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क्रांतिकारियों ने क्यों कबूल की जफर की बादशाहत..

बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
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जालौन के इटौरा का गुरु रोपण मंदिर।
जालौन के इटौरा का गुरु रोपण मंदिर।

१८५७ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की चुनौती का सामना करते हुए फिरंगियों ने कुछ सबक तैयार किए। इसमें एक सबक था भविष्य में ऐसे विद्रोह की नौबत न आने देने के लिए मुगलों को जिस रूप में देश के लोगों की अंतश्चेतना ने पहचाना था उन्हें उससे परे करना। १८५७ में अलग-अलग रियासतों में बंटे राजाओं को एकजुट करने के लिए जरूरी था कि यह तय हो अगर अंग्रेजों को खदेड़ने में कामयाबी मिली तो सर्वसम्मत केंद्रीय शासन के लिए किस पर विश्वास किया जाएगा।

क्षत्रिय राजाओं में ज्यादातर एक-दूसरे के रिश्तेदार थे। फिर भी उनमें कोई सर्वसम्मत नाम तय करना टेढ़ी खीर हो रहा था। स्वतंत्रता संग्राम में मुस्लिम नवाबों की भी पूरी भागीदारी थी जिससे मुसलमानों की भी सहमति सर्वसम्मति के लिए जरूरी थी। आखिरकार बहादुर शाह जफर को सर्वसम्मत बादशाह बनाने का फैसला हुआ। जफर मूल रूप से शायर था, कहीं से बड़ा लड़ाका नहीं जबकि क्रांतिकारी संगठन में वीर कुंवर सिंह से लेकर महारानी लक्ष्मीबाई तक एक से एक सूरमा शामिल थे। सवाल यह है कि इसके बावजूद बहादुर शाह जफर पर ही क्रांतिकारियों की निगाह क्यों टिकी। दरअसल मुगलों ने निजी और शासन सम्बंधी व्यवस्था में जो लीक बनाई उससे वे मिली-जुली संस्कृति के प्रतीक बन गए।

मुगलों में सबसे बड़ी बात यह थी कि उन्होंने विधर्मी रानियों से हुए शहजादों को बादशाह के उत्तराधिकारी के रूप में चयनित किया। बात केवल अकबर के जोधाबाई से जाये सलीम की नहीं है, जहांगीर के बारे में सब जानते हैं कि उसकी सबसे प्यारी बेगम नूरजहां थी, लेकिन नूरजहां के बेटों की बजाय उदय सिंह मोटा राजा की बहन से उत्पन्न शहजादा उसकी बादशाहत का उत्तराधिकारी बना। धर्म के मामले में भी दीन इलाही जैसा प्रयोग पूरी इस्लामिक दुनिया में सिर्फ मुगलों ने ही किया।

बाबर कट्टरवादिता से अलग था और हिंदुस्तान में आने के पहले मावरा उन्नहर पर एकाधिकार के लिए जिस शैवानी खां से उसकी कई बार जंग हुई वह पूरी तरह शुद्धतावादी मुस्लिम था। बाबर शराब पीता था, चित्रकारी करता था, शायरी भी कर लेता था और यह सब चीजें धार्मिक उसूलों के खिलाफ थीं। कहने का तात्पर्य यह है कि मुगल मुसलमान होते हुए भी कि्सी मजहब की रूढ़ि से बंधे नहीं थे इसलिए वे अपनी एक नई लीक बनाने में सफल रहे और मुगलों का वंशज भले ही युद्ध की दृष्टि से वह कितना भी नाकारा क्यों न रहा हो प्रथम स्वाधीनता संग्राम में बादशाहत के लिए सर्वस्वीकार्य हुआ तो उसका कारण उसके पूर्वजों की वही लीक रही जो मौलिक रूप से निखालिस हिंदुस्तानी थी। खैर इस पर विस्तार से फिर कभी बात होगी। मैं तो यह कहना चाहता हूं कि मुगल वंश को बाबर और औरंगजेब के जरिए हिंदू द्रोही वंश के रूप में परिचित कराने के उद्देश्य में १८५७ के बाद की गई कोशिशों के कारण आखिर में अंग्रेज सफल रहे। उन्हें मंदिरों के ध्वंसकर्ता के रूप में स्थापित किया जा चुका है।

