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देशद्रोह का नया चेहरा

बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
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तात्विक मामले में भारतीय समाज गहरे असमंजस में उलझा नजर आता है। दरअसल उसने सिद्धांत और व्यवहार की एकरूपता को कभी अनिवार्य नहीं समझा और आत्मप्रवंचना में जीते रहना उसकी सबसे बड़ी कमजोरी बन गयी। महत्वपूर्ण मुद्दों पर हमारी परिभाषायें पूरी तरह अमूर्त हैं और जब उन्हें कसौटी पर परखने की बारी आती है तो हम हतप्रभ से हो जाते हैं।

यहां चर्चा का मुद्दा है राष्ट्रवाद। चूंकि बीजेपी को यह मुद्दा बेहद भाता है जिसकी वजह से इस चर्चा का सिरा हम राष्ट्रवाद की ठेकेदार इस पार्टी के एक समय तक सर्वोच्च थिंक टैंक और नेता रहे लालकृष्ण आडवाणी से शुरू करेंगे। लालकृष्ण आडवाणी एक ओर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात करते हैं दूसरी ओर उनकी सारी बातों का सार जो निकलता है उसमें अमेरिका उनकी निगाह में राष्ट्रवाद का सर्वोच्च मॉडल प्रतीत होता है। हालांकि दोनों चीजों में बड़ा विरोधाभास है। अमेरिका का वर्तमान शासक वर्ग कुछ शताब्दी पहले तक यहां के लिये अजनबी था और संस्कृति का मसला जब तक किसी कौम का इतिहास सहस्रताब्दी तक विस्तृत न हो गले नहीं उतरता तो अमेरिकन राष्ट्रवाद का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से न कोई संबंध है न हो सकता है।

अमेरिका संवैधानिक राष्ट्रवाद का प्रणेता है और अगर आडवाणी ऐसे राष्ट्रवाद के हिमायती हैं तो उन्हें सबसे पहले यह स्वीकार करना होगा कि इस राष्ट्रवाद की पहली शर्त है कि एक संविधान, एक निशान, एक राष्ट्रगान, एक सेना और एक कानून में हर देशवासी का विश्वास जो स्वयं आडवाणी को नहीं है वरना उन्होंने नयी संविधान सभा गठित कराने जैसा प्रयास संविधान समीक्षा समिति का अपनी सरकार के कार्यकाल में गठन कर न किया होता। आडवाणी जैसे लोगों और इस देश में दूसरों पर वर्चस्व को अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानने वाले एक बड़े बुद्धिजीवी वर्ग की निगाह में संविधान का सबसे बड़ा दोष समता के मूल्यों के प्रति उसकी अडिग आस्था और समर्पण है। इस मामले में उन्हें नकार की प्रवृत्ति जन्म के साथ संस्कारों की घुट्टी के रूप में मिली है। जब तक इससे लोग नहीं उबरेंगे तब तक उन्हें राष्ट्रवादी होने का प्रमाण दिया जाना कदापि संभव नहीं है। बहरहाल बात हो रही है आईपीसी से जुड़े मामलों में कानून की बजाय जातिगत भावनात्मकता को तरजीह देने की लगातार बढ़ती प्रवृत्ति पर।

जब राजा भैया तत्कालीन मायावती सरकार द्वारा गिरफ्तार किये गये थे तो एक जाति विशेष के लोगों ने कहा था कि चूंकि उन्होंने मुख्यमंत्री की तानाशाही का विरोध करने की निर्भीकता दिखायी इस कारण मायावती ने बदला लेने के लिये उन्हें झूठे मुकदमों में जेल में डाल दिया। अदालत से कोई चीज साबित हो या न हो लेकिन परम आदरणीय स्वनाम धन्य राजा भैया जी कितने बड़े महापुरुष हैं इस बारे में मुझ जैसा नाचीज कोई टिप्पणी न करे खैर इसी में है वरना हो सकता है कि इस कुफ्र की वजह से ऊपर वाला मेरी जिंदगी की बकाया सांसें तत्काल मुझसे वापस ले ले और मैं ऐसा नहीं होने देना चाहता क्योंकि मरने से मुझे बेहद डर लगता है और कोई क्रांतिकारिता दिखाने की बजाय मैं सोचता हूं कि कितनी ऐशो आराम की जिंदगी बिताने का मौका मुझे मिले। इसके लिये मैं स्वयं भी जातिवाद का अपनत्व राजा भैया में जगाकर उनकी कृपा कोर पाने का कम उत्सुक नहीं हूं लेकिन यह एक अलग विषय है।

