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तंत्र साधना केंद्रः रक्तदंतिका माई मंदिर

बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
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रक्तदंतिका मंदिर का दृश्य।
रक्तदंतिका मंदिर का दृश्य।
लंकेश्वर महाराज की प्रतिमा।
लंकेश्वर महाराज की प्रतिमा।

जनपद जालौन में झांसी के समीपवर्ती बेतवा के घने बीहड़ों में स्थित रक्तदंतिका मंदिर तांत्रिक साधना का मुख्य केंद्र माना जाता है। एक समय ता जब यहां देवी को प्रसन्न करने के लिए सिद्ध तांत्रिक बलि चढ़ाते थे। इसी कारण रात में मंदिर परिसर में किसी को ठहरने की इजाजत नहीं थी।
कोटरा क्षेत्र में सैदनगर के पास रक्तदंतिका मंदिर की ख्याति रहस्यपूर्ण तांत्रिक साधना केंद्र के रूप में रही है। इस मंदिर में पहले कोई प्रतिमा नहीं थी। इसकी बजाय शुरू से दो रक्तिम शिलाएं उत्कीर्ण हैं, जिनके बारे में कहा जाता है कि ये देवी के दांत हैं। किंवदंती है कि इन दांतों को धो भी दें तो कुछ देर बाद उनमें अपने आप रक्त निकल आएगा।
मंदिर के आसपास कदंब, अशोक, धौंकड़ी और पलास के पेड़ों के जंगल का सुरम्य परिदृश्य है और नीचे बेतवा की अथाह जलराशि प्रवाहित होती है। वहां तक पहुंचने के लिए १०३ सीढ़ियां बनी हुई हैं। बेतवा के दूसरे किनारे पर झांसी जनपद का बेतर गांव बसा है। मंदिर की देखभाल करने वाले बाबूराम चतुर्वेदी ने बताया कि दुर्गा सप्तशती के मूर्ति रहस्य कंड में रक्तदंतिका देवी की वंदना के तीन श्लोक हैं, जिनमें देवी के स्वरूप का वर्णन करते हुए लिखा गया है कि उनके नेत्र, केश, दंत, वस्त्र, आभूषण सभी रक्तिम हैं। उन्होंने स्वीकार किया कि पहले यहां देवी पर बलि चढ़ती थी, लेकिन अब नारियल फोड़कर बलि दान की प्रतीकात्मकता पूरी की जाती है।
गूढ़ तंत्र साधना के कारण ही पहले आम श्रद्धालु यहां आने से डरते थे। इसके बाद दक्षिण भारत के एक साधु लंकाजी महाराज ने यहां लगभग २५ साल तक प्रवास किया और इस दौरान उन्होंने आसपास के जनजीवन को मंदिर से जोड़ा। मंदिर के पुजारी भगवानदास फलाहारी ने बताया कि लंकाजी महाराज सिद्धपुरुष थे। उन्होंने मंदिर को काफी सुसज्जित किया। उनके समय यहां आयोजित होने वाला मकर संक्रांति मेला बहुत धूमधाम से होता था जिसमें विशाल दंगल भी कराया जाता था. लंकाजी महाराज की प्रतिमा भी मंदिर प्रांगण में स्थित है। हालांकि अब मंदिर में कई लोग नवरात्र के समय रात्रि प्रवास भी करते हैं, लेकिन पार्श्व में बने दूसरे मंदिरों में रहकर। आज भी रक्तदंतिका माई के गर्भगृह में रात में कोई नहीं जाता।

भगवानदास फलाहारी और बाबूराम चतुर्वेदी।
भगवानदास फलाहारी और बाबूराम चतुर्वेदी।

मुर्दा प्रवाह से निर्मलता पर चोट
रक्तदंतिका मंदिर के नीचे बेतवा में मुर्दा प्रवाह ने अब कुरीति का रूप ले लिया है। इससे नदी की निर्मलता प्रभावित होती है। बाबूराम चतुर्वेदी का कहना है कि किनारे पड़े मुर्दा को जानवरों द्वारा घसीटने से वीभत्स दृश्य उत्पन्न होता है और दुर्गंध भी फैलती है।

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