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टाइम नहीं भारत के अंडरअचीवर मनमोहन – Jagran Junction Forum

बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
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अमेरिका की टाइम मैगजीन में प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को नाकाम करार दिए जाने के बाद मीडिया में जो हलचल नजर आ रही है वह प्याली के तूफान से ज्यादा नहीं है। दरअसल मानसिक गुलामी के कारण भारत में बुद्धिजीवी यह मान चुके हैं कि टाइम में जो छपता है वह ब्रह्मवाक्य है। उन्हें याद दिलाने की जरूरत है कि टाइम ने कुछ वर्ष पहले पटना के जिस कलक्टर को बाढ़ के दौरान राहत और बचाव कार्य करने में अभूतपूर्व निष्ठा दिखाने के लिए नवाजा था वह बाद में इसी मामले में हुए भ्रष्टाचार को लेकर जेल के सीखचों के भीतर पहुंच गया। वह आईएएस अधिकारी इस दुनिया में नहीं है जिससे अब उसका नाम लेना ठीक न होगा। टाइम और पश्चिमी मीडिया को निष्पक्षता का अवतार मानने का भारतीयों का भ्रम वैसे तो उस समय भी टूटा था जब ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद बीबीसी पर इस परिघटना को लेकर कोई खबर प्रसारित होती थी तो बात यहां से शुरू की जाती थी कि भारतीय सेना द्वारा स्वर्ण मंदिर में किए हमले के बाद……। यह एक बहुत बड़ी शरारत थी क्योंकि इससे यह बोध कराया जा रहा था जैसे स्वर्ण मंदिर कोई अलग संप्रभु क्षेत्र हो और भारतीय सेना ने शत्रु सेना की भूमिका अदा करते हुए उस पर चढ़ाई की हो। बीबीसी के प्रस्तुतीकरण का यह एंगल इसलिए था क्योंकि उस समय भारत और ब्रिटेन के रिश्ते अच्छे नहीं थे। कुछ वर्षों के उपरांत जब राजीव गांधी ने इन रिश्तों को सुधारने के लिए मशक्कत की तो उसी बीबीसी पर ऑपरेशन ब्लू स्टार के संदर्भ में दी जाने वाली खबर में पर्याप्त एहतियात बरता जाने लगा। बीबीसी ने शब्दावली बदलकर यह प्रसारित करना शुरू कर दिया कि स्वर्ण मंदिर में भारतीय सेना द्वारा की गई कार्रवाई के बाद……।
पश्चिम की मीडिया एक प्रतिशत भी वर्ग निरपेक्ष नहीं है। अपने देश के औपनिवेशिक नजरिए के चश्मे से वह दुनिया के दूसरे हिस्सों में होने वाली घटनाओं को देखती है और परोसती है। जहां तक अमेरिका की बात है आज से साढ़े चार सौ वर्ष पहले वह जिन लोगों का मुल्क था उनका नृशंसतापूर्वक सफाया करके अंग्रेज वहां काबिज हो गए। जाहिर है कि उनकी इतिहास में कोई लम्बी जड़ें नहीं हैं। इस कारण सभ्यता के विकास के तमाम पड़ावों से उनका कोई परिचय नहीं है। ज्यादा स्पष्टता से कहा जाए तो अमेरिका अपराधी नस्ल वाले लोगों द्वारा बनाया हुआ देश है जहां मुनाफे में बाधक बनने वाले लोग या उस देश के संसाधनों की लूट में आड़े आने वाले वहां के बाशिंदों को गाजर-मूली की तरह काटकर फेंकने में कोई हिचक महसूस नहीं की गई। भारत जैसा देश जिसकी सभ्यता हजारों वर्ष पुरानी है, जहां आध्यात्मिक मूल्यों की सर्वोपरिता है और जहां अपने भौतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए पूरी कौम तो क्या एक आदमी की जान लेने में भी भीषण तकलीफ महसूस की जाती हो उसके सोच के धरातल में और अमेरिका की सोच के धरातल में साम्य कैसे हो सकता है? गजब यह है कि इसके बावजूद आज अमेरिकी विचारधारा भारतीयों के लिए कुतुबनुमा बनी हुई है।

