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‘अमृत’ बचाने को मल्लाहनपुरा में हो रहा देवासुर संग्राम

बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
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जालौन जिले के दस्यु प्रभावित रामपुरा ब्लॉक के छोटे से गांव मल्लाहनपुरा में सेतुबंध के निर्माण में अकिंचन योगदान देकर महान हो जाने वालीं गिलहरियों की रामायण गाथा रुपायित हो रही है। 269 परिवार वाले मल्लाहनपुरा के लोगों की जीविका मुख्य स्रोत आज भी पहुज नदी ही है। बीहड़ों में होने वाली घास ‘दाब’ उखाड़ कर मूंज बनाने का काम गांव के हर घर में होता है। जबसे खाट और मोढ़े के लिये ग्वालियर, इंदौर आदि महानगरों के एंटिक वैल्यू के कद्रदानों के बाजार में इनकी मूंज दलालों के जरिये पहुंचने लगी है तब से एक दंपति को 100 रुपये रोज की आमदनी इस काम से होने लगी है। नदी के किनारे छोटी-छोटी बारी बनाकर यहां के लोग तमाम सब्जियों की पैदावार दसियों साल से कर रहे हैं।

पहले ज्यादा पैदावार के लिये ये लोग भी अपनी बारी में जमकर रासायनिक खाद डालते थे। पहुज में खाद का केमिकल जाने से अमृत विष में बदल गया और पांच वर्ष पहले 2007 में एक दिन जब लोगों की नींद खुली तो दर्जनों पक्षियों के शव किनारे पर पड़े देखकर उनकी आत्मा चीत्कार कर उठी।

65 वर्ष के लल्लूराम निषाद का कहना है कि उसी दिन से गांव के लोगों की मानसिकता बदल गयी। गांव में गठित महिला जल पंचायत की अध्यक्ष लौंगश्री अनपढ़ होकर भी विद्वानों की तरह बोलती हैं। लौंगश्री ने कहा कि मां जीवन देती है छीनती नहीं है। पक्षियों की सामूहिक मौत देखकर हमें लगा कि यह अभिशाप नदी माता के कारण नहीं बल्कि हमारी गलतियों की देन है। उसी दिन से हमने संकल्प ले लिया कि अपनी नदी माता की निर्मलता बचाने के लिये किसी बारी में रासायनिक खाद प्रयोग नहीं करेंगे। ग्रामीणों के निश्चय से प्रभावित होकर दुनिया के कई देशों में आयोजित विश्व जल फोरम में भाग ले चुके युवा पर्यावरण विशेषज्ञ संजय सिंह ने यहां आकर मल्लाहनपुरा को गोद ले लिया। संजय सिंह ने बताया कि संकल्प के धनी यहां के लोगों ने भैंस पालन शुरू किया। आज यहां हर घर में पांच-छह भैंसें हैं। उनके दूध, घी की बिक्री से अतिरिक्त आय होती है तो उनके गोबर से हर घर में जैविक खाद तैयार हो रही है। यही खाद इनकी बारियों में प्रयोग की जा रही है। बैगन, तोरई, भिंडी, लौकी, कद्दू ही नहीं शिमला मिर्च की भी पैदावार इनकी बारियों में खूब होती है। केमिकल प्रभाव से मुक्त होने के कारण इनकी सब्जियां रामपुरा में हाथोंहाथ बिक जाती हैं। हालांकि कानपुर व अन्य महानगरों की सब्जी मंडियों में इनकी पैदावार पहुंचाने की व्यवस्था हो जाये तो इनको बहुत अच्छा भाव मिल सकता है लेकिन अभी इस दिशा में कोई प्रयास नहीं हुआ है।

स्वर्ण जयंती ग्राम स्वरोजगार योजना से इस मामले में आशा की किरण नजर आयी थी लेकिन सुविधा दाता ने इसे सफल नहीं होने दिया। पहुज के जल समेट क्षेत्र के बरसाती नाले झाड़ झंखाड़ों से बंद होकर समाप्त होने लगे थे। गांव वालों के नदी चेतना से लैस होने के बाद व्यापक सफाई कर इन्हें पुनर्जीवित किया गया है। नहाने, धोने ही नहीं पीने के लिये भी मल्लाहनपुरा के लोग पहुज का ही पानी इस्तेमाल करते हैं। संजय सिंह कहते हैं कि कर्मकांड से भी नदियों के प्रति श्रद्धा व्यक्त होती है लेकिन नदी माता की सेवा का जो दायित्व मल्लाहनपुरा के बाशिंदे निभा रहे हैं वह शायद ज्यादा सार्थक काम है। उन्होंने कहा कि अगर अधिकारी और जनप्रतिनिधि मल्लाहनपुरा गांव की महिलाओं की धुन को सराहते हुए बड़े स्तर पर इस प्रयास को प्रोजेक्ट करें तो नदियों के संरक्षण के कई और मॉडल सामने आ सकते हैं।

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