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राजीव को हटाना नहीं सबक सिखाना चाहते थे जैलसिंह

बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
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अर्जुन सिंह
अर्जुन सिंह

कांग्रेस के दिवंगत नेता अर्जुन सिंह ए ग्रेन ऑफ सेंड इन द ओवरग्लास ऑफ टाइम शीर्षक से लिखी गई अपनी पुस्तक के कारण, जो उनके मरणोपरांत प्रकाशित होने जा रही है, इस समय चर्चाओं में छाए हुए हैं। अर्जुन सिंह को करिश्माई नेता माना जाता था। हालांकि जिस शिखर तक पहुंचने की महत्वाकांक्षा उनमें थी और लोग भी अनुमान रखते थे कि वे अपनी शातिर चालों से वांछित बुलंदी तक पहुंचने में एक दिन जरूर कामयाब होंगे वह मुकाम उनको हासिल नहीं हो पाया। आखिरी दिनों में हर किसी को पटखनी लगाने में माहिर यह नेता बहुत कातर नजर आने लगा था और तब लोगों के जेहन में पुरुष नहीं समय होत बलवान भीलन लूटी गोपिका बेई अर्जुन बेई बान की पुरानी कहावत कौंधने लगी थी।

अर्जुन सिंह मध्य प्रदेश की एक छोटी सी रियासत चुरहट के जमींदार थे। पहली बार जब वे मुख्यमंत्री बने तो किसी गिनती में नहीं थे। यहां तक कि विद्याचरण शुक्ल के आदमी शिवभानु सिंह सोलंकी, जो कि एक आदिवासी नेता थे, के मुकाबले उन्हें कांग्रेस विधायक दल के शक्ति परीक्षण में कम मत मिले थे, लेकिन संजय सिंह का दबाव था कि शपथ उन्हीं की हुई। प्रशासनिक क्षमता में अर्जुन सिंह का कोई मुकाबला नहीं था, जिससे उन्होंने चंद दिनों में ही लोकप्रियता हासिल कर ली और मध्य प्रदेश जहां सिंधिया साम्राज्य सहित कई बड़े-बड़े पुराने महाराजे मौजूद थे, उनके बीच वे न केवल धाक जमाने में सफल हुए बल्कि मध्य प्रदेश में ठाकुरों के सबसे बड़े नेता के रूप में स्थापित हो गए। धन-सम्पदा इकट्ठी करने में भी उन्होंने सबको मात कर दिया।

एक समय ऐसा भी आया जब ठाकुर मुख्यमंत्री ज्यादा संख्या में थे और सामाजिक संतुलन के लिए किसी एक ठाकुर मुख्यमंत्री की बलि चढ़ाने का तकाजा हो रहा था। दस्तमपुर कांड के बहाने उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह को इस्तीफा देने के लिए मजबूर करने की चक्रव्यूह रचना करने में उनका नाम लिया गया था। इससे कांग्रेस के समीकरणों में वे सुरक्षित हो गए थे। इसके बाद उन्होंने पिछड़ा वर्ग को आरक्षण देने का शिगूफा छेड़ा और ठाकुरों से कोर्ट में उसे स्टे करा दिया। मध्य प्रदेश में सड़कों पर आरक्षण को लेकर युद्ध छिड़ा। अर्जुन सिंह की खूबी यह थी कि दोनों ही पक्ष उन्हें अपना हमदर्द समझ रहे थे, जिसकी वजह से १९८४ के चुनाव में उन्होंने इतनी अभूतपूर्व सफलता हासिल की कि मध्य प्रदेश में भाजपा मान्यता प्राप्त विपक्षी दल बनने लायक भी सीटें हासिल नहीं कर पाई। इसी दौरान अर्जुन सिंह विरोधी लॉबी ने प्रधानमंत्री हो चुके राजीव गांधी के कान भरे कि उनके पिता भारत के ऐसे मंत्री थे जो रिश्वत लेने के मामले में जेल गए थे और उस समय अर्जुन सिंह ने जेल के सीखचे पकड़कर कसम खाई थी कि वे नेहरू खानदान को बर्बाद करके अपने पिता का बदला लेंगे। इसी के तहत उन्होंने अपने मंत्रियों की सूची में लोकदल से आए रमाशंकर सिंह का नाम शामिल किया है, जिन्होंने श्रीमती गांधी के लिए विपक्ष में रहते हुए मध्य प्रदेश विधानसभा में बेहद अशोभनीय टिप्पणी की थी। मध्य प्रदेश विधानसभा की उस समय की कार्यवाही के रिकॉर्ड के साथ राजीव गांधी को फिट किया गया। सोवियत संघ जा रहे राजीव गांधी ने इसी कारण विमान तल पर जब अर्जुन सिंह द्वारा प्रस्तावित मंत्रियों की सूची का अवलोकन किया तो सबसे पहले रमाशंकर का नाम तलाशा और ज्यों ही उनका नाम उन्हें नजर आया तत्काल उन्होंने फरमान सुना दिया कि आपकी जरूरत मध्य प्रदेश में नहीं अब पंजाब में है, जो कि आतंकवाद से उस समय बुरी तरह सुलग रहा था।

