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हर धर्म के लिए जरूरी है जेहाद

बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
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इस्लामिक कैलेंडर के मुताबिक रमजान का महीना अंतिम दौर में है और इस महीने का आज अंतिम जुमा है। पाकीजगी के इस महीने में मुस्लिम भाइयों ने रोजा रखकर उसूलों के लिए तकलीफ झेलने की प्रेक्टिस की। इस्लाम आडम्बर और पाखंड से अलग मजहब है। इस कारण इसके जितने रीति-रिवाज हैं उनमें ढकोसला नहीं एक उद्देश्य छिपा रहता है। रमजान के महीने में मुसलमानों को तमाम पाबंदियों का ध्यान रखना पड़ता है। मसलन कोई मुसलमान इस महीने में गाली नहीं दे सकता। अगर उसे गालियां देने की आदत पड़ गई है और कभी भूल-चूक से उसके मुंह से इस महीने में गाली निकल भी जाती है तो अंदर ही अंदर उसे बेहद ग्लानि महसूस होती है। जैसे बाकी लोगों में इंसानी कमजोरियां हावी रहती हैं। वैसे ही मुसलमान भी लोभ, गुस्सा, दूसरे के प्रति नफरत, प्रतिहिंसा जैसी कमजोरियों से परे नहीं होते, लेकिन इस महीने में हर मुसलमान यह कोशिश करता है कि वह कितने भी फायदे के लिए किसी के साथ बेईमानी करने से बचे। इस्लाम में जिन बातों को हराम कहा गया है उनमें से कोई चीज कम से कम इस महीने में तो उसके द्वारा न हो। इस कारण यह महीना केवल अल्फाजी तौर पर पाकीजगी का महीना नहीं है बल्कि सचमुच यह पाकीजगी का ही महीना है, जिससे बाकी महीनों के लिए भी मुसलमानों की जीवनशैली बदलती है।
मैं यह स्पष्ट कर दूं कि न तो मैंने आज तक चुनाव लड़ा है न ही चुनाव लड़ने का मेरा कोई इरादा है। न ही मेरी ऐसी जगह दुकान खुली है जहां मुसलमान मेरे ग्राहक हों और इन भौतिक कारणों की वजह से मुझे उनके तुष्टिकरण की जरूरत पड़े। मैं भी उन लोगों से जो इन बातों के लिखे जाने के कारण मुझसे नाराज हो सकते हैं, पूरी तरह सहमत हूं कि मुसलमानों में भी बदमाश और मक्कार लोगों की कोई कमी नहीं है, लेकिन मैं उनसे इस बात में सहमत नहीं हो सकता कि इस्लाम की शिक्षाओं में कोई ऐसा दोष है जिसे उनकी बुराइयों के लिए जिम्मेदार ठहराया जाए। मैं इस्लाम कबूल करने नहीं जा रहा हूं क्योंकि कुल मिलाकर मैं किसी धार्मिक बंदिश में बंधने की बजाय अधार्मिक बने रहना पसंद करता हूं, लेकिन ऐसा नहीं है कि मैं धर्म की उपयोगिता नहीं मानता।
धर्म को लेकर मेरे अंदर जो विम्ब उभरता है उसकी कसौटी पर जब परखता हूं तो इस्लाम की शिक्षाएं मुझे काफी ईमानदार लगती हैं। हर धर्म हिंसा के विरुद्ध उपदेश देता है, लेकिन हिंसा क्या है, इसकी सटीक पहचान इस्लाम ने जिस तरह की है वैसा दूसरे धर्मों में देखने को नहीं मिलता। आप मांसाहार न करें, यह कोई हिंसा के खिलाफ होने का सर्टिफिकेट नहीं है। जहां मांस भक्षण ही जीवन का आधार हो वहां यह लागू नहीं हो सकता। मांसाहार न करना अहिंसा की रूपगत और जड़ परिभाषा है। जब मैं मुस्लिम