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ब्राह्मण शासन और मंडल कमीशन

बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
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ब्राह्मणवादी व्यवस्था की जब चर्चा होती है तो एक ऐसी व्यवस्था का चित्र उभरता है जिसमें सामाजिक भेदभाव को पनपाकर शोषित जातियों को पद, सम्पत्ति और शिक्षा के मूलभूत अधिकारों से वंचित रखा गया हो। जब सीधे ब्राह्मण जाति से टकराव मोल लेने से कतराने की समझदारी पनपी तो इस पर मनुवादी व्यवस्था का नाम देकर हमला किया जाने लगा। सामाजिक न्याय की अवधारणा इसी के विरुद्ध पनपी, लेकिन अगर देखा जाए तो इतिहास बताता है कि सामाजिक न्याय पर्याय बन चुके मंडल आयोग की रिपोर्ट को वीपी सिंह के बहुत पहले ब्राह्मण राज में ही साकार किया गया था।
मुगलों के बाद महाराष्ट्र के पेशवा ब्राह्मण राष्ट्रीय स्तर पर सत्ता साम्राज्य के बड़े केंद्र के रूप में उभरे। विचित्र बात यह है कि पेशवा राज में यानी ब्राह्मण राज में शूद्र कहे जाने वाले पिछड़ों को सबसे पहले सत्ता में मजबूत भागीदारी दी गई। पेशवा ने अपने साम्राज्य का चार भागों में बंटवारा किया था और हर भाग के लिए जो अधिपति नियुक्त किए थे वे चारों पिछड़ी जाति के थे। ग्वालियर में सिंधिया नाई जाति के तो इंदौर के होल्कर गड़रिया जाति के समकक्ष हैं। भोंसले और गायकवाड़ भी पेशवा द्वारा नियुक्त अधिपति थे और यह भी पिछड़ी जाति से आते थे। कहा यह जा सकता है कि महाराष्ट्र में क्षत्रिय या राजपूत नहीं हैं जिसकी वजह से पेशवा की मजबूरी थी कि वे अपने साथ किसानों का समर्थन रखने के लिए पिछड़ी जाति के लोगों को अपनी सत्ता में भागीदार बनाते पर ग्वालियर और इंदौर में उन्होंने जो काम किया उसके लिए क्या कहा जाएगा?
पेशवा राज का यह प्रयोग इस मामले में शानदार था कि उनके शूद्र अधिपतियों ने जिम्मेदार, जवाबदेह राज का संचालन किया। ग्वालियर राज में जब पिंडारियों का आतंक चरम सीमा पर था तो पहले के हिंदू राजाओं की तरह मुजरा सुनने और द्यूत क्रीड़ा में तल्लीन रहने की बजाय महादजी सिंधिया खुद पिंडारियों के सफाए के लिए मैदान में उतरे और उन्होंने प्रजा की रक्षा करने का दायित्व बहुत ही साहसपूर्वक निभाया। जब मैं निरपेक्ष दृष्टि से देखता हूं तो प्रथम स्वाधीनता संग्राम में सिंधियाओं का क्रांतिकारियों की बजाय अंग्रेजों का साथ देना कुछ गलत नहीं लगता। दरअसल उस समय राष्ट्र जैसी कोई चेतना पूरे देश को लेकर अस्तित्व में नहीं थी। हर महाराजा-राजा के सरोकार अपने राज्य तक सीमित थे। इस नाते सिंधिया को लगा कि वे मध्य भारत में जिस तरह खुशहाल और शांतिपूर्ण माहौल के लिए अपना राजकौशल निखार रहे हैं उसमें क्रांति की उथल-पुथल का हिस्सा बनकर वे अपने उद्देश्य को चौपट कर लेंगे। यही वजह रही कि उन्होंने न केवल अपने को गदर से अलग रखा बल्कि क्रांति को विफल करने के लिए अंग्रेजों का साथ भी दिया।

मुझे सिंधियाओं की गर्वनेंस पद्धति का नजदीकी से अवलोकन करने का मौका बचपन में मिला। मेरे फूफाजी स्वर्गीय देवीसिंह तोमर सिंधिया राज्य के मुलाजिम रहे थे। उनके पास सिंधिया राज्य के कई दस्तावेज सुरक्षित थे। उन दस्तावेजों को मैंने पढ़ा जो आधुनिक प्रशासन के अनुरूप थे। सिंधिया भी उन दिनों कलक्टर और कमिश्नर की तरह शीतकालीन, पावसकालीन कैम्प राज्य के विभिन्न इलाकों में करते थे, जिसकी पूरी बुकलेट बहुत ही शानदार पुस्तक के रूप में तैयार होती थी। बकार सरकार ग्वालियर स्टेट की लाल जिल्द में चिकने कागज पर लिखी गई सिंधिया शासकों के दौरे की इन रिपोर्टों को मैंने पढ़ा है। महाराज के सामने कौन सी समस्याएं रखी गईं, उनके निदान के लिए कहां उन्होंने कुआं, बावड़ी, धर्मशाला बनवाने का आश्वासन दिया, सब दर्ज रहता था। अगली बार जब वे फिर उस इलाके में पहुंचते थे तो उनके सामने फॉलोअप रिपोर्ट पेश की जाती थी।

सिंधिया के जवाबदेह शासन का ही परिणाम था कि आजादी के बाद जब बहुत से पूर्व राजा-महाराजा जनता के आक्रोश के निशाने पर आ गए सिंधियाओं ने लोकतांत्रिक शासन में भी अपनी जनप्रियता को प्रमाणित किया। बंगलादेश युद्ध के बाद कांग्रेस की प्रचंड लहर में लोकसभा के जो मध्यावधि चुनाव हुए थे उसमें विपक्ष का सूपड़ा साफ हो गया था। प्रमुख विपक्षी दल जनसंघ को सारे देश में सिर्फ २२ सीटें मिल पाई थीं और उनमें अकेली ११ सीटें मध्य भारत से आयीं यानी पूर्व सिंधिया रियासत से थीं। अटलजी का पहला निर्वाचन क्षेत्र बलरामपुर था जहां से वे १९५७ में लोकसभा के सदस्य चुने गए थे, लेकिन इसके बाद उनकी पुनरावृत्ति उक्त सीट से नहीं हो सकी। उसी दौरान उन्होंने लखनऊ से भी जोर अजमाइश की और पराजय का मुंह देखना पड़ा। १९७१ में अटलजी दूसरी बार लोकसभा इसलिए पहुंचे कि राजमाता विजयाराजे सिंधिया ने उन्हें ग्वालियर की उम्मीदवारी सौंपी। खुद भिंड से लोकसभा की उम्मीदवार बनीं। भिंड में इंदिराजी उनके विरोध में प्रचार करने आई थीं और उन्होंने विजयाराजे सिंधिया को हराने के लिए पूरा जोर लगा दिया था पर वे जीतीं और उन्होंने इंदिराजी के अश्वमेघ यज्ञ के घोड़े की लगाम अपने इलाके में पूरी तरह थाम दी थी।
आज भी मध्य भारत में सिंधियाओं के उत्तराधिकारियों की लोकप्रियता किसी भी पार्टी की मोहताज नहीं है। इस कारण पेशवा को यानी ब्राह्मण शासन को धन्यवाद दिया जाना चाहिए कि उन्होंने पिछड़ों की काबिलियत को समझने का मौका मुगलों के बाद के दौर में सारे देश को दिया।

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