इस तरह शपथ ग्रहण करने के बाद बिना मंत्रिमंडल का गठन किए पद से हट जाने वाले मुख्यमंत्री के रूप में अर्जुन सिंह का ऐतिहासिक रिकॉर्ड अभी तक नहीं टूट सका है। बहरहाल अर्जुन सिंह ने पंजाब पहुंचकर आतंकवाद के उन्मूलन के लिए युवाओं को रोजगार देने का ब्लू प्रिंट तैयार किया और उसमें ऐसे उद्योग लगाने का लाइसेंस केंद्र से हासिल कर लिया जिनमें भारी मुनाफा था और जिनका लाइसेंस लेना आसमान के तारे तोड़ने जैसा काम था। उन्होंने बलवंत सिंह जैसे अकालियों को जो पंजाब के आतंकवादी गुटों का वित्त पोषण करते थे, इन उद्योगों में बड़ी पत्ती दिला दी जिससे उनकी धार भौथरी हो गई। अपने लिए भी अर्जुन सिंह ने इन उद्योगों को खूब कैश कराया।

वे पंजाब में रमाशंकर सिंह को भी ले गए थे और मध्य प्रदेश के तमाम चहेते आईएएस अधिकारियों को, उन सभी को फायदा हुआ। जो लोग अर्जुन सिंह के पंजाब के राज्यपाल बनने पर उनकी धर्मपत्नी सरोज सिंह को सफेद साड़ी भेंट करने की बात कह रहे थे वे आतंकवादियों पर अर्जुन सिंह का सम्मोहन चल जाने से उन्हें मिली सफलता के कारण हतप्रभ रह गए। इसके बाद अर्जुन सिंह ने दिल्ली में लोकसभा में प्रवेश के लिए चुनाव लड़ा। मजेदार बात यह है कि उनके मुकाबले उन फूलनदेवी ने जेल से पर्चा भरा जिनका १३ फरवरी १९८३ को भिंड में समर्पण कराकर अर्जुन सिंह ने उन्हें जीवनदान देने का काम किया था। अर्जुन सिंह को उम्मीद थी कि इसके बाद केंद्रीय मंत्रिमंडल में उन्हें गृहमंत्री का पद मिल जाएगा लेकिन राजीव गांधी उनके पिता की गाथा सुनने के बाद उनके प्रति इतने सशंकित बने रहे कि यह गलती उन्होंने नहीं की। उन्हें मानव संसाधन विकास मंत्री के रूप में संतोष करना पड़ा। राजीव गांधी के शहीद होने के बाद अर्जुन सिंह को पूरी उम्मीद थी कि नेहरू खानदान के बाहर का कोई प्रधानमंत्री बनेगा तो उनका नम्बर सबसे पहला होगा लेकिन नरसिंहाराव ने उनकी भांजी मार दी।

इसी कारण वे अंत तक नरसिंहाराव को नहीं पचा सके। उन्होंने नरसिंहाराव से बदला लेने के लिए सोनिया गांधी को राजनीति में लाने का बड़ा जतन किया। जब सोनिया राजनीति में आ गईं तो अर्जुन सिंह को उम्मीद थी कि अब स्वामीभक्ति का पुरस्कार उन्हें जरूर दिलाएंगी, लेकिन अर्जुन सिंह की कुटिल नेता के रूप में पहचान तनु होने की बजाय उस समय तक और ज्यादा सांद्र हो चुकी थी जिससे सोनिया गांधी ने भी उनके प्रति काफी सतर्कता बरती।