दोस्तों के यहां जाता हूं। खासतौर से ईद के दिन, तो मैं देखता हूं कि वे इस बात से बहुत डरे हुए होते हैं कि उनका गरीब पड़ोसी जो सादा रोटी के लिए भी तरसता हो उसकी भावनाओं की अनदेखी कर ईद में किस्म-किस्म के पकवान बनवाने की गुस्ताखी उससे न हो जाए। इस्लाम में इस बात की कठोर मुमानियत की गई है कि मोमिन तड़क-भड़क जिसे आजकल ग्लैमर कहते हैं, के मोहपाश में कदापि न बंधें। हिंदुस्तानी समाज में जो कुरीतियां व्याप्त हैं, यहां के मुसलमान इस समाज का अंग होने के नाते उनसे अछूते नहीं रह सकते, यह अलग बात है लेकिन कई बार ऐसा हुआ है जब काजियों ने घोषणा की है कि जिस शादी में आतिशबाजी चलेगी, हजारों लोगों की दावत होगी, ढोल बजेंगे और बढ़ा-चढ़ाकर रोशनी होगी, उसमें वे निकाह पढ़ाने नहीं जाएंगे। इस्लाम की शिक्षाएं यही कहती हैं और इस्लाम ने इसका प्रावधान इसलिए किया है कि व्यवहार में उसके प्रवर्तक ने महसूस किया कि अगर आप दौलतमंद होने की वजह से दिखावा करते हैं तो गरीब की भावनाएं आहत होती हैं और वह आह निकालने को मजबूर होता है।
गरीब पड़ोसी कहता है कि काश मेरे पास भी इतनी दौलत होती तो मैं भी अपने बेटे या बेटी की शादी इतनी ही धूमधाम से कर पाता। उसका यह दर्द, यह अफसोस उसके साथ बहुत बड़ी हिंसा है और यही सटीक हिंसा है जिसे इस्लाम ने समझा और गूढ़ ज्ञान देने की बजाय असल गलती को अपनी शिक्षाओं में पूरी ताकत से रोका है।
इस्लाम की आज की दुनिया में जिस बात के कारण आलोचना हो रही है वह है जेहाद। मैं समझता हूं कि अगर इस्लाम का कोई सार-तत्व है तो वह जेहाद ही है। इस्लाम में ही नहीं जेहाद की व्यवस्था तो हर धर्म में होनी चाहिए। इसके बिना बाकी धर्म बेपेंदी का लोटा होकर रह गए हैं। हर कौम और हर व्यक्ति को समझौता करने पड़ते हैं, लेकिन कुछ तो बुनियादी बातें तय होनी चाहिए, जिनके आगे समझौता मंजूर न हो। अगर उसके लिए मजबूर किया जाए तो या तो मार डालो या मर जाओ, इसमें गलत क्या है? जेहादी जिन बातों को लेकर खून-खराबा कर रहे हैं वे इस्लाम के माफिक नहीं हैं, लेकिन ईमान के खिलाफ काम करने को मजबूर करना यह बहुत गलत है और इसके खिलाफ जेहादी बगावत एकदम जायज है। इस्लाम ने जुआ को हराम घोषित किया है। क्या बाकी मजहब जुआ को हलाल मानते हैं? जवाब है कि नहीं, तो फिर क्या मजबूरी है कि शेयर बाजार से लेकर सट्टा बाजार तक जो जुएबाजी का दूसरा रूप हैं, उसकी व्यवस्था हम ढोयें।
कोई तार्किक आधार नहीं है। जब खूब गेहूं पैदा हुआ हो तब भी उसकी कीमत आसमान पर पहुंच जाए। साफ-सुथरा व्यापार करने वाले तबाह हो जाएं और वायदा बाजार का सट्टा खेलने वाले मौज मारें। आखिर किस नैतिकता से हम इसको हजम कर रहे हैं। इसी कारण न कि हमने जेहाद का नाम नहीं सुना। अगर सुना होता तो नैतिकता विरोधी और पूरी तरह अराजक व पापमय वायदा बाजार की व्यवस्था के खिलाफ जिससे बहुसंख्यक अवाम को त्रस्त होना पड़ रहा है, उखाड़ फेंकने के लिए हर