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(11 सितंबर को संत विनोबा भावे की जयंती थीइस अवसर के लिये यह समाचार कथा पुनप्रासंगिक है)
जालौन और हमीरपुर के सीमावर्ती इलाकों से गुजरती बेतवा जब सावन–भादौं में हहराती हुयी बहती है तो जवान आंखें भी उसका विस्तृत पाट नापने में नाकाम रहती हैं। इस बुंदेली नदी के तट पर बसे एक छोटे से गांव मगरौठ के हृदय पटल का विस्तार भी कभी पैमाइश की गुस्ताखी को मुंह चिढ़ाता था। आज इस गांव का दिलेर दिल उदास है। यहां की फिजा पर उजास कम, ज्यादातर कुहास है।
सिस्टमके बोझ तले बुंदेलखंड में सिर्फ किसान ही आत्महत्या नहीं कर रहे। यहां एक आंदोलन ने भी सिस्टम से रूठ कर खुदकुशी कर लीएक बामकसद मुहिम बेमौत मर गयी। मगरौठ से धधकी प्रयोगधर्मी क्रांति की लौ जहां की तहां दफन हो गयी। फिर भी मगरौठ की मिसाल अपने आप में एक कहानी है और कुछ कर गुजरने का जज्बा भी जगाती है।
बाहर से देखेंगे तो मगरौठ आपको बुंदेलखंड के किसी भी औसत विकसित गांव जैसा ही दिखेगालेकिन इसे जानने के लिये इसके भीतर पैठना पड़ेगा। एक छोटे से पानी के दरिया को पार करने के लिये जयपुलिया। बच्चों की पढ़ाई के लिये प्रकाशमंदिर पाठशाला और सार्वजनिक नारायणअतिथि गृह। क्या आपको इसमें कुछ खास दिखा। हांजब जय प्रकाश नारायण। लोकनायक जेपी के मुंह से जग ने भले ही में संपूर्ण क्रांतिका नारा सुना था लेकिन जेपी के जहन में इसका बीज तो मगरौठ ने ही बो दिया था में और उससे भी चार साल पहले संत विनोबा भावे ने भूदान आंदोलन की अलख जगाते हुये बुंदेलखंड की धरती पर पांव रखे थे तो मगरौठ ने भी आगे बढ़ कर उनके हाथ थामे थे। भूदान बाबा के मन में अपने आंदोलन की सफलता को लेकर तमाम आशंकाओं को इस गांव ने बेतवा के पवित्र जल से धो दिया था। बाबा आशंकित मन इस गांव में दाखिल हुये थे और पुलकित हृदय यहां से विदा हुये। आजादी को पूरे पांच साल भी नहीं हुये थे। संसदीय लोकतंत्र ने दो महीने पहले ही अवतार लिया था।
का साल थामई का महीना उतार पर था। जबरदस्त तपिश के दिन थेवो भी बुंदेलखंड की तपती धरती। बेतवा पार करके संत विनोबा भावे मगरौठ में दाखिल हुये। गांव वाले बाबा और उनकी अनूठी मुहिम के बारे में पहले ही जान चुके थे। उनके आने के पहले ही प्रगतिशील और उदार विचारों वाले जमींदार शत्रुघ्न सिंह के नेतृत्व में पूरी योजना बन चुकी थी। गांव के सर्वाधिक बुजुर्गों में एक मातादीन यादव की आंखों में वो दृश्य फिल्म के मानिंद आज भी ताजा है। भूदान बाबा के सामने पूरा गांव एकजुट हुआ। दानवीर मगरौठ ने कोई ढाई हजार एकड़ जमीन भूदान आंदोलन को समर्पित कर दी। बाबा हतप्रभ थेउनके प्रवचनों में महाभारत के प्रसंगों की भरमार रहती थीआज वो कर्ण को साक्षात सामने देख रहे थे। कैसे हैं ये लोग जिन्होंने उनके आने के पहले सर्वस्व दान करने की योजना बना ली थी। बाबा ने गांव वालों की पूरी बात नहीं मानी और बुंदेलों ने भी आन की खातिर बाबा की पूरी बात नहीं मानने का फैसला किया। बाबा नहीं चाहते थे कि पूरी जमीन दानशीलता पर निछावर हो जाये और शत्रुघ्न सिंह के नेतृत्व में गांव वालों का हठ था कि बुंदेले दी हुयी चीज वापस नहीं लेंगे भले ही बेतवा की समाधि ले लें।
