Menu
blogid : 11678 postid : 81

जिताऊ स्थिति में चयन में ही हार जाते संगमा

बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
  • 100 Posts
  • 458 Comments

लोकसभा अध्यक्ष के रूप में पीए संगमा ने जिस भूमिका का निर्वाह किया उससे वे देश भर में जनमानस के चहेते बन गए, लेकिन इसके बाद वे अति महत्वाकांक्षा के शिकार होते गए और राष्ट्रपति चुनाव में प्रणव मुखर्जी के सर्वसम्मत चयन में बाधक होने के लिए उन्होंने स्वयं की उम्मीदवारी प्रस्तुत कर राजनीतिक दृष्टि से जिस तरह का आत्मघाती कदम उठाया उससे अब लोगों को यह बिल्कुल भी संदेह नहीं रह गया है कि अपनी महत्वाकांक्षा को फलित न होते देख उनकी सोच और व्यक्तित्व कुंठित हो चुका है। पीए संगमा के पास अगर वैज्ञानिक राजनीतिक दृष्टि होती तो वे लोकसभा अध्यक्ष के रूप में स्वयं को मिली सराहना की सीमाएं समझकर संयमित लीक अपनाए रहते और इससे उनका व्यक्तित्व निखार पर आता। प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति बनना मायने नहीं रखता, लेकिन एक अत्यंत अल्पसंख्यक आदिवासी समुदाय और क्षेत्रीयता के दृष्टिकोण से उत्तर प्रदेश के एक मंडल से भी छोटे राज्य के प्रतिनिधि होकर भी वे राष्ट्रीय स्तर पर एक प्रकाश स्तम्भ के रूप में उभर सकते थे। दूसरे जेपी बन सकते थे। जब देश रूपी जहाज समस्याओं और चुनौतियों के महासागर में भटकता नजर आता तो लाइट पोस्ट के रूप में सही दिशा निरूपण के लिए जनमानस को बरबस ही उनका स्मरण हो आता।
यह कहने का आशय बिल्कुल भी यह नहीं है कि पीए संगमा की तुलना में प्रणव मुखर्जी बेहतर नेता हैं या पीए संगमा को प्रधानमंत्री अथवा राष्ट्रपति पद की दावेदारी करने का अधिकार नहीं है। सवाल इस बात का है कि पीए संगमा जिन्हें अपना हिमायती मान रहे हैं यदि वे निर्णायक स्थिति में होते तो क्या सम्भव था कि संगमा उनकी पसंद बनते? लोकसभा अध्यक्ष के रूप में उनकी भूमिका को लेकर कुछ ऐसा वातावरण बना कि लोग उनकी घेराबंदी कर यह प्रदर्शित करने लगे कि अग्रपंक्ति के किसी समकालीन नेता में लोगों की आस्था नहीं बची है और उनके प्रति जो अनायास आस्था जागी है उससे वे प्रधानमंत्री पद के नजदीक हो गए हैं। भावनाओं में बहकर उन्होंने सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे को शरद पवार और तारिक अनवर जैसे नेताओं के साथ जुड़कर इसीलिए तूल दिया कि यह मुद्दा राष्ट्रीय भावनाओं से जुड़कर बहुत गम्भीर हो जाएगा और इससे पूरे देश के जनमानस की हमदर्दी उन्हें मिल जाएगी। पीए संगमा का यह बेहद गलत मूल्यांकन था। राष्ट्रीय भावनाएं तय करने की ठेकेदारी भाजपा या किसी अन्य दल के हाथ में नहीं है। जनता इस महत्वपूर्ण मुद्दे को लेकर बेहद परिपक्व दृष्टिकोण प्रस्तुत करती रही है, जिससे सयाने लोग उसी समय जानते थे कि सोनिया के विदेशी मूल का विवाद आगे चलकर फुस्स हो जाएगा और यही हुआ। जब सारा देश एक स्वर से विदेशी भगाओ का नारा लगाते न दिखा और सोनिया गांधी ने स्वयं ही प्रधानमंत्री पद की दावेदारी से अपने पैर खींच लिए तो पीए संगमा हतबुद्धि से हो गए। उनके लिए सबसे बड़े सदमे की बात यह रही कि शरद पवार ही सोनिया गांधी के नेतृत्व वाले प्रगतिशील गठबंधन के हिस्से बन गए।

