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काश सिंहासन बत्तीसी पर बैठकर होता मायावती का फैसला

बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
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न्याय के बारे में एक चर्चित उक्ति है कि न्याय न केवल होना चाहिए बल्कि दिखना भी चाहिए कि न्याय हुआ है। बसपा की सुप्रीमो मायावती के विरुद्ध सीबीआई द्वारा दर्ज किए गए आय से अधिक सम्पत्ति रखने के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने छह जुलाई को जो फैसला सुनाया है उसे भी इस कसौटी पर परखना होगा। अवमानना के अधिकार से सुसज्जित न्याय पालिका के बारे में कोई टिप्पणी करना किसी निरीह नागरिक क्या सर्वशक्तिमानों के भी वश की बात नहीं है। मैं भी इस लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन किए बगैर माननीय उच्चतम न्यायालय ध्यान बस इस बात की ओर आकर्षित कराना चाहता हूं कि तकनीकी तौर पर उसका उक्त फैसला कितना भी दुरुस्त क्यों न हो, लेकिन जनमानस को यह हजम नहीं हुआ है।
मैं बात को इतिहास के उस पड़ाव की ओर ले जाना चाहता हूं जब इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में यह बहस उठी थी कि संसद सर्वोच्च या न्यायपालिका, माननीय उच्चतम न्यायालय ने अंततोगत्वा यह निष्कर्ष पारित किया था कि संविधान में देश की संप्रभुता को जनता में निहित किया गया है और जनभावना की अभिव्यक्ति संसद के माध्यम से होती है। इस कारण संसद सर्वोच्च है।
यह स्मरण कराने का मेरा अभिप्राय यह है कि संसद की सर्वोच्चता स्वीकार करने के मामले में एक सैद्धांतिक दृष्टिकोण है, जिसकी सच्चाई व्यवहारिक धरातल पर भी प्रमाणित होती है। जनता के नुमाइंदे उनमें चाहे जितनी व्यक्तिगत कमियां हों, आने वाले वक्त की नब्ज पहचानने में न्याय पालिका में बैठे कानून के पंडितों से हमेशा आगे साबित हुए हैं।
आजादी के तत्काल बाद वयस्क मताधिकार द्वारा चुनी गई सरकार ने हदबंदी कानून को लागू किया था। उद्देश्य यह था कि जमीनों पर चंद लोगों का एकाधिकार समाप्त कर उसे मेहनतकश जनता में वितरित किया जाए यानी उत्पादन की शक्तियों पर उत्पादन करने वाले लोगों का अधिकार हो। उस समय हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में वे लोग जज बनते थे जो जमींदार घराने के थे और अपनी जायदाद बचाने के लिए जिन्होंने कानून का पेशा अपनाने के बाद तरक्की करते हुए न्यायाधीश की कुर्सी हासिल की थी। अपने वर्ग चरित्र के कारण तत्कालीन न्यायाधीशों ने हदबंदी कानून के उद्देश्यों पर तरह-तरह के कुठाराघात किए।
उरई का ही एक मामला है जिसमें जमींदार ने अपने राधाकृष्ण के मंदिर के लिए जमीन सम्बद्ध की और उसने यह तर्क दिया कि चूंकि राधा और कृष्ण एक परिवार नहीं हैं, इस कारण उनके मंदिर में दो यूनिट मानकर सीलिंग को लागू किया जाए। ऊपर की अदालत तक मिथकीय पात्रों को आधार बनाते हुए जमींदार का तर्क मान्य किया गया। मंदिर व अन्य बहानों से जमींदारों को सीलिंग एक्ट के विरुद्ध संरक्षण देने में जाने-अनजाने में अदालती फैसले बड़े काम आए। इस बात को आज भी प्रत्यक्ष तौर पर देखा जा सकता है।
