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अंग्रेजी के मोह ने हिंदुस्तान को कहीं का न छोड़ा

बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
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विदेशी भाषा के प्रभुत्व का नतीजा भारत वर्ष कई रूपों में भोग रहा है। औपनिवेशिक शासन में यह भाषा हुकूमत करने वालों ने हथियार के तौर पर इस्तेमाल की। इससे भाषा के साथ ग्रंथि जुड़ गयी। श्यामल अंग्रेजों को भी भाषा को औजार बनाकर जनता जनार्दन पर अपने को हावी रखने का चस्का लग गया। इसी कारण उन्होंने हर हथकंडा इस्तेमाल किया लेकिन आजादी के बाद भी शासन व्यवस्था में अंग्रेजी के दबदबे को कमजोर नहीं होने दिया। दूसरी ओर विदेशी भाषा ने सोच की भारतीय समाज की मौलिकता को नष्टï कर दिया। अंग्रेजी ने अंतर्राष्ट्रीय षड्यंत्र गिरोहों के चश्मे से स्थितियों को देखने का आदी बनाकर हमारी स्थिति यह कर दी है कि हम अपने ही खिलाफ षड्यंत्र के सहयोगी हो रहे हैं।

हिंदी दिवस पर आज हिंदी का जमकर महिमा बखान हुआ। अंग्रेजी के मुकाबले उसके शब्द सामथ्र्य कम होने के आरोप को नकारा गया। अन्य कई चीजों की सफाई दी गयी। यह एक परंपरागत अनुसितंबर को संपन्न होने के साथ ही बेमानी हो जाता है लेकिन अंग्रेजी के वर्चस्व के विरुद्ध इससे ज्यादा सार्थक कारण हैं। अंग्रेजी से विरासत में आईएएस सेवा को जो शासक मनोवृत्ति मिली है उसका सबसे बड़ा नुकसान यह है कि लोकतंत्र अपाहिज होकर इस संवर्ग के अधिकारियों की वजह से घिसट रहा है। वे समाज के प्रति अपनी कोई जिम्मेदारी नहीं समझतेउनके अंदर कोई रचनात्मकता इस दुर्गुण ने नहीं रहने दी हैदीनहीन जनता और बुद्धिजीवीशिक्षककविसाहित्यकार व अन्य लोग जो समाज के लिये परिसंपत्ति का मूल्य रखते हैं उनके लिये उपेक्षणीय हैं। आईएएस अधिकारी अपनी सत्ता के समीकरणों के हिसाब से व्यवस्था को चुनौती देने में सक्षम व अन्य अराजकतत्वोंदलालों को भाव देते हैं। उनके शक्तिपात से प्रभावशाली होकर अवांछनीय तत्व लोकतंत्र में सत्ता की सीढ़ी आसानी से चढऩे में सफल हो रहे हैं। अगर यह सेवा भंग कर दी जाये और प्रशासनिक सेवा के माध्यम के बतौर सिर्फ राष्ट्रभाषा या मातृभाषा की सीमा तय कर दी जाये तो नतीजा देने वाली नौकरशाही अस्तित्व में आ जायेगी जो खुद की प्रतिष्ठा के लिये भी सचेत होगी और देश के लिये भी।

अमेरिका की बर्बर दुनिया

अंग्रेजी के कारण आज दुनिया उस अमेरिका से दिशानिर्देशित हो रही है जिसका इतिहास कलंकित है। साढ़े चार सौ वर्ष पहले व्यापारिक मुनाफे के लिये अमेरिका के मूल नागरिकों का नरसंहार कर स्वयं उस देश के मालिक बन जाने वालों की वर्तमान पीढ़ी अपने समय के बर्बर अपराधियों की वंशज है। उसकी रगों में उनका गंदा खून दौड़ रहा है जिससे राक्षसी मानसिकता का निर्माण होता है। हर चीज को देखने का उनका यही दृष्टिïकोण है। अंग्रेजी की वजह से हम उनके ऐसे विचारों और व्यवस्था से घिर गये हैं जो हमें हजम नहीं हो सकते। हम मुनाफे के लिये किसी को मारने की सोच भी नहीं सकते। हमें मालूम है कि जुआ कितनी बुरी चीज है जिसकी वजह से महाभारत हुआ। न जुआ होता न पांडव अपनी पत्नी द्रोपदी को दांव पर लगातेन उनका चीरहरण होतान महाभारत होतान ही हस्तिनापुर को अपने समय के महान शूरवीर भीष्म पितामह से लेकर अभिमन्यु तक तीन पीढिय़ों के सारे धनुर्धरों को गंवाना पड़ता।