रोपण गुरु मंदिर के बाहर भक्ति रस से विभोर होक नाचते श्रद्धालु। ( हर वर्ष कार्तिक पंचमी के मौके पर लगने वाले मेले में यह दृश्य आम होते हैं।)

रोपण गुरु मंदिर के बाहर भक्ति रस से विभोर होकर नाचते श्रद्धालु। ( हर वर्ष कार्तिक पंचमी के मौके पर लगने वाले मेले में यह दृश्य आम होते हैं।)

दूसरी ओर जालौन जिले में कालपी के पास इटौरा नाम की एक जगह है जहां मुगलों के समय पनपी निर्गुण भक्ति परम्परा के संत रोपण गुरु ने अपना आश्रम स्थापित किया था। वे किसी साकार व्यक्ति को ईश्वर के रूप में प्रतिष्ठित करने के विरोधी थे, लेकिन आस्तिकता और आध्यात्मिकता का प्रकटन जिन गुणों से होता है यथा- पीड़ितों के लिए दया, करुणा और परोपकार आदि, उनका विकास अपने भक्तों में कर सकें इसमें उन्होंने कोई कसर नहीं उठा रखी थी। अकबर आगरा से इलाहाबाद जाते समय कालपी में जागीरदार अब्दुल मतलूब खां का मेहमान बना और जब उसने रोपण गुरु के बारे में सुना तो खुद उनसे मुलाकात करने पहुंच गया। वह रोपण गुरु से इतना प्रभावित हुआ कि उसने वहां एक तालाब का निर्माण कराया। यही नहीं इटौरा को सभी सुविधाओं से सुसज्जित कर उसने विस्तारित किया और आज यह गांव जिसकी आबादी १७ हजार है, अकबरपुर इटौरा के नाम से सम्बोधित किया जा रहा है।

अकेले अकबर में दूसरे धर्म के प्रति सहिष्णु होने की उदारता नहीं थी बल्कि जालौन जिले में कोंच तहसील में औरंगजेब तक ने एक हिंदू मंदिर के लिए जमीन सम्बद्ध की थी, जिसके अभिलेख मंदिर के कर्ताधर्ताओं के दावे के अनुसार आज भी उनके पास मौजूद हैं। रामपुरा के पास हनुमानगढ़ी गांव है जहां बजरंगबली का एक मंदिर है। यहां के वर्तमान महंत लालजी दास ने भी मुझे बताया कि मुगलों ने साढ़े पांच सौ बीघा से अधिक जमीन उनके मंदिर के लिए सम्बद्ध की थी। उनके अनुसार वे इसके दस्तावेज सुरक्षित रखे हुए हैं। अगर तमाम पूर्वाग्रहों को परे कर देखा जाए त मालूम होगा कि हमारे संविधान में सेकुलरिज्म के लिए जो प्रतिबद्धता दर्शाई गई है उसका स्रोत पश्चिमी अवधारणा नहीं है बल्कि मुगल शासन इसका प्रस्थान बिंदु है।

दुनिया में किसी जगह इस्लामी शासन को अपने से ज्यादा बड़ी तादाद में दूसरे समुदाय के सह अस्तित्व को स्वीकार करते हुए व्यवस्था संचालित करने की चुनौती का सामना नहीं करना पड़ा। यह काम केवल हिंदुस्तान में हुआ इसलिए मिलीजुली संस्कृति का असली पल्लवन यहीं की धरती पर हो सकता था और हुआ भी। जहां तक दोनों समुदायों में कई बातों को लेकर समय-समय पर होने वाले टकराव की बात है वह कुदरती है। हिंदू-मुसलमान क्या हिंदुओं की एक ही उपजाति की दो शाखाओं में भी इस तरह की द्वंद्व की स्थितियां बनती रहती हैं। इन्हें विराट रूप में देखना भय और आशंकाओं के फोबिया में अपने को जकड़ लेना एक बहुत बड़ी कमजोरी है। छुटपुट या इतिहास की क्षेपकधाराओं को छोड़कर सम्पूर्णता में देखें तो मुगलों के बाद मिली-जुली संस्कृति में निर्वाह करने में इस देश ने लगातार दक्षता हासिल की है और आज भी वह इस मामले में दुनिया के सभी दूसरे देशों की तुलना में पूरी तरह कामयाब है।

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