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चम्बल के बागी खत्म, अपराधी बन रहे देवता…

बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
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चम्बल में अब डकैत नहीं रहे। १९८२-८३ में डकैतों के जो ऐतिहासिक समर्पण हुए, उसके बाद बागियों की नस्ल खत्म हो गई और चम्बल व उसकी सहायक नदियों के क्षेत्र में (जो पचनदा क्षेत्र कहलाता है) विशुद्ध आपराधिक मानसिकता के लोगों का बंदूक उठाकर बीहड़ में कूद जाना फैशन बन गया। दोनों धाराओं में कोई तालमेल नहीं है।

पहले जो डकैत होते थे वे समाज और व्यवस्था के अन्याय के शिकार लोग थे। उनकी त्रासदी हृदयस्पर्शी होती थी। इसी कारण मुझे जीने दो जैसी चम्बल के डकैतों की विडम्बना को लेकर कालजयी फिल्में बनीं और कृश्नचंदर जैसे उपन्यासकारों की कलम भी चम्बल के डकैतों पर चली। पुतलीबाई को लेकर उनका उपन्यास चम्बल की चमेली काफी चर्चित रहा। ८२ की पीढ़ी के पहले के डकैत अपने को बागी कहते थे और उस समय के समाज सुधारक भी मानते थे कि वे बागी हैं और उनके डकैत होने के पीछे अपराधी वे नहीं व्यवस्था है जिसमें सुधार होना चाहिए। संत विनोबा भावे और जयप्रकाश नारायण जैसे त्यागी महापुरुषों ने चम्बल के डकैतों के समर्पण के लिए काफी भूमिका निभाई। मोहर सिंह और माधोसिंह ने जेपी के प्रयासों से ही समर्पण किया था, लेकिन पुण्य के यह काम बाद में किस तरह घोर पाप के पर्याय बनते गए इसका मैं कई संदर्भों में चश्मदीद हूं।
भिंड के एसपी जब श्रवण कुमार दास थे उस समय तक आलोक तोमर मेरे सहपाठी थे। लोग उनमें अत्यंत प्रतिभाशाली कवि की छवि देखते थे, लेकिन वे पत्रकार नहीं हुए थे। तब एक महिला डकैत की गिरफ्तारी की स्टोरी उस समय के सबसे ज्यादा बिकने वाले करंट अखबार के मिडिल पेज पर छपी। श्रवण कुमार दास अपने गृहनगर इंदौर गए थे। वहां करंट में छपी स्टोरी के कारण उन्हें काफी सराहना मिली तो आते ही उन्होंने मुझे तलाशा। इसके बाद मैंने डकैतों से सम्बंधित खबरों का महत्व समझा।