मेरा कहना यह है कि अगर राजा भैया का दमन मायावती ने अभिव्यक्ति की उनकी स्वतंत्रता के हनन के लिये किया था तो पूरा समाज इसके प्रतिवाद के लिये आगे क्यों नहीं आया। यह तो सार्वभौम मुद्दा था। पहले भी इस तरह का कोई अन्याय हुआ है तो पूरे समाज ने जाति, धर्म ऊपर से उठकर उसके खिलाफ मुंह खोला है। इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगायी तो बाद में जब चुनाव हुये तब क्या उनके द्वारा गिरफ्तार किये गये नेताओं को अपनी जाति के लोगों के बीच जाकर यह बताना पड़ा था कि मेरी अन्यायपूर्ण गिरफ्तारी से हमारी जाति का दमन हुआ है इसलिये ऐ मेरी बिरादरी वालो चुनाव में इंदिरा गांधी को हराकर मेरे साथ हुये अपमान का बदला लो।

इंदिरा गांधी का कदम तत्कालीन समझदारी के अनुसार अन्याय था तो विरोधी उम्मीदवार प्रचार के लिये भी न निकल पाये फिर भी वे जीते। राजा भैया के समर्थन में जब मैं जगह-जगह क्षत्रिय महासभा को आंदोलनरत देखता था तो मुझे यह प्रश्न पूछना पड़ता था कि क्या हिंदुस्तान में धर्म क्या है, न्याय क्या है, अन्याय क्या है, यह तय करने और स्थापित सिद्धांतों से विचलन होने पर विरोध का परचम लहराने का ठेका किसी ने सर्वसम्मति से क्षत्रिय महासभा को दे दिया है। रोजाना अन्य लोगों की तरह इस समाज के लोग भी अपने से ताकतवर आततायियों द्वारा सताये जाते हैं तब तो क्षत्रिय महासभा विरोध के लिये सामने नहीं आयी और फिर क्षत्रिय महासभा, परशुराम महासभा इनका क्या अधिकार है कि ऐसे मामलों में जबरदस्ती में टांग अड़ायें।

क्या पुलिस भ्रष्ट हो गयी है तो न्याय पालिका भी भ्रष्टï हो गयी है। मानवाधिकार आयोग भी भ्रष्ट हो गया है। अगर उत्पीडि़त में महिला शामिल है तो महिला आयोग भी भ्रष्ट हो गया है। मैं तो कहता हूं कि पुलिस में भी सारे लोग भ्रष्ट नहीं हैं। कानून का काम बराये मेहरबानी कानून को करने दीजिये। हमारी व्यवस्था में बहुत फोरम हैं और उन्होंने ताकतवर से ताकतवर जुल्मी को सजा देने का काम किया है। व्यवस्था के प्रति अविश्वास उत्पन्न कर जातिगत महासभायें कई संविधान और राष्ट्र स्थापित करने की कोशिश कर रही हैं जो निश्चित रूप से देशद्रोह की कोटि में आता है। अब पानी सिर से ऊपर हो चुका है इसलिये जातिगत महासभाओं की सीमा रेखा तय हो जानी चाहिये वरना राष्ट्रीय व्यवस्था का सारा शीराजा तहस-नहस हो जायेगा। जातिगत महासभाओं का काम है वे अपनी बिरादरी में उन लोगों को रॉल मॉडल के रूप में प्रतिष्ठिïत करें जिनमें असाधारण प्रतिभा हो, निर्विवाद हों। ऐसे लोग जो सभी के लिये वंदनीय हों। जिस जात में जितने ज्यादा अगुवाकार इस तरह के लोग होंगे वह उतनी ही ताकतवर होगी न कि मुकदमे में फंसने वाले लफंगे किसी जाति को कोई ताकत दे सकते हैं। कुछ नेता और पार्टियां हर कौम में अपराधी तत्वों को नेता के रूप में स्थापित करने का काम सुनियोजित षड्यंत्र के तहत कर रही हैं। उन्हीं के उकसावे का परिणाम है जातिगत महासभाओं की आईपीसी के मामलों में बढ़ती दखलंदाजी।

