अरे अन्ना हजारे ने तो दिल तोड़ दिया। वे अनशन जारी रखते भले ही भूखे मर जाते, लेकिन उन्होंने बीच में ही अनशन खत्म कर नाक कटा ली और उस पर तुर्रा यह है कि राजनीतिक पार्टी का गठन कर चुनाव लड़ने की पापी घोषणा भी कर डाली। लगता है कि बुढ़ापे में अन्ना की मति मारी गई है। कुल मिलाकर अन्ना के समर्थन में खड़ी भावुक जमात की उनके नये कदम पर कुछ इसी तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आ रही हैं। हर समाज की अपनी ग्रंथियां होती हैं जिनकी गांठ वह वक्त से कितना भी सबक मिलने के बाद भी नहीं खोल पाता। भारतीय समाज भी कई मामलों में इसी तरह के कॉम्पलेक्स से ग्रसित है। वह हमेशा दोहरी दुनिया में जीता है। उसकी वैचारिकता नितांत वायवीय है, जो धरातल पर किसी क्रिया को नहीं उपजा सकती। वह ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या के आध्यात्मिक उद्घोष के विरुद्ध एक शब्द नहीं सुन सकता जबकि यथार्थ जगत में वह सांसारिक सत्य में सफल होने के लिए किसी भी आध्यात्मिक पवित्रता को रौंदने के लिए तत्पर रहता है। भारतीय दर्शन का सबसे आकर्षक पहलू यहां के लोगों के लिए यह है कि इसमें भौतिकता की बड़ी निंदा की गई है। दूसरी ओर यह भी सत्य है कि विद्या की देवी सरस्वती की अभ्यर्थना से जुड़ा कौन सा त्योहार है, यह लोगों को मालूम तक नहीं है और लक्ष्मी से जुड़ा दीपावली का त्योहार सबसे धूमधाम से मनाया जाता है। लक्ष्मी को रिझाने के लिए रोशनी और आतिशबाजी पर दिल खोलकर खर्चा किया जाता है। अब अगर भौतिकता इतनी ही हेय है तो सरस्वती और लक्ष्मी के बीच उसने इतना अंतर क्यों कर रखा है? इसका जवाब तलाशना मुश्किल काम है। अमिताभ बच्चन जी जब राजनीति में आए तो कोई उन्हें इस क्षेत्र में पदार्पण के लिए पीले चावल देने नहीं गया था, लेकिन जब उन्हें लगा कि राजनीति में दर्शक नहीं स्थितियों की भोक्ता जनता वोट करती है जो अपना मत व्यक्त करते समय बेहद निर्मम हो जाती है तो वे एक बार इलाहाबाद से जीतने के बाद अगली बार मतदाता के रुख को लेकर इतने विचलित हो गए कि उन्होंने राजनीति को सबसे बड़ी गंदगी करार दे दिया और इसके लिए उन्हें बेहद सराहा भी गया। यह दूसरी बात है कि राजनीतिज्ञों की कृपाकोर हासिल करने के लिए उन्होंने कितना भी घटिया हथकंडा इस्तेमाल करने से परहेज नहीं किया। मुलायम सिंह जी के उदाहरण से ही इस बात को अच्छी तरह समझा जा सकता है। मुलायम सिंह जी एक ओर तो विचारधारा से समाजवादी रहे जो रास-रंग की प्रेरक विलासिता से दूरी बनाए रखने की नसीहत सिखाती है। दूसरी ओर वे पहलवान आदमी रहे हैं जिसकी वजह से भी उन्होंने अपनी युवावस्था में फिल्में देखने का शौक पाला होगा, इसका कतई अनुमान नहीं किया जा सकता।
राजनीतिज्ञ के तौर पर मुलायम सिंह जी दूरदृष्टा हैं और किसी दूर की कौड़ी लाने की योजना के तहत ही अचानक वे अमिताभ बच्चन की अभिनय कला के इतने मुरीद हो गए कि उन्होंने अपने गांव में उनके नाम पर इंटर कॉलेज खुलवा दिया। अमिताभ ने भी फिल्मों के किसी स्थापित मर्मज्ञ द्वारा की गई अपने अभिनय की तारीफ पर इतना अभिमान न किया होगा जितना मुलायम सिंह जी से प्रमाणपत्र मिलने पर उन्हें हुआ और अपने से कुछ ही साल बड़े मुलायम सिंह जी को जब उन्होंने अपने पितृतुल्य घोषित किया तो पराकाष्ठा ही हो गई। इसके बाद वे मुलायम सिंह के लिए किस तरह इस्तेमाल हुए, यह बताने की जरूरत नहीं है। उनकी पत्नी जया भादुड़ी बच्चन का दूसरी बार समाजवादी पार्टी से राज्यसभा का सदस्य होना गुड़ खाएं गुलगुलों से परहेज जैसा है। अगर उनकी निगाह में राजनीति इतनी बड़ी गंदगी थी तो क्या उनकी पत्नी उनसे बिना पूछे राजनीतिक जिम्मेदारी संभालने के लिए तैयार हो गईं। वह भी तब जबकि राज्यसभा में विशेषाधिकारों का लाभ उठाने से ज्यादा वे कोई भूमिका नहीं निभा रही हैं, यानी मजबूरी न हो तो सचमुच में राजनीति जैसी जनोन्मुख विधा उनके लिए बोझ से अधिक कुछ नहीं है। काल्पनिक आदर्शवाद के कारण ही वास्तविकता को स्वीकारने में तकलीफ होने की कमजोरी ही है जो अन्ना के समर्थक पहली बार उनके द्वारा उठाए गए सटीक कदम को हजम नहीं कर पा रहे हैं।
