परिवर्तन प्रकृति का नियम है लेकिन अगर कोई सामाजिक परिवर्तन मानव की सकारात्मक प्रवृत्ति के विरुद्ध होता है तो वह स्वीकार्य नहीं हो सकता। ऐसे परिवर्तन को लेकर सतर्क होना इसलिये जरूरी है कि वह भविष्य में समाज के लिये अनिष्टकारी सिद्ध होगा। बाजार को मैं पहले भी शैतान के रूप में देखता आया हूं जिसने हर क्षेत्र में विध्वंसक परिवर्तनों को अंजाम दिया है।
अब शिक्षा के क्षेत्र में भी इसके दखल से जो स्थितियां पैदा हुयी हैं उससे नये सिरे से इस आशंका की पुष्टि होती है। वाजपेयी सरकार के समय नयी शिक्षा व्यवस्था का स्वरूप तय करने के लिये अंबानी बजाज कमेटी का गठन किया गया था तभी तय हो गया था कि शिक्षा जिससे नयी पीढ़ी के संस्कारों का निर्माण होता है उसकी दशा क्या होगी। वैदिक काल में जब गुरुकुलों के रूप में शिक्षा के केंद्रों की शुरूआत हुयी थी उस समय उनमें यह चिंतन नहीं किया जाता था कि जो बच्चे पढ़ रहे हैं उन्हें भावी जीवन में मजबूत जीविका के लिये तैयार किया जाये। शिक्षा का मूल उद्देश्य ज्ञान पिपासा को शांत करना है और वैदिक काल की शिक्षा में इसी उद्देश्य की पूर्ति मुख्य ध्येय थी।
उस समय कैसे मनुष्य इस जगत में आया, जीवन के अवसान के बाद वह कहां जाता है, नक्षत्र मंडल का निर्माण किसने किया, किसके इंगित पर नदियां बहती हैं, वृक्ष झूमते हैं जैसी दार्शनिक, आध्यात्मिक जिज्ञासाओं के समाधान के लिये सत्य का निष्कर्षण करने में मनुष्य को सक्षम बनाने का काम शिक्षा करती थी। लार्ड मैकाले जिसकी शिक्षा नीति की आलोचना आजाद हिंदुस्तान में बहुत हुयी उसमें सबसे बड़ी बुराई यह थी कि उसने सबसे पहले इस देश में शिक्षा के इस उद्देश्य को भटकाया। प्रशासन चलाने के लिये अंग्रेजों को क्लर्कों की फौज चाहिये जबकि उस जमाने में अव्वल तो पढऩे का काम केवल वे चुनिंदा लोग करते थे जो जन्मजात विद्वान होते थे और पढऩे-लिखने के बाद प्रशासनिक नौकरी करने की बजाय उन्हें किसी रचनात्मक विधा में संलग्न होना ज्यादा भाता था।
लोगों की इस विचारधारा को मोड़कर सरकार की नौकरी करने के लिये प्रेरित करने को मैकाले ने शिक्षा नीति के माध्यम से बड़ी मशक्कत की। उसने लोगों के मस्तिष्क में यह बात बैठा दी कि पढ़ाई ऐसी होनी चाहिये जो नौकरी दिलाने में मदद करे ताकि वास्तविक जीवन में परिवार के भरण-पोषण की जो समस्या व्यक्ति के सामने आती है उससे वह निश्चिंत हो जाये। अपनी रोजी-रोटी को पढ़ाई का उद्देश्य बना लेने के समाज में बड़े नुकसान हुये लेकिन मैकाले के बाद भी शिक्षा में सृजनात्मकता के तत्व बचे रह गये थे और आजादी के बहुत बाद तक ऐसे आईएएस (शुरू में आईसीएस), आईपीएस अधिकारी आते रहे जिन्होंने अंग्रेजों की तरह ही नौकरी करने के साथ ही प्रयास किया कि उनके पद की शक्तियों से पीडि़तों का ज्यादा से ज्यादा भला हो।