एसपी के यहां मेरा दबदबा स्थापित होने का असर यह हुआ कि आलोक तोमर पर भी पत्रकार बनने का बुखार चढ़ने लगा। इसके बाद तो कॉलेज के साथ-साथ खबरों के लिए दोनों का साथ निकलना शुरू हो गया। उस समय मलखान सिंह का गिरोह पुलिस के लिए सबसे बड़ी चुनौती था। यह वो दौर था जब मैनपुरी में दस्यु छविराम को समर्पण के लिए मनाया जा रहा था और कांग्रेस के एक विधायक (सम्भवतः सतीश अजमानी) इसमें भूमिका निभा रहे थे। छविराम ने एक महायज्ञ का आयोजन किया जो खुलेआम हो रहा था। फिर भी पुलिस कोई दखल नहीं दे रही थी। यही नहीं पुलिस उस यज्ञ के आयोजन का खर्चा भी उठा रही थी। भिंड के तत्कालीन एसपी विजय रमन जिन्होंने दस्यु समस्या का पोषण करने वाले राजनीतिक मगरमच्छों और अन्य प्रभावशाली सफेदपोशों को बेनकाब करने में ऐसी भूमिका निभाई कि जब भी चम्बल की दस्यु समस्या का जिक्र होगा वह विजय रमन के बिना पूरा नहीं हो सकेगा। यह वही विजय रमन हैं जिन्हें कश्मीर में तैनाती के समय कुख्यात आतंकवादी गाजी बाबा को ढेर करने का श्रेय प्राप्त है और जो लम्बे समय तक एसपीजी में तैनात रहकर दिल्ली की सत्ता के केंद्र के बेहद नजदीक रहे। खैर जिन असरदार लोगों का दस्युओं से मिलीभगत में उन्होंने भंडाफोड़ किया उनमें से एक का बेटा आज उत्तर प्रदेश की कैबिनेट का सदस्य है। विजय रमन ने एक दिन मुझसे कहा कि उनके पास दस्यु मलखान की खबरें आ रही हैं कि वह हथियार डालना चाहता है तुम ट्राई करो। अगर वह बिना शर्त तैयार हो जाए तो पुलिस का एक बहुत बड़ा सिरदर्द खत्म हो जाएगा। इसके बाद तमाम छुटभैया डकैतों को हम लोग आसानी से ठिकाने लगा देंगे।
आदरणीय त्रियुगी नारायणजी शर्मा जिनके दैनिक उद्गार का मैंने सबसे पहले सम्पादन किया था, मलखान के गांव बिलाव के ही रहने वाले थे और मलखान उनका शिष्य भी रहा था। उन्होंने मलखान के सम्पर्क सूत्रों से मुझे मिलवाया। इसके बाद एक दिन विशेष स्टोरी कवर करने के बहाने मैं आलोक और यूएनआई के ग्वालियर स्थित स्टॉफ रिपोर्टर बिलाव जा पहुंचे। काफी प्रयास के बाद भी मलखान से सीधे बात नहीं हो पाई। यह प्रयास चलता रहा और अंत में मैं सीधे बात करने में भी कामयाब हो गया, लेकिन इसके पहले ही पासा पलट गया। मलखान के कहने से रातोंरात विजय रमन का स्थानांतरण हो गया और उसकी संस्तुति पर एक विवादित आईपीएस अफसर भिंड के एसपी बना दिए गए। फिर समर्पण क्या मलखान का अभिनंदन समारोह हुआ, लेकिन मलखान सिंह की छवि अच्छी थी जिससे न चाहते हुए भी लोगों ने भिंड के एसएएफ ग्राउंड में अर्जुन सिंह के सामने हुए उस तमाशे में खलल नहीं डाला। इसके बाद तो दस्यु समर्पण ने एक व्यापार का रूप ले लिया। धड़ाधड़ समर्पण हुए और डकैत पकड़ करके पैसे कमाने के बाद मध्य प्रदेश सरकार के सम्मानित मेहमान बनने लग गए। कानून की कमंद से तो उन्हें छुटकारा दिला ही दिया जाता था। भले ही मध्य प्रदेश पुलिस को इसके लिए उनके द्वारा पीड़ित किए गए लोगों और उनके परिजनों को भयभीत करने के कैसे भी हथकंडे क्यों न इस्तेमाल करने पड़ें।
१३ फरवरी १९८३ को फूलन देवी और घनश्याम का समर्पण करने का अवसर आने तक विनोबा, जयप्रकाश से शुरू हुए दस्यु समर्पण मिशन में इतनी गंदगी आ चुकी थी कि एमजेएस कॉलेज के मैदान में बगावत सी हो गई। मैंने तीन दिन पहले ही नुमाइश में पर्चे बांटकर ऐलान कर दिया था कि अगर खूंखार अपराधियों को महिमामंडित करने का फैसला वापस न लिया गया तो सरकार और पुलिस को बेहद नीचा देखना पड़ेगा। तत्कालीन एसपी ने मुझे पर्चा मिलने के बाद धमकाते हुए कहा था कि देखें कौन करता है विरोध, लेकिन विरोध हुआ और जमकर हुआ। बीबीसी पर विरोध की ही खबर प्रसारित हुई। राजीव गांधी उस समय कांग्रेस के महासचिव थे। उन्होंने अर्जुन सिंह की इसे लेकर जमकर क्लॉस भी ली। इसके बाद मध्य प्रदेश में डकैतों का उनकी शर्तों पर समर्पण का सिलसिला रुक गया। १९८२-८३ में हुए समर्पण में प्रमुख डकैतों में मात्र फक्कड़ का गिरोह बचा रह गया था, जो बाद में आने वाली डकैतों की पीढ़ी में गुरु महाराज या मास्टरमाइंड के रूप में स्थापित हुआ। १९९१ में जब भिंड के तत्कालीन एसपी जो अब स्वर्गीय हो चुके हैं, आलोक टंडन द्वारा की गई कार्रवाइयों से फक्कड़ पस्त हो चुका था। वह समर्पण के लिए बेहद व्याकुलता दिखाने लगा और उसका संदेश मेरे पास आया। जालौन के तत्कालीन एसएसपी एके सिंह के कहने पर मैं उसके द्वारा बताए गए नरौल के पास के बीहड़ में उससे मिलने गया। उस दिन मध्य प्रदेश के इलाके में एक बड़ी वारदात हो गई थी, जिससे वहां एसएएफ तक ले जाई गई। नतीजतन फक्कड़ उस क्षेत्र से हट गया। रात भर बीहड़ में मैंने उसका इंतजार किया और सुबह निराश होकर वापस लौट आया।

