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नयी आर्थिक नीति : सिक्के का दूसरा पहलू

बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
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नयी आर्थिक नीति को अपनी स्वीकार्यता के लिये काफी जिद्दोजहद करनी पड़ी। 1991 में जब नरसिंहाराव और डा. मनमोहन सिंह की जोड़ी ने इसका श्रीगणेश किया था उस समय भारत के उद्योगपतियों और कर्मचारियों की मानसिकता कूपमंडूक थी। उन्हें विश्वास नहीं था कि वे विश्व बाजार के महासागर में तैर पायेंगे लेकिन जब चुनौतियां आयीं तो अपनी मेहनत और सुसुप्त प्रतिभा को जाग्रत कर उन्होंने अपने व्यापारिक कौशल को जबरदस्त तरीके से निखार लिया और ऐसा तैरे कि दूसरे सभी के छक्के छूट गये। इंग्लैंड में लक्ष्मी मित्तल स्टील किंग के साथसाथ वहां के सबसे बड़े आदमी बन गये। अमेरिका में भी भारतीय उद्योगपतियों और व्यवसायियों की तूती बोली। घड़ी छाप साबुन ने हिंदुस्तान लीवर की खाट खड़ी कर दी। यह आशंका गलत साबित हुयी कि भूमंडलीकरण से भारत केवल सेल्समैन बनकर रह जायेगा। भारत ने मैन्यूफैक्चरिंग में भी वैश्विक कीर्तिमान स्थापित किये और सूचना प्रौद्योगिकी जैसे क्षेत्रों में तो सिरमौर का दर्जा हासिल किया।

आम आदमी को नयी आर्थिक नीति के फायदे गिनाते हुये बताया गया था कि इसमें प्रतिस्पर्धा का बोलबाला होने से जरूरत की चीजें बेहतर गुणवत्ता की लेकिन कम कीमत में मिलेंगी। विदेशी पूंजी निवेश में वृद्धि के लिये चुस्त और भ्रष्टाचार विहीन गवर्नेंस देने की बाध्यता सरकार के सामने आयेगीसाथ ही इन्फ्रास्ट्रक्चर को मजबूत करने पर भी उसे ध्यान देना पड़ेगा। आम आदमी को इससे बड़ा लाभ होगा। मजदूरों से लेकर अन्य निजी कामगारों के वेतनमान में सुधार होगासबको कारगर सामाजिक सुरक्षा मिलेगी और जनोपयोगी सेवायें चिकित्साशिक्षा आदि आसानी से सुलभ होंगी। आर्थिक उदारीकरण आज आम आदमी के हितों की कसौटी पर है क्योंकि जहां पहले मोर्चे पर उसने फतह हासिल की वहीं दूसरे मोर्चे पर उसने आम लोगों को छल का शिकार होने की अनुभूति के लिये मजबूर किया है।

क्या हुआ सस्ता

जहां तक चीजें सस्ती होने का सवाल है मोबाइल सस्ते हुयेटेलीविजन सेट की कीमतें बनिस्बत गिरींकंप्यूटर सस्ते में मिलने लगेइलेक्ट्रानिक के अन्य सामान भी कम कीमत में हासिल करने का अवसर आम आदमी को मिला। पर यह चीजें महत्व की दृष्टि से उसके लिये अतिरिक्तकी कोटि में हैं। दूसरी ओर आटातेललकड़ी जिनके बिना जीवन चल नहीं सकता ये चीजें उसकी आमदनी से कई गुना रफ्तार से महंगी हुयी। मोबाइल जैसी सुविधा उसे आमदनी बढ़ाने में सहयोग करने की बजाय मेहनताने में बढ़ोत्तरी का हिस्सा इनकी कंपनियों द्वारा छीन ले जाने का निमित्त दिखने लगीं। सेहत बढ़ाने के लिये रोजमर्रा में फलों का सेवन करना तो दूर की बात अब तो बीमार हो जाने पर भी सेव और मौसम्मी के जूस की तरफ देखने की हिम्मत आम आदमी में नहीं रह गयी है। मनमोहन सिंह ने आर्थिक नीतियों के मानवीय चेहरा देने की बातें तो कई बार कीं लेकिन वे व्यवहार में इनकी बर्बर नोंक को ही और पैना करते गये।

