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हमने प्यार किया है फूसों की झोपड़ियों से

बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
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“चितवन पर रीझ गई चितवन झंकृत सांसों के तार हुए,

खिल गया उमंगों का उपवन अनुरागी दृग रत्नार हुए।”


“चांदनी ने धो दिया आंगन चले आओ

सामने है चांद का दर्पण चले आओ”

“चांदनी वाटिका पर बरसती रहे

और हम तुम महकते रहें रात भर”

परमात्माशरण शुक्ल गीतेश जिन्हें आदर से हम लोग गीतेशजी कहते हैं, उनकी रचनाओं की यह बानगी हिंदी में श्रृंगार मुक्तकों के सम्राट चंद्रसेन विराट की याद करा देती है। जिन दिनों मैं लोकसारथी का सम्पादक था उन दिनों सप्ताह में एक या दो बार गीतेशजी को माहिल तालाब पर ले जाता था। शाम के सुरम्य वातावरण में उनकी कविताएं इसलिए सुनता था कि मैं भी अपनी भाषा में लालित्य का विकास कर सकूं। गीतेशजी के मंजे हुए श्रृंगार को देखकर किसी को यह भ्रम हो सकता है कि वे अपनी युवावस्था में रहन-सहन से लेकर विविध प्रकार के शौक तक विलासप्रियता को जीते रहे होंगे, लेकिन उनका व्यक्तित्व बेहद विरोधाभासी है। उनमें हददर्जे की सादगी है। जैसी किसी संत में होती है, लेकिन विराग नहीं है बल्कि रागात्मकता उनकी रचनाओं में कूट-कूटकर भरी है।

कुछ पारखी गीतेशजी को गांधी इंटर कॉलेज से सेवानिवृत्त होने के बाद मुम्बई में ले गए थे, जहां उन्हें नामी-गिरामी बैनर की फिल्मों के लिए अनुबंधित भी कर लिया गया था, लेकिन गीतेशजी को इंद्रलोक रास नहीं आया और वे वापस अपनी उरई में लौट आए। पारिवारिक समस्याएं जनरेशन गैप आदि की वजह से पहचान के नाम पर भले ही वे आम शहर के लिए विलुप्तप्राय हों, लेकिन हम जैसे उनसे प्रेरित होने वाले लोग आज भी गीतेशजी को स्मरण करना नहीं भूल पाते।
गीतेशजी ने एक लम्बे इंटरव्यू में मुझे बताया था कि कक्षा ९ में पढ़ते समय उन्होंने अपनी पहली रचना लिखी और वह भी श्रृंगार पर नहीं बल्कि श्रमिक वर्ग की हालत पर है। रचना की पंक्तियां यह हैं-

हमने प्यार किया है फूसों की झोपड़ियों से

हम क्या जाने महल, मंजिल वाले क्या हैं

श्रमबिंदु झलकते हमने तन पर देखे हैं

हमको सुगंधि के छींटे से पहचान नहीं है

उन्हें १९७६ में डॉक्टर महादेवी वर्मा की अध्यक्षता में झांसी में हुए कवि सम्मेलन में काव्य पाठ करने का मौका मिला। इस दौरान उन्होंने जो गीत सुनाया, वह था-

पानी के बबूले सा मिला है जीवन
झूठे अभिमान में न फूल मेरे मन

गीतेशजी की विशेषता यह है कि उन्होंने अपनी रचनाओं में कभी पुनरावृत्ति दोष नहीं आने दिया। श्रृंगार में उन्होंने बेहद कोमल बिंदु चुने, इसीलिए मैं उनकी तुलना चंद्रसेन विराट से करता हूं। देखें-

पारस जैसी छुअन तुम्हारी रूप लगे कंचन

वाणी में झरने अमृत के गंध लगे चंदन

और–

ओस पोंछ रख दिए अधर मैंने पंखुरियों पर

इतने पर ही तुमने सारा मधुवन सौंप दिया

अपने काव्य संसार में गीतेशजी भावुक प्रेमी के साथ-साथ दार्शनिक भी नजर आते हैं-

लोग चले जाएंगे कहानी रह जाएगी

बाकी यहां याद की निशानी रह जाएगी

माटी की यह काया माटी में मिलेगी एक दिन

जानी हुई दुनिया अजानी रह जाएगी

और—

किसी को बनाया राजा किसी को भिखारी

किसी को बनाया पापी किसी को पुजारी

खेल हैं ये सब रंग माटी के निखार का

भाग्य है खिलौने का कमाल है कुम्हार का

गीतेशजी का पहला काव्य संग्रह कमाल है कुम्हार का नाम से प्रकाशित हुआ है। इसके अलावा फिर पानी का पानी और तुम्हारे लिए काव्य संग्रह भी उनके शिल्प के प्रति सुधी पाठकों को मुग्ध करने की क्षमता रखते हैं। मुझ जैसा व्यक्ति जिसका कविता से दूर-दूर का भी सम्बंध नहीं रहता, गीतेशजी के नाते कविता के कुछ नजदीक आया। यह उनकी रचनाशक्ति का प्रताप है। अगर शब्द ही ब्रह्म है तो गीतेशजी जैसे शब्द शिल्पी कहीं न कहीं अपने व्यक्तित्व में ब्रह्म की अनुभूति कराते हैं। वे शतायु हों।


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