१९९४ में फिर फक्कड़ ने एक बार कोशिश की और झांसी रेंज के तत्कालीन डीआईजी बीएल यादव के कहने से मैंने उससे मुलाकात की जो मुरादगंज के पास बबायन गांव में रात में हुई। इसमें फक्कड़ ने अपनी तमाम इच्छाएं सामने रखीं। मैंने उसे साफ बता दिया कि अब मानसिंह का जमाना नहीं रहा। जनता न तुम्हें न किसी डकैत को श्रद्धा की नजर से देखती है। इस कारण तुम्हारे समर्पण में अगर मुख्यमंत्री पहुंचेंगे तो उनकी बड़ी बदनामी होगी और किसी कीमत पर वे इसके लिए तैयार नहीं हो सकते। कोई अन्य शर्त भी मान्य होना सम्भव नहीं है। समर्पण से तुम्हें कोई रियायत मिल सकती है तो सिर्फ इतनी कि तुम्हारा जीवन सुरक्षित हो जाएगा। फक्कड़ मेरी बातचीत से बेहद निराश हुआ। मैंने लौटकर बीएल यादव को बताया तो उन्होंने कहा कि बात को साफ करके आपने बेहद ठीक किया है।

बहरहाल फक्कड़ का समर्पण उत्तर प्रदेश में नहीं हो पाया और अंततोगत्वा मध्य प्रदेश में उसने एसपी के सामने समर्पण करके संतोष प्राप्त किया। यहां यह ध्यान दिलाना चाहता हूं कि मध्य प्रदेश के तत्कालीन डीजीपी अयोध्या नाथ पाठक के जरिए फक्कड़ एक बार इस बात में सफल हो गया था कि उसका समर्पण जब भिंड में हो तो मुख्यमंत्री आएं। दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री थे। उनके आने के पहले ही बवंडर हो गया। भिंड में लोग बाजार बंद कर सड़कों पर निकल आए और दिग्विजय सिंह की हिम्मत जवाब दे गई।

