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तो क्या भ्रष्टाचार से भी होता है क्रांतिकारी बदलाव

बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
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भारत में भ्रष्टाचार की कहानी हरि अनंत हरि कथा अनंता की तरह है। भ्रष्टाचार सम्बंधी विमर्श शुरू होता है तो कई नई परतें खुलती चली जाती हैं। भ्रष्टाचार का रचनात्मक रूप भी हो सकता है, यह बात केवल भारत में देखी जा सकती है। आजादी के बाद संसाधनों पर के केंद्रीयकरण समाप्त कर खुशहाली में सभी को हिस्सा मुहैया कराने का जबानी जमा खर्च तो बहुत हुआ लेकिन इससे जुड़े नारे जमीन पर साकार करने की सार्थक कोशिशें बहुत ही कम हो पाईं। दूसरी ओर राजीव गांधी द्वारा कराए गए संविधान संशोधन विधेयक की बदौलत पंचायतीराज संस्थाओं में पिछड़ों और अनुसूचित जाति-जनजाति के आरक्षण से बेहद गरीबों के लिए लाभ के पद अर्जित करने का अवसर मिला।
उत्तर प्रदेश में चौधरी समाज की मायावती चार बार मुख्यमंत्री बन चुकी हैं और इसी के साथ तथाकथित उच्च जाति के लोगों को बसपा का टिकट हासिल करने के लिए नकदी चढ़ाने के साथ-साथ मायावती की चरण वंदना करने में भी परहेज नहीं रहा है, लेकिन कोई यह सोचे कि यह उनके हृदय परिवर्तन के कारण है तो उससे बड़ा नादान कोई दूसरा नहीं हो सकता। तथाकथित उच्च जाति के लोग रणनीतिक कौशल के तहत ऐसा कर रहे हैं वरना आज भी वर्ण व्यवस्था के दिन फिर बहाल होने का दिवास्वप्न देखना उन्होंने बंद नहीं किया है। यही वजह है कि मायावती की राजनीतिक ताकत की कुंजी जहां है यानी अनुसूचित जाति का चौधरी समाज, उसका मान-मर्दन करने की कोई कोर-कसर वे नहीं छोडऩा चाहते, तो उत्तर प्रदेश में जब प्रधानी का चुनाव होता है इस वर्ग के सारे लोग चौधरी समाज के खिलाफ अनुसूचित जाति की दूसरी जाति के उम्मीदवार के पक्ष में गोलबंद हो उठते हैं।
वाल्मीकि समाज के बहुत से उम्मीदवारों की गोटी उच्च जाति के लोगों के मेहरबान होने से लाल हो जाती है। गांव में कमोवेश सामाजिक ढांचा आज भी आजादी के पहले जैसा ही है। वहां अस्पृश्यता उन्मूलन केवल कागजों में हुआ है। गांव में तिरस्कृत जिंदगी जीते वाल्मीकि समाज के लोग सामाजिक, आर्थिक तरक्की से आज भी बहुत दूर हैं। साफ है कि ऐसे में वाल्मीकि समाज के व्यक्ति के प्रधान बनने का मतलब होता है सबसे अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति की किस्मत जागना। एक साल तक तो वह प्रधान दीन-हीन हालत में ही रहता है। अपने सवर्ण महाप्रभुओं का रबर स्टाम्प बना रहता है, लेकिन इसके बाद वह खुद अपनी सत्ता का इस्तेमाल करना जान जाता है। बाकी के चार सालों में प्रधानी उसके लिए पारस पत्थर बन जाती है। वह कितना भी कम इकट्ठा करे 20-25 लाख का आदमी तो हो ही जाता है। अंत्योदय का साकार रूप इससे ज्यादा क्या हो सकता है?