आखिरकार बीच का रास्ता निकला। फार्मूला अद्भुत था। मगरौठ सर्वोदय मंडलका गठन हुआ। पूरी जमीन उसके नाम कर दी गयी। तय हुआ कि सभी लोग पहले की तरह अपनीअपनी जमीन जोतेंगे लेकिन उपज एक जगह इकट्ठी होगी। उसका बंटवारा हर परिवार के सदस्यों की संख्या के आधार पर होगा। उपज का दस फीसदी हिस्सा अलग रखा जाये। उसकी बिक्री से मिले पैसे गांव की हालात सुधारने के साथ ही गरीब कन्याओं की शादी या ऐसे ही कल्याणकारी कामकाज पर खर्च होंगे। आंदोलन का रथ चल निकला। पहियों के तले विसंगतियां कुचली जाने लगीं। लोग मगरौठ के आइने से भावी भारत को देख रहे थे। उपज के आरक्षित हिस्से से जब कुल हजार रुपये इकट्ठा हो गये तो पूरे गांव में जमीन समतलीकरण जैसे भूमि सुधार के अलावा तालाबों की गहराई और बंधों के निर्माण के काम भी हुये। गरीब की बेटी की शादी की फिक्र पूरा गांव करता था। मगरौठ और सर्वोदय एकदूसरे के पर्याय हो गये। गांव में ही घरघर बापू का चरखा चलने लगा। ओढऩेपहननेबिछाने के लिये मगरौठ कहीं और का मोहताज नहीं रहा। मनोहर लाल अनुरागी बताते हैं कि यहां का कंबल दूरदूर भेजा जाता। यहां की बनी सुतली और सनई रस्सी कहां नहीं जाती।
बुंदेलखंड में लोग बाटा ब्रांड कम मगरौठिया जूताज्यादा जानते थे। गांधी स्मारक निधि के सदस्य ज्ञान चंद्र मिश्र बताते हैं कि गया प्रसादठाकुर दास और मगन जैसे हुनरमंद कारीगरों के हाथों बने जूतों की मांग नेहरू जी और शास्त्री जी को होती थी। ग्रामोद्योग केंद्रों में बनने वाले साबुन में इस्तेमाल के लिये मगरौठ नीम के तेल का बड़ा आपूर्ति सेंटर बन गया। मगरौठ कुटीर उद्योग का गढ़ बन गया था। कम से कम मगरौठ में तो गांधी एक बार फिर जिंदा हो गये थे लेकिन मगरौठ के समानांतर वो ताकतें ज्यादा ताकतवर थीं जो इस देश में गांधी को जिंदा नहीं देखना चाहती थींकैसेमगरौठ की धरती न तो बेदम सिस्टम को जानती हैन पहचानती है बेदर्द कानून को। वह तो सिर्फ और सिर्फ जानती है अपने पुत्रों को और अपनी बेतवा अम्मा कोलेकिन ये दोनों ही लाचार हैं। बेटे चाहकर भी धरती का सीना चीर कर उसकी प्यास नहीं बुझा सकते और बेतवा अम्मा लाख मन सजोयेंलेकिन वह बगल में पसरी प्यासी धरती तक अपनी जलराशि उलीच नहीं सकतीं।