सम्पत्ति के मौलिक अधिकार के मामले से लेकर राजाओं के प्रीवीपर्स की समाप्ति तक के मामले में यह साफ दिखाई देता है कि राजनीतिक नेतृत्व चूंकि जनता के बीच काम करता है, इस कारण उसकी प्रगतिशील समझदारी न्यायपालिका से बहुधा ज्यादा अच्छी साबित हुई है। आज का समय भी इसका अपवाद नहीं है। भले ही एक षड्यंत्र के तहत राजनीतिक व्यवस्था के प्रति घनघोर अनास्था पैदा कर जनता की सोच और विश्वास को गलत दिशा में धकेलने का प्रयास किया जा रहा हो और वह भी तब जब सुप्रीम कोर्ट ने स्वयं महानता दिखाते हुए संसद को अपने से सर्वोच्च मानकर परिवर्तन के लिए राजनीति को अपने से बड़ा औजार मानने के विश्वास की पुष्टि की है।
दरअसल इस संदर्भ में मुझे सिंहासन बत्तीसी की लोककथा याद आती है। ऐसा लगता है कि विक्रमादित्य के समय भी उनकी सभा में जो न्यायिक अधिकारों से भी सम्पन्न थी, पांडित्य प्रदर्शन की ललक के कारण परकाया प्रवेश जैसी अवधारणाओं के जरिए बुद्धि विलास अपनी चरम सीमा पर पहुंच गया था। नतीजतन कोई विवाद या मुकदमा उनकी सभा में प्रस्तुत होता तो शास्त्रार्थ के भंवर में न्याय की आत्मा डूबकर रह जाती थी। राजा भोज के समय जब चरवाहों के लड़कों ने सहज विवेक से विवादों का सटीक निस्तारण करते हुए लोकप्रियता अर्जित करना शुरू कर दी तो विद्वानों में हड़कम्प मच गया। चरवाहों के लड़कों की त्वरित न्यायिक व्यवस्था के आगे शर्मसार बुद्धि विलासी विद्वानों ने अंततोगत्वा यह फतवा जारी कर दिया कि यह लड़के जिस टीले पर बैठकर फैसला सुनाते हैं उसके नीचे विक्रमादित्य का बत्तीसी सिंहासन दफन है और उसी के प्रताप से उनमें इतनी विलक्षण बुद्धि आ जाती है।
सही बात यह है कि मूल रूप में प्रकृति ने मनुष्य को सहज विवेक की इतनी बड़ी शक्ति दी है कि उसे पोथे पड़ने की जरूरत नहीं है। अगर वह ईमानदारी से किसी मामले को परखे तो सत्य तक पहुंचने में उसे कोई समस्या नहीं हो सकती। आज तकनीकी न्याय के इस युग में आडम्बरपूर्ण पांडित्य के जरिए उस युग जैसी समस्याएं सामने आ रही हैं। अपनी न्यायपालिका पर पूरी आस्था बनाए रखते हुए मेरा कथन यही है कि फैसले ऐसे हों जो न केवल विधिक दृष्टिकोण से दोषरहित रहें बल्कि जिसे न्याय की सार्वभौम कसौटी पर भी उपयुक्त माना जा सके। इसके लिए न्यायपालिका को विधिशास्त्र की बंधी-बंधायी परिधि से बाहर जाकर निष्कर्ष का अनुसंधान करना पड़े तो भी उसे चूकना नहीं चाहिए।
मुझे जस्टिस भगवती का एक अंतर्राष्ट्रीय मंच पर दिया गया वह भाषण याद है जिसमें उन्होंने कहा कि सरकार अगर फुटपाथ पर लोगों के सोने को गैर कानूनी घोषित करती है तो जजों को इस कानून के उल्लंघन के मामले सामने आने पर आरोपियों को सजा सुनाने तक अपनी भूमिका सीमित नहीं रखना चाहिए बल्कि यह भी देखना चाहिए कि सरकार ने ऐसी परिस्थितियां बनाने के लिए कोई काम किया है या नहीं जिससे हर बेघर को छत हासिल हो और उसे फुटपाथ पर सोने की जरूरत ही न रह जाए। मायावती किसी बहुत पुरातन काल की शख्सियत नहीं हैं, वे समकालीन नेता हैं जिन्हें आज के समय की जनता ने फर्श से अर्श तक पहुंचते देखा है। उनमें हजार गुण हैं। परिवर्तन के मामले में उनका योगदान नमन करने योग्य है, लेकिन मायावती की वर्तमान हैसियत उनके अतीत को देखते हुए संदेह से परे है, यह बात शायद लोगों के लिए स्वीकार करने योग्य नहीं है।

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