Menu
blogid : 11678 postid : 89

क्या आल्हा भी हुए थे बुद्ध से प्रेरित

बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
  • 100 Posts
  • 458 Comments

बैरागढ़ का शारदादेवी पीठ, यहीं पर आल्हा ने अपनाया था शांतिमार्ग।
बैरागढ़ का शारदादेवी पीठ, यहीं पर आल्हा ने अपनाया था शांतिमार्ग।

जालौन जिले में एट रेलवे स्टेशन के पास बैरागढ़ धाम नाम का एक तीर्थस्थल है। जहां शारदा देवी की पूजा होती है। वैसे तो इस देश में देवी-देवताओं के मंदिरों की कोई कमी नहीं है और हर मंदिर की कहानी ऐसी है जिससे सिद्ध किया जा सके कि जिसकी चर्चा की जा रही है उसकी महिमा की सानी का कोई दूसरा मंदिर सारे देश में तो क्या दुनिया में नहीं हो सकता। बावजूद इसके शारदापीठ का विशिष्ट महत्व है और जब भी मैं वहां गया मैंने मंदिर के शिखर पर आल्हा द्वारा उलटी कर गाड़ी गई सांग का दूसरा सिरा देखा तो लगा कि आल्हा जैसे युद्धपिपासु ने जब ऐसा किया तो उसका साफ मतलब था कि वह संकल्प ले चुका था कि भविष्य में कभी युद्ध नहीं करेगा। इसी कारण बैरागढ़ युद्ध के बाद आल्हा गायब हो गया और आज तक माना जाता है कि आल्हा अमर है, लेकिन उसे देखा नहीं जा सकता।
साफ जाहिर है कि बैरागढ़ के युद्ध के दौरान ऐसा कुछ जरूर हुआ जिससे आल्हा के मन में युद्ध को लेकर वितृष्णा हो गई। महाकवि जगनिक कृत महाकाव्य आल्ह खंड की गूंज अब देश के कई कोनों में सुनी जाती है। भले ही आल्हा सम्राट नहीं थे, लेकिन वे कहीं से अशोका दि ग्रेट से कम पराक्रमी नहीं थे। उनका हृदय परिवर्तन कलिंग युद्ध के बाद सम्राट अशोक द्वारा क्रांतिकारी ढंग से अपने आपमें किए गए बदलाव के समकक्ष है। तथागत बुद्ध की शिक्षाओं से प्रभावित होकर अशोक ने युद्ध का परित्याग करते हुए अहिंसा का अनुशीलन करने का जो निर्णय लिया उसी के चलते इतिहास में आगे चलकर वे अशोक महान के रूप में स्थापित हो गए। अशोक की प्रेरणा तो तथागत थे पर आल्हा किनसे प्रेरित होकर बदले यह एक रहस्य है। जानबूझकर तथ्यों पर परदा डालकर बैरागढ़ को दूसरे कलिंग के रूप में पहचान नहीं मिलने दी गई। यह निश्चित रूप से एक षड्यंत्र प्रतीत होता है क्योंकि बैरागढ़ में शारदापीठ पर वर्षों से आ रहे बुजुर्ग भक्तों ने मुझे बताया कि ३०-४० साल पहले तक यहां नवदुर्गा के अवसर पर बलि देने की प्रथा कायम थी, जहां आल्हा ने खून-खराबे से मुंह मोड़ा वहां बलि की परम्परा इसे क्या कहा जाए? यह तो वैसा ही है जैसे तथागत बुद्ध का जहां निर्वाण हुआ वहीं कर्मनाशा मगहर बन गया। सैकड़ों वर्षों बाद जब कबीर ने मगहर में शरीर छोड़ने का फैसला किया तब लोगों को अपनी चेतना में झकझोर महसूस हुई। पीपल के पेड़ पर मशान का वास क्यों घोषित हुआ, यह भी लोगों को अब पता चल चुका है। आल्हा ने जिसके प्रभाव में वशीभूत होकर मार्ग बदला शांति के उसी मसीहा को चिढ़ाने के लिए यहां बलि परम्परा की शुरुआत प्रतीत होती है।