भ्रष्टाचार को इस चश्मे से देखें तो लगता है कि जो काम यहां मार्क्सवाद नहीं कर पाया वह पंचायतीराज के भ्रष्टाचार ने कर दिया। गांव के अनुसूचित जाति के गरीब प्रधान की हैसियत में इजाफा कहीं न कहीं संवैधानिक लक्ष्य की प्राप्ति नजर आने लगता है। इसी कारण जब भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन होता है तो उसमें शहर के संभ्रांत तबके के ही शिरकत हो पाती है। गांव स्तर पर कोई आलोडऩ इसलिए नहीं होता कि वहां गरीब प्रधान और उसके समुदाय के लोग अव्यक्त तौर पर सवाल करते हैं कि जब तक आप ही आपके हाथ में सभी स्तरों की सत्ता थी और तब आप प्रधान से लेकर प्रधानमंत्री तक पर भ्रष्टाचार का परनाला बहा रहे थे तो कोई आपत्ति न थी अब हम जबकि जरूरतमंद हैं यह लाभ उठा रहे हैं तो आपके पेट में मरोड़ हो रही है। अगर भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में असली अवाम की शिरकत न हो पाने की विफलता का जरा भी मलाल अगुआकारों को होता तो वे उनके बीच जाते। वे जो सवाल उठा रहे हैं उनका निराकरण करने की कोशिश करते।
हो सकता है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ जेहाद भी होता और सामाजिक परिवर्तन की ठोस पहल भी शुरू हो जाती। यथास्थितिवाद के ढांचे में भ्रष्टाचार के खिलाफ शंखनाद की वजह से लोगों का जमीर नहीं कचोट रहा तो कहीं न कहीं कोई न कोई कपटाचरण अगुआकारों का जरूर है। अब इसी के साथ यह भी है कि देश में महंगाई का विरोध तो है लेकिन नई आर्थिक नीति के प्रति सम्मोहन भी है। इसका मतलब है कि नये आर्थिक सिद्धांतों के लिए स्वीकृति भी है और समर्पण भी, जिसके दायरे में नीति की सफलता विकास दर बढऩे के पैमाने से आंकी जाती है।
अब मान लीजिए किसी गांव में फूलेलाल वाल्मीकि प्रधान हो गए जिनके पास पक्का मकान तो क्या सही-सलामत छप्पर वाली झोपड़ी भी नहीं थी। मोटरसाइकिल की कल्पना तो दूर साइकिल भी लेने का सपना नहीं देखते थे। ऐसे सर्वहारा के हाथ में जब ग्राम विकास निधि, मिडडे मील, गांव में होने वाले विकास कार्र्यों व मनरेगा की छप्पर फाड़ इनकम आई तो ढंग का रहन-सहन बनाने की खातिर प्रधानजी को बार-बार बाजार जाना पड़ा। कभी मकान बनवाने के लिए ईंटा, सरिया, सीमेंट लेने तो कभी नई बाइक और ज्यादा हाथ लग गया तो जीप लेने के लिए खुद के और परिवार के तन पर अच्छे कपड़े सजें इसके लिए। अगर गांव के पुश्तैनी बड़े आदमी को ही प्रधान बनने का मौका मिलता रहता तो बाजार को उससे क्या मदद मिलती, वह तो पहले ही सारी सुख-सुविधाओं से समृद्ध होता। फलस्वरूप वह अपनी आमदनी को बैंक में जाम करता रहता। पूंजी की चलायमानता ऐसे लोगों से समाप्त होती रहती थी जिससे विकास दर भी बड़ी लंगड़ा-लंगड़ा कर चलती नजर आती थी। अगर विकास दर का वैश्विक आर्थिक सिद्धांतों के तहत परिभाषित फंडा सही है तो फिर भ्रष्टाचार विकास दर के पहिए तेजी से दौड़ाने के लिए सबसे अच्छा लुब्रीकैंट है। बहरहाल हर दूरदृष्टा क्रांतिकारी द्वारा एक बात कही गई है कि समाज की सामूहिक चेतना, सामूहिक अभिव्यक्ति कभी गलत नहीं होती।
भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन सतही तौर पर बहुत बड़ा नैतिक आह्वान है, लेकिन अगर आम लोग इससे नहीं जुड़ रहे तो गलत आम लोग नहीं आंदोलन की अगुवाई करने वाले लोग ही हैं। अगर यह बात समझ में आ जाएगी जो तब आएगी जब उनमें वैचारिक ईमानदारी होगी तो वे उन कमियों को दूर करेंगे जो उनके आंदोलन को तार्किक परिणति तक ले जाने में सबसे बड़ी बाधा साबित हो रहे हैं।

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