यह सारा बखान डॉ. मनमोहन सिंह के बचाव के लिए नहीं किया जा रहा, विश्व बैंक के पूर्व अधिकारी डॉ. मनमोहन सिंह तो खुद भी अमेरिका के रिमोट कंट्रोल से संचालित एक रोबोट हैं। टाइम ने लिखा है कि शुरुआत में मनमोहन सिंह ने बहुत अच्छा काम किया जिससे भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर बढ़ी। टाइम के चश्मे के हिसाब से यह बात ठीक है क्योंकि वाजपेई सरकार के समय विनिवेशीकरण के जुनून से सार्वजनिक क्षेत्र की नवरत्न कम्पनियों को बेचकर देश की अर्थव्यवस्था को ऑक्सीजन देने का काम किया गया था। मनमोहन सिंह ने जब प्रधानमंत्री का पदभार संभाला तो विनिवेशीकरण के तात्कालिक इम्पैक्ट के रूप में आर्थिक विकास दर बढ़ना लाजिमी रहा होगा, लेकिन अब जब बेचने के लिए सरकार के पास परिसम्पत्तियां बची ही नहीं हैं तो बढ़ती विकास दर की हवा निकलना आश्चर्यजनक नहीं हो सकता।
टाइम को कोफ्त इस बात का है कि मनमोहन सिंह सख्त कदम क्यों नहीं उठा रहे? किसानों की पूरी सब्सिडी खत्म करके खाद की कीमतों में जबर्दस्त वृद्धि करके और तमाम अन्य कदमों से खेती की लागत तो उन्होंने बढ़ा दी है, लेकिन फसल का भाव उतना नहीं दिला पा रहे। टाइम चाहती है कि मनमोहन सिंह अब डीजल की कीमत और बढ़ाएं ताकि मरणशैया पर पड़ी खेती का अंतिम संस्कार इस देश में सुनिश्चित हो जाए।

अमेरिका प्रेरित अर्थव्यवस्था के मॉडल को लागू करके मनमोहन सिंह ने वास्तविक व्यवसायिक व्यापारिक गतिविधियों को पूर्ण विराम लगा दिया है और ठगी ही इस समय इस क्षेत्र में सबसे बड़े उद्यम के रूप में स्थापित हो चुकी है। तभी तो आम शहरों में देख जाए तो सम्पन्नता व्यापारियों और उद्योगपतियों की नहीं बढ़ रही बल्कि रातोंरात नेतागीरी करने वाले या नौकरशाह हैसियत में किसी भी व्यापारी उद्योगपति से बहुत आगे पहुंच रहे हैं। पूंजी की शक्ति लोगों की जरूरत का सामान उत्पादित करने में लगने की बजाय क्रिकेट में पीछे होने वाला सट्टा, डिब्बा कारोबार का सट्टा या इसी तरह के अन्य कामों में लग रही है। फिल्मों में बेवजह अरबों तक का निवेश किया जा रहा है। कहा यह गया था कि मुक्त बाजार व्यवस्था से लोगों को जरूरत के उत्पाद क्वालिटी में अच्छे और आसानी से मिलेंगे। शिक्षा, इलाज जैसी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति गरीब से गरीब आदमी को सुनिश्चित होगी। बुर्जुआ पूंजीवाद ने कुछ हद तक यह काम किया था लेकिन बाजारवाद ने यह गुंजाइश बिल्कुल खत्म कर दी है। इलाज के अभाव में आम आदमी मर रहा है। उसके बच्चों के लिए शिक्षा भी आसमान के तारे तोड़ने जैसी हो गई है।

मनमोहन सिंह ने जिस तरह आर्थिक उदारीकरण के बोतल का जिन्न खोला है उसमें उनकी प्रशासनिक अक्षमता के कारण सारी सामाजिक व्यवस्था, लोकतांत्रिक व्यवस्था और गर्वनेंस तहस-नहस होने की कगार पर पहुंच गई है।
दूसरे क्षेत्रों की तो बात छोड़ें वित्त के क्षेत्र में जिसके वे विशेषज्ञ कहे जाते हैं जबकि यह बात केवल एक मिथक है, उनके कार्यकाल जैसी अराजकता कभी नहीं रही। रिजर्व बैंक के पैरा बैंकिंग कम्पनी चलाने के सम्बंध में तमाम प्रतिबंधों को दरकिनार कर गोट फार्मिंग, रियल एस्टेट इत्यादि की आड़ में ज्यादा ब्याज दर का ऑफर देकर हजारों की संख्या में लोगों का पैसा जमा कराने वाली गैर कानूनी कम्पनियां सक्रिय हैं और कोई उन्हें रोकने-टोकने वाला नहीं है। इन कम्पनियों की लुटिया एक दिन डूबेगी तब इनमें नजदीक का एजेंट होने के कारण जीवन भर की मेहनत की कमाई जमा करने वाले किसान, मजदूर दिवालिए हो जाएंगे और सदमे में न जाने कितने लोग मौत को गले न लगा बैठें। बाजार व्यवस्था जिसे आधुनिकीकरण का पर्याय बताया गया था, से यह उम्मीद लगाई गई थी कि गुड गवर्नेंस में इसका कोई सानी नहीं होगा पर क्या हो रहा है।