भ्रष्टाचार अव्यवस्था में बदल चुकी हमारी व्यवस्था की विफलता का एक फोड़ा भर है, जिसे फोड़ देना इतना आसान नहीं है। जनलोकपाल अगर एक बार बहुत ही स्वच्छ और ईमानदार छवि का नियुक्त हो भी जाए तो यह कोई गारंटी नहीं है कि समाज में जो वातावरण बना हुआ है उसके रहते दूसरी बार वैसे ही धवल चरित्र का व्यक्ति हमें उस पद के लायक मिल जाए। गलत आदमी जिस दिन जनलोकपाल के पद पर बैठेगा उस दिन उसे निरंकुश अवसर उपलब्ध रहने से वह अनर्थ मचा देगा और लोग त्राहि-त्राहि कर उठेंगे। यदि वातावरण ठीक हो जाए तो अभी भ्रष्टाचार रोकने के जो संस्थागत उपाय हैं वे ही शत-प्रतिशत कारगर हो सकते हैं। यह काम वैकल्पिक राजनीति को सामने लाने से ही सम्भव है। जयप्रकाश जी के सम्पूर्ण क्रांति के दर्शन में स्वच्छ व्यवस्था के निर्माण की योजना निहित थी। जनता पार्टी के घोषणापत्र में जब सम्पूर्ण क्रांति का अक्स उभरा तो उसमें दल-बदल विरोधी कानून पारित कराने, मतदाताओं को जनप्रतिनिधियों को रिकॉल करने का अधिकार देने सहित कई क्रांतिकारी संकल्पों को जोड़ा गया। अगर वह घोषणापत्र क्रियान्वित हो जाता तो देश में काफी कुछ सुधार हो सकता था, लेकिन जब घोषणाओं के अनुरूप कानून बनाने की बात आई तो मधु लिमये जैसे खांटी समाजवादियों ने तस्वीर के तमाम दूसरे पहलुओं की ओर ध्यान दिलाया और ऐसे में धर्मसंकट की स्थितियां बनीं। फिर उठाई गई आपत्तियों का निराकरण कर त्रुटिरहित विधेयक बनाने की कवायद भी शुरू हुई, लेकिन तब तक जनता पार्टी का पतन हो गया। आज फिर से देश को वैकल्पिक नीतियों की जरूरत है, जिसमें उपभोग और व्यापारिक लाभ को सर्वोच्च लक्ष्य मानने वाली नई आर्थिक नीतियों को पूरी तरह पलटने की मंशा जुड़ी हो क्योंकि अगर असीम उपभोग और ऐश्वर्य की आकांक्षा को पनपाना बंद नहीं किया जाएगा तो भ्रष्टाचार का कभी अंत नहीं हो सकेगा। राजनीतिक तौर-तरीकों से जब परिवर्तन की लड़ाई लड़ी जाती है तो उसमें सतही भावुकता नहीं होती बल्कि परिपक्व राजनीतिज्ञ व्यापक कार्यक्रम बनाते हैं जैसा गांधी जी ने अंग्रेजों से लड़ाई लड़ते हुए मलिन बस्तियों में सफाई, चरखा कातने आदि जैसे क्रियाकलापों के जरिए किया था। लोहिया जी ने भी जेल के साथ फावड़ा की बात की थी। अंग्रेजी हटाओ का नारा दिया था। अधिकतम और न्यूनतम आय का अनुपात तय करने और दाम बांधने के नारे को अपने अभियान से जोड़ा था। अन्ना को भी भ्रष्टाचार के सर्वांगीण प्रतिकार के लिए ऐसे ही बहुआयामी कार्यक्रम बनाने होंगे और इसके लिए राजनीतिक तंत्र की जरूरत लाजिमी है। हालांकि मुझ जैसे लोग अन्ना राजनीतिक पार्टी बनाकर इन अपेक्षाओं को पूरा कर पाएंगे, इसे लेकर संदेहग्रस्त भी हैं, लेकिन मेरा स्पष्ट मत है कि अन्ना ने सही दिशा अख्तियार की है, जिसकी वजह से मेरी शुभकामनाएं उनके साथ हैं। जहां तक कांग्रेस पार्टी और सरकार द्वारा उनके नये कदम पर तंज करने का प्रश्न है, यह लोग राजनीति में पेशेवर हैं और तदनुरूप कुटिलता में प्रवीण भी हैं, जिससे परिवर्तन की ईमानदार कोशिश करने वालों के लिए उनकी टीका-टिप्पणी कोई अर्थ नहीं रखती।
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