धरती की प्यास और भूमि पुत्रों की भूख के अंतर्युद्ध में मगरौठ सर्वोदय मंडल शहीद हो गया। सर्वोदय का सपना छियाबिया तारतारहो गया। दानवीर शत्रुघ्न सिंह की मुहिम प्रतिक्रियावादीसिस्टम की कोख में बिला गयी। कानून को भूदान आंदोलन की पवित्र मंशा से क्या लेनादेनासामूहिक खेती के क्रांतिकारी फार्मूले ने पूरे गांव की जोत को एकमुश्त कर दिया थागांव वाले एक हो गये थे और जनता की एकता तो सत्ता को हमेशा से अखरती रही है। इस एकता को कानून की पेचीदगी ने बिखेर कर रख दिया। पूरी जमीन का एक खाता होने से वृहद जोतकर लग गयानतीजा आमदनी का एक बड़ा हिस्सा जोतकर के खाते में जाने लगा।
स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रूप रानी बताती हैं कि जब में जेपी गांव आये तो सामूहिक खेती के इस उपक्रम ने उन्हें अभिभूत कर दिया। जेपी उस वक्त साल के थे। गांव वालों ने उनके लिये इस मौके पर बैलों का रथ तैयार किया थावह उसी पर सवार होकर पूरे गांव में घूमे। वह पूरे एक महीने गांव में रहे। कहते तो ये भी हैं कि वह इस आशंका की सच्चाई जानने आये थे कि कहीं सामूहिक खेती के फार्मूले के पीछे शत्रुघ्न सिंह का कोई दबाव तो काम नहीं कर रहाउन्हें जब सामूहिक खेती के प्रयोग के अंधेरे पक्ष से अवगत कराया गया तो उन्होंने आश्वस्त किया कि वह दो काम जरूर करवायेंगे। एक तो सामूहिक खेती के लिये नया कानून बने ताकि वृहद जोतकर की विसंगति से बचा जा सके और दूसरे सरकारी खर्च से जल्द से जल्द सिंचाई के समुचित साधन उपलब्ध कराये जायें। जेपी ने कोशिश भी की लेकिन सिस्टम के सरपरस्त नौकरशाहों ने फाइलों में दबा कर इस मंशा का गला ही घोंट दिया। सामूहिक खेती की राह में एक और कांटा था। चूंकि जोत का खाता एक था सो सिस्टम में इसके लिये एक ही पंपसेट के लिये कर्ज का प्रावधान था। जमीन ढाई हजार एकड़ और सिंचाई के लिये सिर्फ एक पंपसेट। कानूनी बंदिश के आगे सर्वोदयी कार्यकर्ताओं की गांधीगीरी एक न चली। अफसर कहते जोत को हिस्सों में बांट दो तो उतने ही पंपसेटों के लिये कर्ज मिल जायेगा लेकिन सर्वोदयी इस बात पर अड़े थे कि क्या सामूहिक खेती कोई अपराध है जो एक से ज्यादा पंपसेट नहीं मिल सकते?
सर्वोदय मंडल की माली हालत इस कदर खस्ता हो गयी कि एक पंपसेट का कर्ज चुकाने में दिक्कत आने लगी और नतीजा ये कि मंडल के अध्यक्ष इंद्रपाल सिंह को एक दिन के लिये तहसील की हवालात का स्वाद भी चखना पड़ा। इसी तरह की दिक्कतें खाद और बीज के आवंटन में आती रहीं। गांधी स्मारक निधि के पूर्व जिला संयोजक रामस्वरूप गौतम कहते हैं कि मगरौठ मॉडल अपने आप में विफल नहीं हुआ बल्कि उसे विफल किया गया। नौकरशाहों ने इस प्रयोग को फलीभूत होने देने में कोई रुचि ही नहीं ली। धीरेधीरे लोग भी कसमसाने लगे कि आखिर ऐसे प्रयोग से क्या फायदा नियमकायदे ही जिसके दुश्मन हों। कानूनी विसंगतियों के चलते सामूहिक खेती पर ही सवाल उठने लगे। लोग ये सोचने पर बाध्य होने लगे कि इससे तो छोटीछोटी जोत ही बेहतर थी। कम से कम हम अपनी जमीन के लिये एक पंपसेट तो हासिल कर सकते हैं। केशव नारायण गौतम कहते हैं कि ऐसा नहीं है कि इस मर्ज का कोई इलाज नहीं था। जिस गांव से सट कर अपार जलराशि वाली बेतवा बहती होवहां तो एक छोटी सी लिफ्ट कैनाल योजना ही हरित क्रांति ले आती। आसपड़ोस के और गांवों का भी कायाकल्प हो जाता। और ये कदम आज भी उठाया जा सकता है।
