उरई में डीवी डिग्री कॉलेज में हिंदी के विभागाध्यक्ष रहे डॉ. रामशंकर द्विवेदी बंगला साहित्य की महत्वपूर्ण पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद करने के लिए देश भर में स्थापित हो चुके हैं। उन्हें अनुवाद का साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला है। शुरू से ही वे सक्रिय रहे। १९८६ में अध्यापन कार्य, लेखन करने के साथ-साथ उन्होंने पत्रकारिता भी शुरू की और दैनिक आज के जिला संवाददाता के रूप में स्थानीय पत्रकारिता को अपने रचनात्मक कौशल से उन्होंने नई ऊंचाई दी। डॉ. रामशंकर द्विवेदी लगभग ७० वर्ष के होने को होंगे, लेकिन रचनाकर्म के प्रति उनकी लगन में कोई कमी नहीं है। इस उम्र में भी उनको अर्हनिश किसी न किसी पुस्तक की तैयारी में जुटा देख मुझे उनसे ईर्ष्या होती है। डॉ. रामशंकर द्विवेदी का स्नेह मुझे काफी समय पहले प्राप्त होना शुरू हुआ था और आज तक बरकरार है।
१९९० में जब उन्होंने मेरे कहने से मेरे द्वारा सम्पादित दैनिक लोकसारथी में दस्तक कॉलम में नियमित रूप से लिखना शुरू किया तो उनसे कहा गया था कि लोकल अखबार में लिखने से आपकी गरिमा कम होगी, लेकिन वे विचलित नहीं हुए। बाद में दस्तक में लिखे गए उनके निबंध इसी नाम से एक बड़े प्रकाशन ने प्रकाशित किए और उनकी यह पुस्तक खूब बिकी। डॉ. रामशंकर द्विवेदी से मैंने हाल में हिंदी के वर्तमान और भविष्य, अध्यावसाय की घटती अभिरुचि आदि विषय पर लम्बी बात की। उन्होंने बड़े दिलचस्प उत्तर दिए। साक्षात्कार के कुछ अंश मैं यहां दे रहा हूं। मैंने उनसे पूछा कि बांग्ला साहित्यकार हिंदी को लेकर बहुत उपेक्षा दिखाते हैं। आपका अनुभव इस बारे में क्या है? उन्होंने कहा कि यह सही है कि अधिकांश बांग्ला साहित्यकार हिंदी के प्रति रुचि नहीं दिखाते। वे कला, साहित्य, संगीत, चित्रकला सहित सभी सृजनात्मक विधाओं में अपने समाज को विश्व में सर्वश्रेष्ठ मानते हैं, लेकिन जब मैंने बांग्ला साहित्यकारों के रवैए के बारे में सुनील गंगोपाध्याय से पूछा तो उनका कहना था कि बांग्ला से अन्य भाषाओं के लिए बहुत अनुवाद होते हैं, लेकिन हिंदी में बहुत कम होते हैं जबकि हिंदी में अनुदित होने के बाद ही बांग्ला भाषी लेखक राष्ट्रीय लेखक के रूप में मान्य हो पाते हैं। डॉ. रामशंकर द्विवेदी से मैंने हिंदी पुस्तकों की बिक्री में लगातार गिरावट के मिथक के बारे में पूछा तो उन्होंने लीक से हटकर जवाब दिया। उन्होंने मेरा ज्ञानवर्धन करते हुए बताया कि बिहार और दिल्ली में इसे लेकर कुछ वर्ष पहले जो सर्वेक्षण हुए उनका निष्कर्ष यह है कि हिंदी किताबों की फुटकर बिक्री बेतहाशा होती है, फिर भी प्रकाशक यह भ्रम फैलाए रहते हैं कि हिंदी में पाठक नहीं हैं क्योंकि वे लेखकों को रॉयल्टी नहीं देना चाहते। हिंदी प्रकाशक अपनी पुस्तकों के दाम बहुत ज्यादा रखते हैं क्योंकि उन्हें सरकारी खरीद में कमीशन देना पड़ता है। हिंदी के प्रकाशक सरकारी खरीद के लिए पुस्तकें छापते हैं न कि पाठकों के लिए। यह गलत रवैया है। उन्होंने बताया कि दूसरी भाषाओं में पाठकों के लिए सस्ते में अच्छी किताबें छापी जाती हैं। मलयालम, तमिल, तेलगू आदि समाजों में तो जन्मदिन, वैवाहिक वर्षगांठ व ऐसे ही अन्य शुभ अवसरों पर उपहार के रूप में उपभोक्ता सामान देने की बजाय पुस्तकों का गिफ्ट देने का रिवाज है। पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी ने कॉलेज, स्कूलों में पुस्तकालय खुलवाने के लिए आंदोलन चलाया था। महाराज कुमार रघुवीर सिंह ने उनकी प्रेरणा से नट-नागर शोध संस्थान खोला जो मध्यकालीन इतिहास का सबसे बड़ा केंद्र बना। उन्होंने बाद में यह संस्थान मध्य प्रदेश सरकार को दान में दे दिया। कहने का मतलब यह है कि हिंदी समाज साहित्य, संस्कृति, इतिहास से कभी दूर रहा या है, यह कहना दुष्प्रचार के अलावा कुछ नहीं है। मैंने उनसे पूछा कि हिंदी में विज्ञान, विधि जैसे विषयों पर पर्याप्त लेखन नहीं हुआ जो सर्वांगीण विकास में इसकी कमी का