जातिगत महासभाओं के लिये और भी काम हैं। वे सिर्फ अपनी ही जाति में यह ठेका ले लें कि किसी बच्चे को बिना स्कूल जाये नहीं रहने देंगे अगर कोई आईआईटी में दाखिला परीक्षा उत्तीर्ण करने की लियाकत रखता है और गरीब है तो बिरादरी उसका सारा खर्चा उठायेगी। बिरादरी के किसी आदमी को भीख नहीं मांगने देंगे। अगर किसी कारण से वह मोहताज हो गया है तो पूरी बिरादरी जब तक वह कोई व्यवसाय चलाने में सफल नहीं हो जाता उसके परिवार के भरण-पोषण की जिम्मेदारी उठायेगी। जाति की किसी कन्या को उसके उपयुक्त वर के साथ परिणय सूत्र में बंधने के अवसर में अमुक महासभा रुकावट नहीं आने देगी। यह नेक काम हैं अगर लोग अपनी-अपनी बिरादरी में ही यह काम करने लगें तो बहुत पीडि़तों को मदद मिल जायेगी। परिवार, जाति, समाज, अंचल और राष्ट्र यह तमाम इकाइयां इसलिये बनायी गयी हैं कि छोटे स्तर से आदमी मानवता से प्रेम करना और दूसरों के लिये जीने की कला सीखे। जब वह परिवार के लिये स्नेहिल होगा तो अपने इस गुण की वजह से जाति के लिये भी उसमें स्नेह होगा। फिर बढ़ते-बढ़ते ऐसा ही व्यक्ति सबसे ज्यादा देश के लिये समर्पित होगा और इस यात्रा का गंतव्य यानी समूची विश्व मानवता के लिये उसके मन में करुणा, परोपकार के भाव समृद्ध होंगे पर अगर वह परिवार और जाति तक सीमित होकर व्यापक मानवता के प्रति अपने तकाजे को भूलता है तो उससे बड़ा गुमराह व्यक्ति कोई नहीं है। वह पुण्य नहीं गुनाह कर रहा है और समाज द्रोही करार देकर दंडित होने योग्य है।

यहां यह बात स्पष्ट कर देनी होगी कि संविधान के प्रति निष्ठा का मतलब इसमें निहित उन व्यवस्थाओं के प्रति निष्ठा रखना भी है जो देश की विशिष्ट सामाजिक परिस्थितियों को देखते हुये कमजोर वर्ग के अधिकारों की रक्षा के लिये बनायी गयी हैं। संविधान की शक्तियों से अनुसूचित जाति उत्पीडऩ निवारण अधिनियम बना है लेकिन क्षत्रिय या ब्राह्मïण उत्पीडऩ निवारण अधिनियम नहीं बन सकता क्योंकि दलित समाज का सताया हुआ वर्ग है। धार्मिक ग्रंथों से लेकर परंपराओं तक के जरिये यह पुष्ट हुआ है और आज भी किया जा सकता है कि उनके साथ अन्याय किया गया है और इस कारण जब तक दोषपूर्ण सामाजिक व्यवस्था पूरी तरह नहीं बदल जाती तब तक वे संरक्षण के अधिकारी हैं। अगर किसी अनुसूचित जाति के व्यक्ति के साथ जातिगत भेदभाव के कारण उत्पीडऩ की घटना होती है और उसमें उनका जातिगत संगठन प्रतिवाद की पहल करता है तो उसकी तुलना समर्थ जातियों के ऐसे किसी प्रयास से नहीं की जा सकती। उनका उदाहरण देकर अपनी जबरदस्ती का औचित्य सिद्ध करना धूर्तता है अगर समर्थ जातियों में किसी व्यक्ति के साथ अन्याय होता है तो वह एक व्यक्ति के साथ हुआ अन्याय है और सारी मानवता उससे आहत होगी। साथ ही बिना जातिगत महासभा के आगे आये हर संवेदनशील व्यक्ति न केवल उससे सहानुभूति रखेगा बल्कि उसके साथ अन्याय करने वालों को दंडित कराने का भी प्रयास करेगा यह विश्वास रखा जाना चाहिये। दूसरी ओर आज भी अनुसूचित जाति के सभी नहीं तो कुछ मामलों में अन्याय इसलिये होता है क्योंकि वे अमुक जाति से संबंधित हैं। आदर्श स्थिति यह है कि उनकी महासभायें भी कानूनी तौर पर इसमें न्याय दिलाने का प्रयास करें न कि आंदोलनात्मक उपाय का तरीका अपनायें लेकिन यह तब तक संभव नहीं है जब तक कि दूसरे लोग अतीत की अन्याय पूर्ण व्यवस्था को तिलांजलि देने के लिये ईमानदारी से कटिबद्ध नहीं हो जाते।

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