कोई सन्नद्ध हो जाता। प्रतिबद्धताएं मंच और किताबों की शोभा नहीं होतीं बल्कि उनके लिए जीना और मरना पड़ता है। जो कौमें ऐसा करना नहीं सीखतीं वे पाखंडी हैं। उनकी प्रतिबद्धताएं प्रवंचना के सिवाय कुछ नहीं हैं। इस्लाम ने अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में भी दखल दिया है जबकि मजहब इससे सामान्य तौर पर परहेज करते हैं। यह दखल ब्याज को हराम घोषित करने के रूप में प्रस्तुत हुआ है और ब्याज को जीविका का आधार बनाने वाले लोग जिस तरह तंगदिल होते हैं उससे वे न केवल अपने जीवन को अभिशाप बना लेते हैं बल्कि पूरे समाज में अभिशाप का एक संसार रच लेते हैं। मुझे याद है अपने शहर के कई करोड़ के मालिक एक व्यक्ति की, जिसके यहां पुश्तैनी तौर पर ब्याज बांटने का धंधा होता था। वह इतना कृपण हो गया कि उसने अपनी बहनों का विवाह इसलिए नहीं होने दिया क्योंकि वह खर्च नहीं कर सकता था। रुपया तभी निकाल सकता था जब ब्याज के रूप में भारी मुनाफे के साथ उसकी वापसी हो। उसकी बहनें सांसारिक सुख से वंचित रहकर असमय बूढ़ी हो गईं और समय के पहले मौत ने उनको डस लिया। यही नहीं इतना धन होते हुए भी खुद उसने कभी न तो अच्छा खाना खाया न अच्छे कपड़े पहन पाया न कोई ढंग का शौक कर पाया। ब्याज से बनी मनोवृत्ति का नतीजा ही था कि उसे सजायाफ्ता जैसी जिंदगी जीनी पड़ी
आप ढूंढेंगे तो आपको अपने आसपास ऐसे बहुत उदाहरण मिल जाएंगे, लेकिन इस्लाम की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि इसके परवर्ती कर्णधारों ने इसे दीनी तालीम तक सीमित कर दिया। दुनिया से कटे हुए लोगों के हाथ में जब इस्लामिक सिद्धांतों की व्याख्या का अधिकार पहुंचा तो उन्होंने एक महान दर्शन को अपनी कूपमंडूक मानसिकता की वजह से संकीर्णता का शिकार बना दिया। इस्लामिक समाज में पिछड़ेपन की वजह से ही अफवाहें बहुत तेजी से असर करती हैं और तमाम मुसलमान उन चिंताओं से दुबले होते रहते हैं जिनका वास्तविकता से कोई सम्बंध नहीं है। उनका गलत इस्तेमाल किया जाता है। सबसे बड़ा गुनाह वे यह करते हैं कि उनके जरिए इस्लाम की गलत तस्वीर बाकी दुनिया के सामने प्रस्तुत होती है, जिससे इस्लाम के दुश्मनों को उसके खिलाफ अपने दुष्प्रचार को मजबूत करने में पूरी मदद मिलती है, लेकिन रमजान के इस महीने के बीतते मैं सच्चे मुसलमानों से कहना चाहता हूं कि बाजारवाद के इस इंसानियत विरोधी दौर में सारी दुनिया त्राण के लिए आपकी ओर टकटकी लगा रही है क्योंकि आपके पास पैगम्बर साहब द्वारा दी गई जेहाद की नसीहत है।
ऐसी व्यवस्था जो ईमान के विरोध में है उसे मिटा दो या मिट जाओ, लेकिन यह ध्यान रखो कि यह काम इंसानियत का परचम और ऊंचा लहराने के लिए हो, इंसानियत को मिटाने के लिए नहीं क्योंकि पैगम्बर साहब के जरिए खुदा का संदेश इंसानियत और अमन को मजबूत करने के पक्ष में इसके अलावा कुछ नहीं।

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