प्रशासन चलाने के साथ-साथ कविता करना, कहानी लिखना, मीमांसा लिखना, पर्यटन, चित्रकारी सहित विविध पहलुओं में निपुणता दिखाना भी उनकी महत्वाकांक्षा में शामिल रहता था। उनकी कोशिश होती थी कि जहां पदस्थ हों उस क्षेत्र के लिये एक ऐसा काम तबादले तक कर जायें जिसे दशकों तक याद रखा जा सके और जिस जिले में रहे हों उसके आधुनिकीकरण के शिल्पी के रूप में इतिहास उन्हें मान्यता दे सके। अब यह सारे उद्देश्य शिक्षा के जरिये गौण कर दिये गये हैं। कैरियर का दूसरा अर्थ है असामाजिकता जो आज की शिक्षा नीति का सर्वोच्च उद्देश्य है। नौनिहाल के मन में बचपन से ही ऐसा बीजारोपण कर दिया जाता है कि वह अपनी तरक्की को जीवन का सबसे बड़ा उद्देश्य मानने लगे। आईआईटी और आईएमए की पढ़ाई खत्म होते-होते कैंपस सिलेक्शन का अवसर आने पर आज के छात्र को यह नहीं कचोटता कि वह अमेरिका या किसी दूसरे विकसित देश का पैकेज स्वीकार कर सिर्फ पैसे के लिये मातृभूमि से मुंह क्यों मोड़े।
यहां तक कि जिन मां-बाप ने अपने जीवन की पूरी कमाई उसकी पढ़ाई का खर्चा उठाने में होम दी हो उसके विदेश में बस जाने के बाद उनका क्या होगा, यह चिंतायें भी उसकी बाधा साबित नहीं हो पातीं। यदि वह किसी मल्टीनेशनल कंपनी के कैंपस सिलेक्शन में नहीं चुन पाता तो वह भारतीय प्रशासनिक सेवा की प्रतियोगी परीक्षा में भाग्य आजमाइश करता है और वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में पढ़ाई ज्ञान से ज्यादा ट्रिक का रूप ले चुकी है। ऐसी हालत में सफल होने के टिप्स के सहारे सीमित तैयारियों से जब वह अपने लक्षित मुकाम को हासिल कर लेता है तो उसकी कार्यशैली में आत्मकेंद्रित कैरियरिज्म का प्रभाव स्पष्ट प्रतिबिंबित दिखायी देता है। आजादी के कई दशकों तक जिस भारतीय नौकरशाही को लॉ ऑफ रूल के लिये इस कारण स्टील फ्रेमवर्क कहा जाता था कि राजनीतिक या कैसे भी दबाव में तत्कालीन अफसर नियम के विरुद्ध किसी कार्य को करना गवारा कर ही नहीं सकते थे।
आज आश्चर्य यह है कि वे ही नेताओं को नियमों को लंगड़ा कर फायदा कमाने के हथकंडे सिखाते हैं। मीडिया में प्रस्तुत ऐसा होता है जैसे आईएएस और अन्य संवर्ग के अधिकारी हरिश्चंद्र के अवतार हों जिन्हें नेताओं के कारण सही कार्य करने का अवसर नहीं मिल पा रहा जबकि सत्य यह है कि गलत कार्यों की पहल आज अफसरशाही की ओर से हो रही है। आज भी अधिकारियों की चरित्र पंजिका में समाज के लिये विशिष्ट कार्य या प्रोजेक्ट चलाने के अतिरिक्त अंकों की व्यवस्था का रिवाज है लेकिन आज कोई अधिकारी इसमें उत्सुक नहीं दिखता।
कोई डीएम यह नहीं सोचता कि वह जिस जिले में तैनात है वहां के सबसे विशाल और ऐतिहासिक पौराणिक महत्व के तालाब का सौंदर्यीकरण कराकर अपने यश को समृद्ध करे। कोई डीएम यह नहीं सोचता कि स्वर्ण जयंती ग्रामीण स्वरोजगार योजना जैसे कार्यक्रमों के माध्यम से कुछ ऐसे रोलमाडल तैयार करे जिससे योजना को सफल करने की दिशा मिल सके। शहर में चरमरायी ट्रैफिक व्यवस्था को सुधारने की सार्थक कार्ययोजना बनाने के लिये उसकी इच्छाशक्ति काम नहीं करती। वह ऐसी सोच को एक वायरस मानता है जो पैसे की अनंत भूख को तृप्त करने की उसकी साधना में बाधा डालता है। व्यवस्था के कर्ताधर्ता कहे जाने वाले लोग इस मानसिकता के चलते व्यवस्था के सबसे बड़े दुश्मन बन चुके हैं। पूरा समाज बदलाव की इस हवा से त्रस्त है लेकिन इसमें सुधार तब तक नहीं हो सकता जब तक कि शिक्षा व्यवस्था से कैरियरिज्म जैसी कैंसर की गांठ को निकालकर नहीं फेंका जायेगा।
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