अर्जुन सिंह न तो विश्वनाथ प्रताप सिंह की तरह पैसे के मामले में पाकसाफ थे न ही सामाजिक न्याय के लिए उनकी प्रतिबद्धता में कोई ईमानदारी थी। चुरहट लॉटरी कांड और भोपाल के कैरवा बांध पर बना उनका भव्य महलनुमा आवास अकूत सम्पत्ति बटोरने के लिए उनके द्वारा दिखाए गए हुनर की जीतीजागती मिसाल है। इसी कारण अर्जुन सिंह कई अन्य खूबियों के बावजूद प्रतिष्ठा नहीं हासिल कर पाए। दुख की बात यह है कि अंतिम दिनों में भी वे चालबाजी दिखाने से बाज नहीं आए।

ज्ञानी जैलसिंह को कई मामलों में बदनाम किया गया, लेकिन सही बात यह है कि मानवीय गुणों से लेकर प्रशासनिक क्षमता, दूरदृष्टि और देशभक्ति के मामले में ज्ञानी जैलसिंह स्तुत्य हैं। जब वे राष्ट्रपति बने थे तो अंग्रेजी का अल्पज्ञान होने के कारण उन्हें अखबारों में जिस तरह से घनघोर अज्ञानी के रूप में चित्रित किया जा रहा था वह बेहद निंदनीय था, लेकिन ४१० सांसदों के समर्थन वाली भूतो न भविष्यतो बहुमत वाली राजीव सरकार को सांसत में डालकर उन्होंने राष्ट्रपति पद की शक्ति का जो अहसास कराया वह कोई दूसरा नहीं कर सकता था। ज्ञानी जैलसिंह ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद आस्था को धक्का लगने से बहुत विचलित थे, लेकिन अग्निपरीक्षा के क्षणों में राष्ट्रपति पद छोड़ने जैसा कदम न उठाकर उन्होंने देश पर बहुत बड़ा उपकार किया। इंदिराजी के प्रति वफादारी के नाते ही उन्होंने अपने प्रभाव का पूरा इस्तेमाल करके उनकी मौत की घोषणा को तब तक रोके रखा जब तक राजीव गांधी सोवियत संघ से वापस नहीं आ गए और प्रधानमंत्री के रूप में उनकी शपथ नहीं हो गई। राजीव गांधी ने दूसरों के बहकावे में केके तिवारी और कल्पनाथ राय को संसद में ज्ञानी जैलसिंह के खिलाफ बदतमीजी करने की छूट दे रखी थी जिन्होंने ज्ञानी जैलसिंह के समय राष्ट्रपति भवन आतंकवादियों का अड्डा बन जाने जैसे घिनौने आरोप लगाए।

ज्ञानी जैलसिंह इससे बेहद नाराज थे, लेकिन उन्होंने कभी राजीव गांधी का वास्तविक रूप से नुकसान करने की बात नहीं सोची। वे केवल राजीव गांधी को उनकी गलती का अहसास कराना चाहते थे इसलिए अर्जुन सिंह का यह रहस्योद्घाटन कि उन्होंने आईबी के अधिकारी केसी सिंह के माध्यम से उन तक यह संदेश पहुंचाया था कि वे राजीव गांधी की जगह उन्हें प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाना चाहते हैं, निहायत वाहियात बात है। हुआ यह था कि राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के बीच टकराव देख विद्याचरण शुक्ल ने बीच में हाथ मारने के लिए ज्ञानी जैलसिंह को एप्रोच किया था कि वे उनकी शपथ करा दें लेकिन ज्ञानी जैलसिंह ने राजीव गांधी के खिलाफ मोहरा बनने से साफ इंकार कर दिया था। आज न अर्जुन सिंह इस दुनिया में हैं और न ही ज्ञानी जैलसिंह और भारतीय संस्कृति कहती है कि किसी भी दिवंगत के बारे में अगर कोई ऐसी बात है भी जो सच हो लेकिन जिसमें कड़वापन हो तो नहीं कही जानी चाहिए, लेकिन मुझे यह लगता है कि यहां इस धर्म का पालन करने से अधर्म होगा। अर्जुन सिंह के झूठे रहस्योद्घाटन को तटस्थ रहकर नहीं पचाया जा सकता क्योंकि इससे एक गलत इतिहास का निर्माण होगा जो आगे आने वाली पीढ़ियों को गुमराह करेगा।

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