पूरी दुनिया के लिए निष्पक्ष पत्रकारिता की ठेकेदार बनी घूम रही पश्चिमी मीडिया अब भारतीय प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के पीछे हाथ धोकर पड़ गई है। टाइम के बाद में ब्रिटिश अखबार द इंडिपेंडेंट ने तो शालीनता की सीमाएं तक पार कर डाली हैं। उसके ऑनलाइन संस्करण की पहली सुर्खी थी मनमोहन सिंह भारत के उद्धारक या सोनिया की गोद के कुत्ते। हालांकि बाद में उसने इसमें सुधार किया लेकिन इससे उसकी अभद्र मानसिकता तो सामने आ ही गई। देश के लोगों को आगाह होना पड़ेगा कि सारी दुनिया को अपनी औपनिवेशिक लूट का निवाला समझने वाले पश्चिम के सत्ता तंत्र के साथ वहां की मीडिया भी बराबर की भागीदार है, जिसकी वजह से वह उन्हीं चीजों को परोसने के लिए मजबूर है, जिनसे उसके देश के सत्ता तंत्र के हित सधते हों। वहां का पूरा बुद्धिजीवी समाज अहंकार से पीड़ित होने के कारण भारतीय उप महाद्वीप के बारे में गलत छवि पेश करने का अभियान सा शुरू से ही चलाता रहा है। नीरद सी. चौधरी हों या सलमान रुश्दी इन्हें बड़े लेखक के रूप में ब्रिटेन में इसीलिए सम्मान मिला क्योंकि इन्होंने अपने देश की बेहद गलीज छवि पेश करने का काम किया। सलमान रुश्दी ने एक समय इंदिरा गांधी के बारे में काफी आपत्तिजनक लिखा था, जिस पर इंदिरा जी ने मुकदमा दायर किया और रुश्दी को मुंहकी खानी पड़ी। फिर भी वे नहीं चेते और ब्रिटिश समाज से प्रमाणपत्र लेने के चक्कर में पैगम्बर साहब की शान के खिलाफ किताब लिख बैठे। नतीजतन कई साल उन्हें अपनी जान बचाने के लिए भूमिगत जीवन जीना पड़ा। सत्यजीत रे महान फिल्मकार थे, लेकिन ब्रिटिश समाज ने इस कारण सिर आंखों पर नहीं बैठाया बल्कि उन्हें जो इज्जत मिली वो इस वजह से कि उन्होंने बंगाल का अत्यंत विकृत चित्रण अपनी फिल्मों में किया था। फ्रांसीसी मीडिया ने एक समय फूलन देवी में बड़ी रुचि दिखाई और उनके सहारे भारतीय समाज में वर्ग संघर्ष पैदा करने का दिवास्वप्न देखा, भले ही कामयाबी न मिली हो। ईराक के मामले में जब अमेरिका सद्दाम हुसैन के बारे में रासायनिक व जैविक हथियार रखने का झूठा प्रचार कर रहा था तो वहां मीडिया अपनी सरकार का पूरा साथ दे रही थी। आर्थिक क्षेत्र में भी वर्ल्ड कॉम, एनरॉन व जीरॉक्स जैसी कम्पनियों का दिवाला निकल जाने से दुनिया के लाखों निवेशक बर्बाद हो गए, लेकिन पश्चिमी मीडिया ने उन्हें समय से सचेत नहीं किया। वहां के बुद्धिजीवी समाज की धूर्तता तब बेनकाब हुई जब इन कम्पनियों का ऑ़डिट करने वाली विश्व की शीर्ष सीए कम्पनियों ने स्वीकार किया कि वे पिछले कई वर्षों से इनकी बैलेंस शीट में बाजीगरी दिखाकर वास्तविकता पर परदा डालने का काम कर रही थीं। आश्चर्य है कि फिर भी अमेरिकी संस्थाओं की विश्वसनीयता दुनिया में कमजोर नहीं हुई है। डॉ. मनमोहन सिंह तो खुद ही अमेरिकी स्वार्थों के उपकरण हैं, लेकिन उन पर जितना भरोसा किया गया था वे उस पर खरे नहीं उतर पाए, जिससे अब उनके खिलाफ विषवमन हो रहा है, लेकिन मनमोहन सिंह की आलोचना के बारे में दृष्टि हमारी अपनी होनी चाहिए। हमारी आपत्ति इस बात पर होनी चाहिए कि वे मानवता विरोधी बाजार व्यवस्था के पोषक हैं। साथ ही हमें वैकल्पिक आर्थिक नीतियां पेश करनी होंगी, जिनमें मानवता का सर्वोपरि ध्यान हो और भारतीय संस्कृति व मूल्य दुनिया के सामने संकट के इस मोड़ में वैकल्पिक नीतियां गढ़ने के लिए सबसे सटीक स्रोत साबित हो सकते हैं। बशर्ते खुले दिमाग से उन पर मनन हो।
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