गनिक के आल्ह खंड व उससे प्रेरित होकर आल्हा पर लिखे गए अन्य ग्रंथों में आल्हा-ऊदल का चेहरा दूसरी तरह का है और डीवी डिग्री कॉलेज उरई के राजनीति विज्ञान विभाग के प्रवक्ता रहे ८० वर्षीय डॉ. जयदयाल सक्सेना ने आल्हा को काफी शोध करके जिस शक्ल में पेश किया वह बिल्कुल ही अलग है। निरपेक्ष लोगों को आल्हा के इस रूप के बारे में भी जानना चाहिए ताकि भावनात्मक और आदर्शवादी लोग जिस तरह बुंदेलखंड के लिजलिजेपन को महिमामंडित करते रहे हैं उनसे हो रहे नुकसान की भरपाई हो सके और सारा देश जान सके कि बुंदेलखंड भी तथागत बुद्ध के कर्मक्षेत्र की तरह क्रांतिकारी विचारों की भूमि है। जयदयाल जी ने आल्हा के बारे में यह निरूपण आदरणीय डॉ. तुलसीराम द्वारा सम्पादित भारत अश्वघोष के नवम्बर-दिसम्बर १९९७ के अंक में किया था। संयोग से मैंने इस पत्रिका के लिए उत्तर प्रदेश ब्यूरो चीफ के रूप में काम किया है। आल्हा को लेकर जयदयाल जी की क्रांतिकारी स्थापना पर अलग से एक पूरे ब्लॉग की जरूरत है, लेकिन आज मैं केवल उनके लेख के कुछ चुनिंदा अंश यहां उद्धृत कर रहा हूं।
जयदयाल जी लिखते हैं- आल्हा ने धर्म के नाम पर अंधश्रद्धा, ढोंग, चमत्कारों, अवैज्ञानिक कर्मकांडों की पनपती दुकानों, मंदिरों-मठों को हतोत्साहित किया। इसके लिए उन्होंने बल प्रयोग नहीं किया और न ही मंदिर-मठों को तोड़ा। उन्होंने ज्ञान के प्रकाश से इस अज्ञान अंधकार को मिटाने का भरसक प्रयास किया। उन्होंने समझाया कि मानव ही प्रकृति की श्रेष्ठ कृति है। इसी की सेवा वास्तविक धर्म है। पीड़ित मानवता के कष्ट निवारण से बढ़कर और कोई धर्म नहीं है। प्रतीक के रूप में उन्होंने मनियादेव (मानवदेव) की पूजा का विधान किया। शायद आल्हा ने श्रीकृष्ण से प्रेरणा ली हो। कृष्ण ने भी इंद्र के स्थान पर गोवर्धन की पूजा का विधान किया था। मनियादेव की पीठ की पूजा की जाती है। उनका मुंह तथा वक्ष दीवाल में चुना है। मात्र पीठ ही दिखाई पड़ती है। लोग पीठ ही पूजते हैं। भाव यह है कि मनुष्य की सेवा उसको पहचान कर अपना-पराया समझकर या ऊंच-नीच के भाव से नहीं करना चाहिए। बिना किसी भेदभाव के समान रूप से हर मानव की ही नहीं हर प्राणी की सेवा करना ही मनियादेव की पूजा है।
जयदयाल जी ने आल्हा की पृष्ठभूमि बताते हुए लिखा है कि- आल्हा की मां देवल कबीलियाई आदिवासी समाज की बेटी थी। उनका कबीला आर्थिक, सामाजिक विषमता और वर्ग विभाजन के अभिशाप से मुक्त था। कबीले का मुखिया सयानों में प्रथम ही होता था। इससे अधिक कुछ नहीं। इन्हीं संस्कारों के कारण देवल ने राजा परमाल द्वारा पुरस्कार में दी गई राजनर्तकी लाखा पाथुर को न केवल वेश्यावृति से मुक्त किया बल्कि अपनी सहेली बनाकर बराबरी का दर्जा दिया। आल्हा ने सामाजिक, आर्थिक न्याय का पहला पाठ अपनी माता से ही सीखा था। आजीवन वे आल्हा की प्रेरक ऊर्जा बनी रहीं। आल्हा की पत्नी सुनवा ने देवर ऊदल को माता देवल का महत्व बताते हुए कहा था- माता देवल सी मिलि हैं ना चाहे लेओ जनम हजार। आल्हा के संरक्षक सैयद के बारे में जयदयाल जी ने लिखा है कि वे आल्हा के पिता के घनिष्ट मित्र मूलतः ईरान या मध्य एशिया के घोड़ों के व्यापारी थे। आल्हा के पिता की हत्या हो जाने पर तालहन सैयद ने आल्हा और उनके भाइयों के लालन-पालन शिक्षा-दीक्षा तथा सैन्य प्रशिक्षण का दायित्व अपने ऊपर ले लिया। उन्होंने ही अल्लाह की नियामत मानकर उनका नाम आल्हा रखा। उनके प्रति कृतज्ञता के कारण ही आल्हा ने चाचा सैयद को देवत्व प्रदान कर सम्मानित कराया। आज भी बुंदेलखंड के गांव-गांव में सैयद पूजे जाते हैं। सैयद के नेतृत्व में आल्हा ने महोबा में ही उत्तम अश्वों की नस्लवृद्धि तथा पालने तथा चिकित्सा की व्यवस्था बंद की। अश्वों की आयात बंद कर सेना को आत्मनिर्भर और स्वावलंबी बनाया। मूर्ख रजवाड़े आल्हा के उत्तम सैन्य अश्वों को उड़नबछेरा ही समझते रहे।