मान लीजिए कि अगर लोग भावनाओं में बहकर विदेशी होने के आधार पर सोनिया गांधी को खदेड़ने के लिए सहमत भी हो जाते तब भी क्या यह सम्भव था कि जिन राजनीतिक शक्तियों के लिए इस तरह के मुद्दे बेहद प्रिय हैं वे संगमा को किसी सर्वोच्च पद के लिए स्वीकारते, इसका गहराई से विश्लेषण किया जाए तो उत्तर नकारात्मक होगा। यही बात तो लालकृष्ण आडवाणी नहीं समझ पाए, जिन्होंने राम जन्मभूमि मंदिर के निर्माण के लिए रथयात्रा निकाली और रातोंरात राष्ट्रीय नायक बन गए। दूसरी ओर अटल बिहारी वाजपेई ने इस रथयात्रा से असहमति प्रकट की, जिसके कारण कुछ दिनों के लिए वे राजनीतिक वनवास में जाते दिखे, लेकिन अंतिम परिणाम जो आया उसमें अटल जी तो आसानी से प्रधानमंत्री पद हासिल कर अपने राजनीतिक सफर को पूर्णता पर पहुंचाने में कामयाब रहे, जबकि लालकृष्ण आडवाणी को उन्हीं लोगों ने दूध की मक्खी की तरह निकाल कर फेंक दिया, जो उन्हें सिर माथे बैठा रहे थे।
भारतीय राजनीति की हकीकत समझना है तो संगमा को लालकृष्ण आडवाणी के साथ-साथ कल्याण सिंह से भी बात करना चाहिए। अयोध्या में ढांचा गिरने की जिम्मेदारी लेकर जब उन्होंने अपनी सरकार कुर्बान की थी तो पार्टी के अंदर जिस तरह उनकी सराहना हुई थी उससे उन्हें गलतफहमी हो गई थी कि अब पूरी पार्टी उनके कब्जे में आ गई है। इस गुमान में उन्होंने पार्टी से टकराव मोल लिया तो उन्हें पता चल गया कि जनसमर्थन की जो शक्ति उन्हें अपने साथ नजर आ रही थी वह कितनी थोथी थी? आज उनके भी राजनीतिक कैरियर का सूर्यास्त हो चुका है। उमा भारती तो १९९२ से ही द्वंद्व में नजर आती हैं। हिंदुत्व की फायरब्रांड नेता घोषित किए जाने के बावजूद उन्हें समय-समय पर यह जताया जाता रहा कि विनम्र और आज्ञाकारी भूमिका तक अपने को सीमित रखोगी तो फायदे में रहोगी। अगर सेवा की बजाय सत्ता पाने की हिमाकत की तो बुरा हश्र होगा। जब इसका दर्द हुआ उमा भारती विलाप करती नजर आईं कि पिछड़े वर्ग की होने के नाते उन्हें भाजपा में हजम नहीं किया जा रहा। एक ओर वे वर्ण व्यवस्थावादी मोर्चे के साथ भी रहना चाहती थीं दूसरी ओर दलित-शोषित तबके में समता के अधिकार की चेतना भी उनके अंदर जोर मारती थी। आज इस द्वंद्व में वे कहीं की नहीं रह गई हैं। अगर लोगों को हिंदुत्व वास्तव में पसंद होता तो जब उन्होंने अपनी पार्टी बनाई थी तो बहुतायत लोग उनके साथ नजर आते। कल्याण सिंह और उमा भारती अपने दम पर जनसमर्थन जुटाने में कितने बौने साबित हुए, यह बताने की जरूरत नहीं है?
पीए संगमा भी इस्तेमाल हो सकते हैं लेकिन उन्हें सिर चढ़ाने की नौबत आती तो वे भी उन्हीं कारणों से जमींदोज कर दिए जाते, जिसकी वजह से आडवाणी, कल्याण सिंह और उमा भारती कहीं की नहीं रह गई हैं। सोनिया के विदेशी मूल के मुद्दे से लेकर अभी तक के समय में दिल्ली में यमुना में न जाने कितना पानी बह चुका है फिर भी संगमा भारतीय राजनीति के रहस्य को नहीं समझ पाए। यह उनकी बहुत बड़ी नादानी है। संगमा की हार एक नेता की हार नहीं है बल्कि एक ऐसे व्यक्ति की हार है जो अपनी अच्छाइयों से देश के लिए बहुत अच्छा योगदान दे सकता था। लगातार पराजय ने उनमें नकारात्मकता को इतना हावी कर दिया है कि अब उनसे किसी तरह की रचनात्मक उम्मीद नहीं की जा सकती। बहरहाल संगमा की हार सुनिश्चित थी, लेकिन फिर भी उनका हारना अफसोसनाक लगा।

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply