कर हम लोगों ने सड़कों पर जुलूस निकाला। पुलिस अधिकारियों की हिम्मत नहीं हुई कि वे लाठियां चलाएं अलबत्ता मुकदमा कायम किया और उसे भी बाद में खत्म करना पड़ा। इस घटना का प्रतिशोध लेने के लिए चार महीने बाद पुलिस ने मेरे और मेरे मित्रों के खिलाफ डकैती का मुकदमा कायम कर लिया तो सारा जिला ही नहीं पूरा बुंदेलखंड सड़कों पर उतर आया था और यह मुकदमा भी पुलिस को खारिज करना पड़ गया था।
१९९५ में तत्कालीन डीएम ने उनके विरुद्ध किसान यूनियन के एक नेता का समाचार प्रकाशित होने के कारण पद के दुरुपयोग का तांडव किया। मैं और अमर उजाला के ब्यूरो चीफ अनिल शर्मा खासतौर पर उनके निशाने पर थे। यह पहली बार हुआ कि डीएम के लिखित आदेश के बावजूद हम लोगों के खिलाफ लूट का मुकदमा कायम नहीं हो पाया। उन्होंने एडीएम की अध्यक्षता में हम लोगों के खिलाफ मजिस्टीरियल जांच शुरू कराई, लेकिन उसे भी बंद करने में अपनी खैर मानी।
उरई के पत्रकारों की वर्तमान पीढ़ी ऐसी ही संघर्षशील परम्परा से जुड़ी हुई है। बलात्कार के आरोपी के खिलाफ मुकदमा कई दिन पहले लिखा जा चुका था। साथ ही उसके खिलाफ पुलिस अनेक संगठनों द्वारा किए जा रहे प्रदर्शनों के कारण मुकदमे में एफआर भी नहीं लगा सकी थी, तब ऐसा क्या पत्रकारों के हाथ में रह गया था जिसे न करने का वायदा कर वे उनसे रुपए मांगते। इस स्थिति को जानने के बावजूद पुलिस ने उसके पक्ष से पत्रकारों के खिलाफ मुकदमा लिखा, यह धृष्टता की पराकाष्ठा है। संजीव श्रीवास्तव, शिवकुमार जादौन, प्रशांत बनर्जी, अलीम सिद्दीकी, अजय श्रीवास्तव, विनय गुप्ता सहित सारे पत्रकार जो मुकदमे में आरोपित किए गए हैं, प्रमुख अखबार या टीवी चैनल से जुड़े हुए हैं। यह सभी पेशेवर ड्यूटी से जुड़े हैं। इस कारण किसी का आखेट करने के लिए ये संजय गुप्ता के सरेंडर के समय उसके पीछे नहीं पहुंच गए थे बल्कि यह सब उनकी रुटीन ड्यूटी का हिस्सा था। पुलिस ने मुकदमा दर्ज कर बेहद गलत परम्परा का निर्माण करने की कोशिश की है।
अखिलेश यादव की जिस तरह की छवि है उससे पत्रकार ही नहीं सामाजिक कार्यकर्ता व आम जन तक यह अपेक्षा करते हैं कि वे इसमें व्यक्तिगत रूप से हस्तक्षेप करें ताकि उनके पांच वर्ष के कार्यकाल में पुलिस अधिकारियों द्वारा बेहयाई से पद के दुरुपयोग की कोई जुर्रत भविष्य में न की जा सके।

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