उत्पीड़क हुआ भ्रष्टाचार

आम आदमी के हित के नजरिये से नयी आर्थिक नीतियों के परिणाम भ्रष्टाचार और गवर्नेंस के मुद्दे पर भी पूरी तरह खोखले निकले। सड़कों पर चप्पलें चटकाने वाला नेता सांसद और विधायक बनते ही लाखों की गाडिय़ों की पूरी फ्लीट शानदार बंगला बनवाकर अपने लिये तैयार कर लेता है। आय से अधिक परिसंपत्ति को अपराध मानने वाला कानून आखिर कहां सोता रहता है। आज सबसे पहले तो यह हुआ कि जनप्रतिनिधि जो इन नीतियों के लागू होने के पहले हल्काफुल्का भ्रष्टहोते हुये भी मतदाताओं की संवेदना से जुड़ा रहता था आज पैसा न कमवाने वाले फालतू के लोगों को दुत्कार देता है। जब आम आदमी के अपने की यह हालत है तो अधिकारी उसकी सुनेंगे क्योंभ्रष्टाचार पहले से कई गुना बढ़ गया है। न केवल विकास में कमीशन का भ्रष्टाचार बढ़ा है बल्कि मौलिक अधिकारों को नकारने वाली इसकी कू्ररता और प्रचंड हो गयी है। रेलवे में टिकट और आरक्षण लेकर सफर करने वालों से भी उगाही कर लेती है जीआरपी और लुटेरे खाकी वालों का कुछ इसलिये नहीं बिगड़ता कि वे अधिकारी और नेता को अपनी फंसने पर भरपूर तरीके से अनुग्रहीत कर सकते हैं जबकि पीडि़त से उनको आर्तनाद सुनने के अलावा कुछ नहीं मिलता। कोई नौकरी आज बिना कीमत दिये प्राप्त करना असंभव है। गनर्वेस तो कहीं बची ही नहीं है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की आर्थिकवित्तीय मामलों में विशेषज्ञता है और सबसे ज्यादा अराजकता का नमूना इसी क्षेत्र में देखने को मिल जाता है। हर गांव तक फर्जी निवेश कंपनियों का नेटवर्क पहुंच चुका है। यह कंपनियां बाकायदा अखबारों में विज्ञापन भी छपवाती हैं फिर भी नहीं पकड़ी जातीं। यहां तक कि बैंक के अफसर लिखापढ़ी करते हैं तो भी प्रशासन सक्रिय नहीं रहता। कभी इतने भ्रष्टऔर गैर जवाबदेह कलेक्टर नहीं हुये जितने कि अब हैं जबकि यह प्रशासन की रीढ़ हैं यानी प्रशासन की रीढ़ ही टूट चुकी है। शिक्षा और चिकित्सा तो आम आदमी के हाथ से बाहर निकल चुकी है। शिक्षा के व्यवसायीकरण पर रोक के सुप्रीम कोर्ट के सारे निर्देश अरण्यरोदन साबित कर दिये गये। जिसके पास भरपूर पैसा है उसी के बच्चे पढ़ेंगेवही अपना इलाज करा पायेंगे। जो पैसे से वंचित है उसके लिये तो गरिमापूर्ण जीवन जी पाने की स्थितियों की अब कल्पना भी नहीं करना चाहिये। लोकतंत्र में आम आदमी की जो हालत है उसका अंदाजा कभी नहीं किया गया था।

इन्फ्रास्ट्रक्चर का भट्टा बैठा

अब न जिलों में सड़कें रह गयी हैं न सवारी के साधन। रोडवेज से लेकर निजी परमिट वाली बसों तक का सर्वे कराया जाये तो चौंकाने वाली हालत सामने आती है। बसें सड़कों पर बची ही नहीं हैं लोग डग्गामार जीपों और ट्रकों से आवागमन कर रहे हैं। विद्युतीकरण कागजों में बढ़ रहा है लेकिन कटौती, हफ्तों तक फुंके ट्रांसफार्मर न बदलवा कर और अन्य हथकंडों से इसकी सुविधा आभासी मात्र बना दी गयी है। फोरलेन और एक्सप्रेस वे तो केवल महंगी गाडिय़ां अफोर्ड करने की सामथ्र्य रखने वालों के लिये हैं। उस पर डीजल, पेट्रोल और रसोई गैस की अंधाधुंध मूल्य वृद्धि। आम आदमी के लिये अब बाइक चलाना दूभर हो गया जबकि उसकी आमदनी बहुत कुछ बाइक से मूवमेंट करने पर ही निर्भर रह गयी थी। आर्थिक महाशक्ति की कोटि में आने वाले अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी और जापान की तो बात छोड़ें चीन में भी इन्फ्रास्ट्रक्चर का प्रबंधन अत्यंत अग्रगामी है। आधारभूत सुविधाओं की दयनीय हालत देखने के बाद भारत का आर्थिक महाशक्ति बनने का दावा कुरूप आदमी के फैशन करके जोकर बन जाने जैसा है।

अमेरिकी अखबारों की घुड़की

अमेरिकी अखबारों से मिली घुड़की के बाद सहम कर डा. मनमोहन सिंह ने एफडीआई, रसोई गैस के सिलेंडरों का वितरण करने और डीजल के दाम बढ़ाने जैसी कार्रवाइयां तो देश के सुधार के लिये जरूर कड़े कदम उठाने के बतौर कर दीं लेकिन यहां मूलभूत व्यवस्था जो शून्य हो चुकी है उसे सुधारने की तनिक भी फिक्र उन्हें नहीं है ऐसा क्यों? मनमोहन सिंह आत्म प्रवंचना में हैं। अराजकतापूर्ण स्थितियों की वजह से देश उग्रवाद और आतंकवाद के खतरनाक जबड़ों की ओर जा रहा है। पता नहीं इस देश का भविष्य कैसा होगा।

(अगली किस्त में एकएक मोर्चे की दीन दशा का शब्द चित्र…)

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