मगरौठ के बुंदेलों ने पूरे साल विनोबा भावेजेपी और शत्रुघ्न सिंह के सपनों को संजोये रखने की हाड़तोड़ कोशिश की। सिस्टम के आगे न झुकने वाले बेतरह टूट गये। में सर्वोदय मंडल का खाता भंग कर दिया गया और उसी के साथ एक पवित्र क्रांतिकारी आंदोलन ने खुदकुशी कर ली। न चाहते हुये किसान फिर पहले की तरह भूमिधर हो गये ताकि उन्हें कृषि ऋणखादबीज लेने में सहूलियत हो सके। मगरौठ की मुहिम में पवित्र आत्मा बसती थी। इस पवित्रता ने गांव में मर्यादा की तमाम लक्ष्मण रेखायें खींची हुयी थीं। मुहिम तारतार हुयी तो मर्यादा भी जरजराने लगी और गांधी के इस गांव में वे सब बातें सिर उठाने लगीं जिन्हें वह अपकृत्य मानते थे। जिन पूर्वजों ने एक पुण्य अभियान की अगुवाई की थी उनके आत्मजों में से कुछ अब शराब भट्टिïयों के इर्दगिर्द अपनी फिक्र को हलक के नीचे उतारते दिखते हैं। आज भी गांव में बुजुर्ग रामकृष्ण त्यागी जैसे लोग हैं जो शराब भट्ठी चलाने वालों की नाक में दम किये रहते हैंलेकिन कब तक?
फिर लड़ सकता है मगरौठ, बशर्ते…
मेरे पिता और उनके साथियों के सपनों को फिर से संजोया जा सकता है। मगरौठ का आंदोलन एक बार फिर अंगड़ाई ले सकता हैबशर्ते सत्ता चाहे।दानवीर शत्रुघ्न सिंह के पुत्र कर्नल रिटायर्डप्रेम प्रताप सिंह कहते हैं कि न तो जीवनदायिनी बेतवा के स्नेह में कोई कमी आयी है और न ही बुंदेलों की कर्मठता घटी है। ग्राम दान की समूची मुहिम के गवाह रहे कर्नल सिंह एक तथ्य की ओर इशारा करते हैं जिसके चलते शुरूआत से ही मगरौठ मुहिम को कमजोर करने की कोशिश की गयी। में हमीरपुर की मौदहा विधान सभा सीट के लिये उप चुनाव हुआ। तत्कालीन मुख्यमंत्री चंद्रभानु गुप्त इस सीट से चुनाव लड़ रहे थे और उनसे मुकाबिल थीं दानवीर शत्रुघ्न सिंह की धर्मपत्नी रानी राजेंद्र कुमारी। बुंदेलों के स्वाभिमान के सम्मुख सत्ता की ताकत को घुटने टेकने पड़े। मुख्यमंत्री रहते हुये भी चंद्रभानु गुप्त चुनाव हार गये। बकौल कर्नल प्रेम प्रताप सिंह बस उसी दिन से मगरौठ उत्तर प्रदेश सरकार के लिये पाकिस्तानहो गया। पूरा सिस्टम मगरौठ मुहिम का दुश्मन हो गया। राजनीतिक दंश रह रह कर आंदोलन की देह को चुभता रहा। सत्ता की अपवित्र मंशा ने एक पवित्र आंदोलन को बीमार कर दिया।
(6 एवं दिसंबर को दैनिक जागरण में प्रकाशित…)
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