अंग्रेजी के सम्मोहन का नतीजा है कि हमने जुए को अर्थशास्त्र का पर्याय समझने वाले मनमोहन सिंह को अपना उद्धारक मान लिया। जून में गेहूं की सरकारी खरीद जब रुपये प्रति कुंटल की दर से हो रही थी तो किसान अपना अनाज बेचने के लिये मरने मारने पर उतारू थे। वजह यह थी कि खुले बाजार में कोई गेहूं का एक हजार रुपये कुंटल का भाव देने को भी तैयार नहीं था। गेहूं इफरात में पैदा हुआ है इस कारण तब से बाजार की स्थितियां अभी भी नहीं बदलीं लेकिन इसका भाव पिछले कुछ सप्ताह से आसमान की ओर दौड़ रहा है। लोग दिसंबर तक दो हजार रुपये कुंटल का भाव पार हो जाने का अनुमान लगा रहे हैं। गेहूं नहीं हर वस्तु की यही हालत है। मूल्य प्रणाली में मांग और उत्पादन का तार्किक आधार अर्थहीन हो गया। सटोरियों की मुट्ठी में हो गया है बाजार जुआ का ऐसा बोलबाला अपने आध्यात्मिक संस्कार हमारे अंदर जीवित रहते तो हमें कदापि स्वीकार्य नहीं हो सकता था। हजारों वर्षों से इंद्रिय निग्रह और अपरिग्रह को हमने अपने जीवन का आदर्श माना है। एक दिन में हम इसे कैसे भुला सकते हैं। दूसरी ओर बाजार कहता है कि उपभोगवाद अर्थव्यवस्था की संजीवनी है। व्यक्ति के मन में जितनी तृष्णा बढ़ेगीजितनी विलासिता भभकेगी वह बाजार में उतना ही भटकेगा और तभी विकास दर स्पंदित रहेगी। धन्य है ऐसी सोच। यही वजह है कि तालिबान अपने आध्यात्मिक संस्कारों के कारण इसे गले नहीं उतार पा रहे और उनका विद्रोह धार्मिक उग्रवाद की शक्ल ले चुका है। दूसरी ओर हम अंग्रेजी के भंवर में फंसकर अपनी परंपरागत विचारधारा के ऊपरी तौर पर तो त्यागने को तैयार हो गये हैं लेकिन अचेतन में जो वर्जनायें हावी हैं वे हमें रोक रही हैं। दुविधा से घिरा भारतीय समाज की विडंबना का लगता है कि अब कोई अंत नहीं है।

दिन में भी छायी रहती रतौंधी

अंगांव में एमबीबीएस डाक्टर अनुपलब्ध होते हुये भी खड़े किये जा रहे हैं। साइड इफेक्ट करने वाली एलोपैथी की दवाओं से इलाज की जगह मौत को दावत दी जा रही है। यह तो एक क्षेत्र की बात है हर क्षेत्र में हमारे साथ यही हो रहा है।

मातृभाषा मौलिक अधिकार हो

संयुक्त राष्ट्र संघ के मानवाधिकार चार्टर में यह जोड़ा जाना चाहिये कि मातृभाषा में आंतरिक प्रशासन का संचालन हर समाज का मौलिक अधिकार है। अपनी भाषा में हम जो पढ़ेंगे वह हमारे समाज के लंबे संघर्ष में स्वीकार ली गयी नैतिक संहिता के अनुकूल होगा। उसके मुताबिक भविष्य में आगे बढऩे की जो रणनीतियां तय होंगी वे ही अपने अंतिम परिणाम में हमें अपने उत्कर्ष तक पहुंचा सकेंगी। इस कारण हिंदी लाने की बजाय अपने हर प्रांत में विदेशी भाषा का दामन झटक कर अपनी भाषा में काम करने का आंदोलन चलाना होगा। इससे हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं के झगड़े का अंत खुदखुद हो जायेगा। सारे प्रांत अपनी भाषा में सरकारी कामकाज करें। पूरे देश के लिये कोई न कोई संपर्क भाषा अपने आप तय हो जायेगी। इसके लिये हिंदी या किसी को थोपने की जरूरत क्या है।

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