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प्रधान न्यायाधीश का आइना

बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
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प्रधान न्यायाधीश एचएस कपाड़िया ने न्यायिक सक्रियता के अतिवाद पर टिप्पणियां करके न्यायपालिका को अपने गिरेबान में झांकने के लिए मजबूर कर दिया है। न्यायिक सक्रियता के शुरुआती दौर से ही इसका औचित्य विवादों के घेरे में रहा है, लेकिन तब यह शासन-प्रशासन की जड़ता को भंग कर उसमें लहर और लय के संचालन का निमित्त बन रहा था, जिससे लोगों में इसके लिए स्वागत भाव था, लेकिन अब स्थितियां बदल चुकी हैं। न्यायमूर्ति कपाड़िया ठीक ही कहा है कि न्यायाधीशों को खुद से यह प्रश्न पूछना चाहिए कि क्या उनके फैसले लागू करने योग्य हैं? न्यायाधीशों को इन्हें व्यवहारिकता की कसौटी पर परखना चाहिए। न्यायपालिका की चूक के इसे लेकर कई उदाहरण गिनाए जा सकते हैं। उत्तर प्रदेश में कुछ वर्ष पहले किसी भी वाहन पर नेमप्लेट और हूटर न लगने देने के निर्देश प्रदेश शासन को हाईकोर्ट ने जारी किए थे। इसका क्या हश्र हुआ, सबके सामने है। इसी तरह प्रत्येक सार्वजनिक तालाब को उसके पुराने स्वरूप में बहाल करने के उच्चतम और उच्च न्यायालय के आदेशों की धज्जियां प्रशासन ने उड़ा दीं और किसी एसडीएम तक पर आज तक कार्रवाई नहीं हो पाई। अतिक्रमण कर बनाए गए धार्मिक स्थलों को हटाने का फैसला भी मजाक बनकर रह गया।
न्याय पालिका के हस्तक्षेप को पहले बहुत कारगर माना जाता था, लेकिन अव्यवहारिक आदेश जारी करने का नतीजा यह हुआ है कि लोग न्यायिक फैसलों को थोथा चना मानने लगे हैं। संविधान में शक्तियों के विकेंद्रीकरण का सिद्धांत प्रतिपादित किया गया है और न्याय पालिका इससे परे नहीं है। न्यायमूर्ति कपाड़िया ने इसी ओर इंगित करते हुए न्याय पालिका को कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में अतिलंघन न करने की सलाह देकर नेक काम किया है। समाज के विभिन्न क्षेत्रों में जो गिरावट आई है उससे न्याय पालिका अछूती नहीं है। दूसरे पुरानी नैतिक मान्यताएं टूट रही हैं और काल-परिस्थिति के सापेक्ष नई मान्यताएं गढ़ी जा रही हैं, जिसकी वजह से वर्तमान दौर नैतिक अराजकता का दौर है। ऐसा सोचना भी पूरी तरह गलत है। नैतिक व्यवस्था के बिना कोई व्यवस्था चल ही नहीं सकती, इसलिए वर्तमान व्यवस्था भी एक संहिता और अनुशासन का निर्माण अपने लिए कर रही है जिसे हमें सूक्ष्मदृष्टा बनकर देखना होगा।
देश में गठबंधन सरकारों का युग है। राज्य के मुखिया राजनीतिक पृष्ठभूमि के लोगों की बजाय विशेषज्ञ हो रहे हैं। इन हालातों में न्याय पालिका राजनीतिक तंत्र पर हावी हो सकती है जबकि इंदिरा गांधी के जमाने में न्याय पालिका ने मौलिक अधिकारों तक के मामले में राजनीतिक तंत्र के आगे घुटने टेक दिए थे। उसी दौर में न्याय पालिका ने ही संसद की सर्वोच्चता के सिद्धांत को स्थापित किया था। आज राजनीतिक तंत्र को कमजोर पाकर न्याय पालिका को किसी तरह का मुगालता पालने की जरूरत नहीं है। अपने को दूध का धुला साबित करना और राजनीतिक तंत्र को पूरी तरह भ्रष्ट व अकर्मण्य ठहराना स्वच्छ सोच का प्रतीक नहीं कहा जा सकता। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने राज्य विधानसभा में न्याय पालिका के लिए जो टिप्पणी की उससे राजनीतिज्ञों में न्याय पालिका के प्रति असंतोष के विस्फोट की एक बानगी उजागर हुई थी।
हवा के इस रुख का अंदाजा करके ही प्रधान न्यायाधीश को अपने सहयोगियों को सद्बुद्धि कायम करने का इशारा देना पड़ा है। दरअसल जब पूरे कुएं में भांग पड़ी हो तो न्यायाधीश उससे अलग नहीं हो सकते। आधुनिक लोकतंत्र अवतारवाद के सिद्धांत में विश्वास नहीं रखता। उसकी मान्यता है कि सिस्टम में आई गड़बड़ी के लिए पापों का घड़ा भर जाने पर भगवान के प्रकट होने की तर्ज पर कोई मसीहा सुधारने को नहीं आएगा। जो जिसका काम है वह करे तभी स्थिति में सुधार आएगा। प्रधान न्यायाधीश ने ठीक ही कहा है कि देश की विभिन्न अदालतों में लम्बित साढ़े तीन करोड़ मुकदमों की संख्या घटाने में न्यायिक सक्रियता प्रभावी भूमिका अदा कर सके तो कानून के शासन को काफी हद तक सुदृढ़ किया जा सकता है, जो न्याय पालिका की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है। जहां तक सत्ता संचालन के लिए सही नीतियां बनाने का सवाल है, कोई संवैधानिक संस्थान मसीहा बनकर मतदाताओं पर अपने निर्णय को न थोपे तो वे अपनी शक्ति को पहचानेंगे और इस मामले में राजनीतिज्ञों को सुधारने का काम फलदायी आत्मविश्वास के साथ कर सकेंगे।

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