कारण बन गया, क्या यह बात सही नहीं है? तो उन्होंने बताया कि मन्नू भंडारी के पिता संपत राय भंडारी ने हिंदी विश्वकोष लिखा। यह अंग्रेजी विश्वकोष से कहीं कमतर नहीं था। कृष्णबल्लभ भारती ने हिंदी विश्वभारती कोष से वैज्ञानिक विषयों पर पत्रिका निकाली जो १९३५ से १९६० तक छपती रही। इसमें विज्ञान की बहुत सरल शब्दावली विकसित की गई थी। नेहरूजी ने एक शासनादेश निकलवाया था कि हर पुस्तकालय में इसकी दस-दस प्रतियां रखी जाएं। प्रोद्यौगिकी संस्थान के निदेशक के रूप में गिरिराज किशोर ने भाषा व प्रोद्यौगिकी पर एक संगोष्ठी आयोजित की इसमें लोगों ने विश्वविद्यालयों में हिंदी के माध्यम से विज्ञान की पढ़ाई कैसे हो, इस पर बड़े सार्थक विचार दिए। संगोष्ठी के सार पर पुस्तक भी छापी गई थी जो बहुत सस्ती थी। विज्ञान के क्षेत्र में काम करने वाले कई लोग हैं जिनका हिंदी पर बहुत अच्छा अधिकार है, लेकिन उनमें आत्मगौरव की भावना नहीं है। इस कारण हिंदी के जरिए विज्ञान के प्रस्तुतीकरण में वे रुचि नहीं दिखाना चाहते। हिंदी क्षेत्रों से तो अच्छे दक्षिण भारत के हिंदी प्रेमी हैं। हैदराबाद में आर्य समाजियों ने हिंदी में विज्ञान को पढ़ाने का आंदोलन चलाया था।
मैंने डॉ. रामशंकर द्विवेदी से कहा कि एक समय बॉलीवुड में रचना कौशल से युक्त हिंदी के गीतों की बहुत मांग थी। आज बॉलीवुड को हिंदी के परिष्कृत गीतकारों की जरूरत नहीं रह गई। घटिया तुकबंदी करने वाले फूहड़ लोगों से हिंदी में गीत लिखवाए जा रहे हैं। बड़ा उपभोक्ता बाजार हिंदी भाषियों का है, लेकिन विज्ञापन का काम अंग्रेजी में हो रहा है। जब तक हिंदी रोजी-रोटी में सहायक नहीं बनेगी तब तक उसका अस्तित्व कैसे मजबूत होगा। उन्होंने मेरी बात से सहमति प्रकट की। डॉ. रामशंकर द्विवेदी ने बताया कि बांग्ला में एक पुस्तक निकली, जिसका शीर्षक है रवींद्रनाथ टैगोर और विज्ञापन। यह पुस्तक प्रदर्शित करती है कि रवींद्रनाथ टैगोर के नाम पर मार्केटिंग करके विभिन्न उत्पाद बनाने वाली कम्पनियां किस तरह सफल हुईं? वहां तेल के एक विज्ञापन में सुनील गंगोपाध्याय का फोटो और उनका वक्तव्य प्रदर्शित किया गया है। बांग्ला में जिस तरह साहित्यकार आज भी समाज का नायक है, वैसी स्थिति हिंदी समाज में नहीं है। हिंदी के लेखकों को जिनका शिल्प मोहक है, फिल्मी गीतों और विज्ञापन लेखन के क्षेत्र में आगे आना होगा। अगर वे ऐसा करते हैं तो यह जाहिर हो जाएगा कि हिंदी के साहित्यिक पुट से किसी विज्ञापन को कितना मजेदार बनाया जा सकता है? कम्पनियां इस फायदे को महसूस करेंगी और हिंदी अप-मार्केट की भाषा में तब्दील होगी तो उसकी ताकत बढ़ेगी। आखिरी सवाल मेरा था कि जिस तरह अंग्रेजी हिंदी के साथ हिंग्लिश का प्रयोग कर रही है क्या वैसा प्रयोग उसके द्वारा किसी अन्य भारतीय भाषा के साथ किया जाना सम्भव है? डॉ. रामशंकर द्विवेदी ने कहा कि बिल्कुल नहीं।
उन जैसे विद्वानों के इस मत के बावजूद मुझे नहीं लगता कि हिंदी समाज को इस तरह की परिघटनाओं की वजह से अपनी आत्मा पर कोई कचोट महसूस होती हो। क्या यह लम्बे समय तक दासता की बेड़ियों में इस समाज के जकड़े रहने का परिणाम है? इस दौरान मुझे नोबल पुरस्कार विजेता प्रसिद्ध अर्थशास्त्री डॉ. अमर्त्य सेन की एक स्थापना ध्यान आ रही है, जिसमें उन्होंने कहा कि अपने मूल अधिकारों से वंचित समाज बहुत समय बाद यह सोचने लगता है कि वंचना ही उसका सत्य है। उदाहरण के रूप में उन्होंने भारतीय स्त्रियों का जिक्र करते हुए कहा था कि वे कुरीतिपूर्ण सामाजिक परम्पराओं के कारण पूरे परिवार का पेट भरने के बाद बचा-खुचा भोजन करती रहीं जिससे कुपोषण व अन्य व्याधियों ने उन्हें ग्रसित किया। अब जबकि उन्हें बराबरी का अधिकार दिलाने के लिए आंदोलन हो रहा है और बेहतर भोजन पर उनके अधिकार को मान्यता दी जा रही है तो भी वे इसके लिए बहुत उत्सुक नहीं हैं। शायद हिंदी समाज भी कुछ ऐसी ही नियति का शिकार है।
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