इंदिरा गांधी कहती थीं कि विकास होगा तो भ्रष्टाचार बढ़ेगा ही, यह अंतर्राष्ट्रीय परिघटना है, भले ही इसकी बहुत आलोचना होती रही हो, लेकिन उनकी बात गलत नहीं थी। ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल की भ्रष्टाचार से ग्रसित देशों की वरीयता सूची जब जारी होती है तो कई और देश भी भारत के आगे-पीछे खड़े दिखाई देते हैं, लेकिन यहां केवल भ्रष्टाचार नहीं है। मतलब यह कि दुनिया के दूसरे भ्रष्ट देशों में विकास के पैसे में भारी कमीशनखोरी को भ्रष्टाचार माना जाता है जबकि यहां भ्रष्टाचार उससे बहुत अधिक दुर्दांत रूप में है। इसने गर्वनेंस को खत्म कर दिया है। दुनिया के किसी भी विकासशील देश में यह नहीं होता कि जिसके परिवार के आदमी की हत्या हो जाए उसे भी रिपोर्ट लिखाने के लिए पुलिस को पैसे देने पड़ें। यह काम केवल भारत में हो रहा है। बीपीएल जिसके पास पेट भरने के लिए भी पैसे नहीं हैं उस तक का राशनकार्ड बनाने में पैसे ऐंठे जा रहे हैं। अवाम का कोई अधिकार भ्रष्टाचार के चलते मान्य नहीं रह गया है। पैसा दो तो दस लाख रुपए महीने कमाने वाले का भी गरीबी रेखा से नीचे का आय प्रमाणपत्र जारी हो सकता है और अगर सुविधा शुल्क न दिया तो जिसे एक हजार रुपए भी नहीं मिलते उसका आय प्रमाणपत्र एक लाख रुपए साल का बना दिया जाएगा।
आर्थिक उदारीकरण में इस तरह की धांधली समाप्त होने का भरोसा दिलाया गया था पर स्थिति तो जंगलराज से भी ज्यादा बदतर हो गई है। अमीर लोग ऐश्वर्य और उपभोग में देवताओं को भी मात करें। मुक्त अर्थव्यवस्था की यह मेहरबानी आम आदमी को मंजूर है बशर्ते कोई आदमी बुनियादी जरूरत की पूर्ति में महरूम न रहे। बाजार को यह गारंटी तो देनी ही पड़ेगी। मनमोहन सिंह की अर्थव्यवस्था आम आदमी के लिए बेहद भारी पड़ रही है और नक्सलवाद का बढ़ता दायरा इसी की देन है। टाइम ने आलोचना के बहाने मनमोहन सिंह को आम आदमी के प्रति और ज्यादा क्रूर होने के लिए उकसाया है। जब तक हमें अपने प्राचीन संस्कृति से विरासत में मिले मानवीय मूल्यों के प्रति जेहादी स्तर तक की दृढ़ आस्था नहीं होगी हम टाइम सरीखी अमेरिकी मैगजीन द्वारा मनमोहन सिंह की छद्म आलोचना के जाल में फंसकर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने का काम करेंगे। एक पूरी नस्ल की हत्या करके सभ्यता का ढोंग रचाने वाले देश की बातें मानना हमारी मजबूरी नहीं है। हमें तय करना पड़ेगा कि ऐसी अर्थव्यवस्था जो जुआ जैसे पाप को बढ़ावा देती हो जो अपने मुनाफे के लिए किसी का भी बलिदान करने को प्रेरित करती हो, जो साख की परवाह को कमजोरी समझती हो, उसका रास्ता हमारे लिए ठीक नहीं हो सकता। सर्वाइवल ऑफ फिटेस्ट मानवता विरोधियों का फंडा है। भारत जैसा देश जियो और जीने दो के सिद्धांत में विश्वास करने वाला है। यह फंडा उसके गले नहीं उतर सकता।

मनमोहन सिंह की आलोचना होनी चाहिए लेकिन मनमोहन सिंह गलत हैं इसका इलहाम हमें तब हो जब देववाणी का स्वरूप अमेरिका की मीडिया यह कहे तो यह हमारे लिए लानत है। साथ ही यह भी कि टाइम अलग कारण से मनमोहन सिंह से क्षुब्ध है और हमारे क्षुब्ध होने का कारण अलग, अपना होना चाहिए।

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