लखनऊ में मायावती की तोड़ी गई प्रतिमा की जगह आनन-फानन अखिलेश सरकार ने उनकी नई प्रतिमा लगवाकर बवाल खत्म कर दिया। हालांकि उनका यह फैसला बहुत लोगों को रास नहीं आया।
जीवित रहते हुए अपनी प्रतिमा लगवाना बेहद अटपटा लगता है पर मायावती को इसकी परवाह नहीं रही। उनके आचरण में शील का पुट ढूंढना बेहद मुश्किल है। वे अपने आपको बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर का अनुयायी कहती हैं लेकिन अगर बाबा साहेब की सुन्नत के पलड़े पर उनकी करनी को तौल दिया जाए तो साधारण आदमी से भी ज्यादा क्षुद्रताएं उन पर हावी नजर आएंगीं। बाबा साहेब में समतापूर्ण समाज बनाने की बड़ी तड़प थी। यह एक महान सिद्धांत है और इसके लिए साधना करने वाला व्यक्ति स्वयं ही महान गुणों के वशीभूत हो जाता है। बाबा साहेब के व्यक्तित्व में कदम-कदम पर यह स्थिति नजर आती है। सवर्ण जातियों ने उनका बड़ा तिरस्कार किया, लेकिन वे कभी बदले की आग से दग्ध नहीं हुए। उन्होंने स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व पर आधारित व्यवस्था की कल्पना को प्रस्तुत किया न कि दलित या शूद्रराज की। जाहिर है कि वे जिस व्यवस्था के हिमायती थे उसमें अगर दलितों का उत्थान निहित था तो सवर्णों के लिए अपनी क्षमता के मुताबिक उन्नति का अवसर प्राप्त करने में भी कहीं कोई रुकावट नहीं थी। पवित्र लक्ष्य होने के कारण अपने आचरण में सभ्यता के उच्च मूल्यों को लेकर सतर्कता बनाए रखना उनके लिए लाजिमी रहा, जिसकी वजह से कभी डॉ. अम्बेडकर ने यह घोषित नहीं किया कि वे दलितों के लिए कोई फरिश्ता हैं और न ही उनसे यह बेहयाई हो सकी कि वे अपने अनुयायियों से यह कहते कि मेरे जीवित रहते हुए या मरणोपरांत मेरी प्रतिमा स्थापित कराएं। दूसरी ओर मायावती को यह अहसास है कि उन्होंने कोई ऐसा काम नहीं किया जिससे लोग उनके बड़प्पन के वशीभूत होकर स्वतः उन्हें आदर दें, इसलिए वे आदर को भी छीनने का उपक्रम करती रहती हैं। अपने मंच पर किसी दूसरे के लिए कुर्सी न रखने देना, पार्टी की बैठकों में सहयोगी नेताओं को किसी अच्छे मशविरे के लिए भी न बोलने देना, यह सब बताता है कि हीन भावना की वजह से वे अपने में महानता को आरोपित करने के लिए किसी भी सीमा तक जाने को तत्पर रहती हैं। इस कारण सायास उनकी कोशिश रहती है कि उनके अनुयायी और पार्टी सहयोगी यह मान लेने को मजबूर हो जाएं कि वे उनके गुलाम की औकात में रहेंगे तभी उनके साथ उनकी गुजर हो पाएगी। जिंदा रहते हुए अपनी प्रतिमा लगवाने के लिए मायावती का उद्यत होना इस तरह की सोच का एक अनिवार्य पड़ाव रहा।
मायावती के इस कदम को लोगों ने वितृष्णा की दृष्टि से देखा तो कुछ गलत नहीं किया, लेकिन सिक्के के दूसरे पहलू को भी देखना होगा। इतिहास के वैज्ञानिक अध्ययन के क्रम में जिन सूत्रों को आविष्कृत किया गया है उनमें एक यह भी है कि परिस्थितियां किसी व्यक्ति को मसीहा के अवतार के रूप में गढ़ती हैं और कई बार ऐसा होता है कि परिस्थितियों द्वारा औसत से भी कम दर्जे का व्यक्ति इसके लिए चुन लिया जाता है। मायावती के साथ भी कुछ ऐसा ही है। वे प्रतीकों की राजनीति वाले इस देश में अपनी तमाम व्यक्तिगत खामियों के बावजूद दुर्घर्ष दलित शक्ति के रूप में स्थापित हुई हैं। उन्होंने उच्च जातियों को इस हद तक अपने सामने नतमस्तक होने के लिए मजबूर किया कि वे बसपा का टिकट लेने के लिए मुंहमांगी रकम चुकाने को तो तत्पर हो ही जाते हैं, साथ ही उन्हें बहिनजी के कदमों में नाक भी रगड़ते देखा जाता है। इससे न केवल मायावती का आत्मविश्वास बढ़ा है बल्कि पूरे दलित समुदाय का मनोबल सूचकांक आसमान पर पहुंचा है। उनकी यह उपलब्धि दलितों के लिए उनके द्वारा मांगे जा सकने वाले वरदान से भी बहुत ज्यादा है। अब जब वे सत्ता में नहीं हैं तो दलित स्वाभिमान के इस हद तक बुलंद होने से प्रतिशोध की आग में जल रहे वर्ग को उनकी प्रतिमा तोड़कर अपने दुश्मन का मान-मर्दन करने का संतोष मिल रहा है और इसी नीयत से उनकी प्रतिमा तोड़ी गई है। अगर मायावती के व्यक्तिगत अन्याय और अहंकार का विरोध करने के लिए यह काम हुआ होता तो इसमें कुछ आपत्ति न थी, लेकिन अव्यक्त तौर पर यह हमला समता के संघर्ष की ओर लक्षित है, जिससे इसे किसी भी तरह मान्य नहीं किया जा सकता। यही वजह है कि मायावती उनकी प्रतिमा टूटने की घटना के बाद राजनीतिक तौर पर और ज्यादा शक्तिशाली होती नजर आ रही हैं। पर समता का संघर्ष जब अपनी मंजिल पा लेगा तो मायावती के लिए हालात बदल जाएंगे। तब शायद कयामत के दिन जैसा इंसाफ उनका हो और अपनी क्षुद्रताओं के लिए इतिहास में उन्हें बुरी तरह दंडित होना पड़े।
This website uses cookie or similar technologies, to enhance your browsing experience and provide personalised recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy. OK
Read Comments