बहरहाल फक्कड़ तक भी गनीमत थी क्योंकि जब तक वह डकैत रहा। उसके कुछ उसूल रहे, लेकिन निर्भय को क्या कहा जाएगा? समर्पण के सिलसिले में तब तक कानपुर के आईजी हो चुके बीएल यादव के कहने पर मैंने चकरनगर क्षेत्र में एक पूरी रात उसके अड्डे पर उसके साथ बिताई। उसी दौरान सहारा न्यूज चैनल के लिए उसे शूट किया गया और उसका प्रसारण अब कई बार हो चुका है। बहरहाल निर्भय गूजर एक शुद्ध अपराधी था। पहले बागियों पर फिल्में बनती थीं तो उनका नैतिक औचित्य और नैतिक आधार था। वे लोग चम्बल की ऐतिहासिक बागी परम्परा से अपने को जुड़ा महसूस करने वाले लोग थे जो पृथ्वीराज चौहान के समय शुरू हुई थी। जब अनंगपाल तोमर के नाती पृथ्वीराज चौहान ने दिल्ली की सत्ता उनसे हस्तगत कर ली और इससे क्षुब्ध होकर तोमरों ने चम्बल के बीहड़ों में शरण लेकर दिल्ली के खिलाफ बगावत का बिगूल फूंका। फिर चम्बल के बीहड़ सदियों तक दिल्ली की सत्ता के खिलाफ बगावत की परम्परा को प्रश्रय देते रहे और आजादी की लड़ाई तक यह सिलसिला चला। चम्बल के मानसिंह जैसे बागी भले ही निजी लड़ाई लड़ रहे थे, लेकिन इसी परम्परा के प्रतिनिधि थे, जिसके कारण उनकी कुछ मर्यादाएं थीं, कुछ उसूल थे। वे लक्ष्मणरेखा को कभी न पार करने वाले डकैत थे। पूरे देश में लोगों को चम्बल की इस बागी परम्परा को जानने की उत्सुकता रहती थी। यहां तक कि सरकार भी एशियाड में स्वर्ण पदक हासिल करने वाले देश के हीरो पानसिंह जैसों के डकैत बन जाने पर अपराधबोध से ग्रसित हो जाती थी और इसी कारण दस्यु समस्या के हल के लिए तमाम सामाजिक उपचार खोजे गए थे। जमीन सम्बंधी विवाद जो कि इसका मुख्य कारण था। उनके हल के लिए चम्बल क्षेत्र में चलित राजस्व न्यायालय स्थापित करने का अभिनव कदम उठाया गया था। इस कारण मानसिंह से लेकर मलखान सिंह तक की बागी परम्परा का निर्भय गूजर से कोई मेल नहीं हो सकता।
निर्भय गूजर में न्यूज वैल्यू तलाशना बार-बार इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर उसके इंटरव्यू प्रसारित कर उसे सेलीब्रिटी के रूप में स्थापित करना मुनाफे के लिए कुछ भी करने के आधुनिक बाजार अवधारणा के अनुकूल था, लेकिन वास्तव में यह एक जघन्य सामाजिक अपराध था। मुझे खुशी है कि यूपी के तत्कालीन पुलिस अधिकारियों ने इस स्थिति में होते हुए भी कि वे निर्भय गूजर को समर्पण के बदले में कुछ रियायतें दिलाने में सफल हो सकते थे, यह करना गवारा नहीं किया।
आज चम्बल पचनदा के अपराधियों का बाजार मूल्य बिग बॉस जैसे टीवी शो में भी काफी ऊंचाई पर आंका जाने लगा है। यह गिरावट की पराकाष्ठा है। प्राचीनकाल से लेकर उत्तर स्वाधीनता काल तक जिसमें बाजार युग के प्रवेश के पहले तक का कालखंड शामिल है, मनोरंजन का क्षेत्र भी सभ्यता के निर्माण का एक हिस्सा हुआ करता था। आदमी के अंदर की सृजनात्मकता को सर्वश्रेष्ठ रूप में उकेरने का माध्यम हुआ करता था। आज वह किस दिशा में पहुंच गया है न केवल वह मुनाफे के स्वार्थ के लिए समाज के रुचिबोध को औसत से नीचे तक ले जा रहा है बल्कि ऐसे लोगों को उत्सवमूर्ति के रूप में स्थापित कर रहा है, जो नकारात्मक चर्चा करने लायक भी नहीं है।


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