जयदयाल जी की यह पंक्तियां भी पढऩे लायक हैं- तत्कालीन सामंती सेनाएं पंडितों, ज्योतिषियों के अंधविश्वासी कर्मकांडों से बुरी तरह जकड़ी हुई थीं। इन्हें से पूछकर सैन्य अभियान गठित किए जाते थे। सगुन-मुहूर्त आदि का बड़ा महत्व था जो प्रायः घातक प्रमाणित होते थे। आल्हा ने अपनी सेना को इन बेड़ियों से मुक्त किया। उन्होंने स्पष्ट घोषित किया- सगुन बिचारैं बनिया बांटूं, जो व्यापार बंज को जाय और जब दुश्मन पर हल्ला बोलौ तबहीं समय है बोई सगुन है। जयदयाल जी ने लिखा है कि दलितों को सम्मानित तथा न्यायोचित स्थान दिलान के अपराध में आल्हा के परिवार को बनाफर (वन में फलने वाले असभ्य जंगली प्राकृत जन) कहकर अपमानित किया गया। आल्ह खंड की इस पंक्ति को उन्होंने उद्धृत किया- जात बनाफर की ओछी है। डॉ. जयदयाल जी लिखते हैं आल्हा को ओछी यानी नीची जाति में धकेला गया। इतना ही नहीं सामाजिक बहिष्कार भी किया गया। आल्ह खंड के कवित्त की पंक्ति है- इनको पानी कोऊ न पीवै ओछी जात बनाफर क्यार। ऐसे अपमानों से आल्हा विचलित नहीं हुए। उन्होंने अपने वनवासी मूल पर कभी लज्जा का अनुभव नहीं किया। वे गर्व से अपने को बनाफर कहते रहे। आल्हा के सैन्य संगठन में ऊंचे पदों पर किस तरह कुजात स्थापित थे और आल्हा ने अपनी पत्नी सुनवा के नेतृत्व में किस तरह गुप्तचर महिला सैन्य संगठन चलाया, यह जयदयाल जी के लेख का सबसे आकर्षक अध्याय है। ऊदल को उनके विवाह अभियान के समय शत्रु के बंदीगृह से मुक्त करने की घटना को उन्होंने जिस कोण से प्रस्तुत किया है उसे पढ़कर मथुरा राज्य के खिलाफ बगावत करने वाले कृष्ण और राधा की जनसेना यानी पीपुल्स आर्मी का स्मरण हो आता है। इस बारे में अगले ब्लॉग में चर्चा होगी।

फिलहाल तो यह कहना है कि आल्हा के प्रभाव क्षेत्र में किसान जातियों के हाथ में खेती का मालिकाना अधिकार पूरे उत्तर भारत की परम्परा से अलग होना आश्चर्य की बात नहीं है। जालौन जिले को ही लें जहां अपने गुमान में चूर क्षत्रियों की तीन प्रमुख रियासतें एक ही तहसील में हैं। वहीं मुहाना घाट से लेकर कोंच और काफी हद तक जालौन के इलाके में जमींदार-लम्बरदार या तो लोधी हैं या कुर्मी। उनके इलाके में क्षत्रियों का अतापता नहीं है। जयदयाल जी के चश्मे से आल्हा को पढ़ने के बाद महोबा से लेकर उरई तक किसान जातियों की जमींदारी देखकर कुछ अजूबा नहीं लगता बल्कि यह आल्हा द्वारा रखी गई नींव का स्वाभाविक परिणाम प्रतीत होता है। आल्हा के बाद भी क्रांतिकारी और मूर्तिभंजक परम्पाएं किस तरह बुंदेलखंड में जारी रहीं, इस पर भी समय-समय पर प्रकाश डालता रहूंगा। फिलहाल तो इतना ही…

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply