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बटेर झटकने के लिए आतुर अंधे

बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
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केपी सिंह।
केपी सिंह।

कांग्रेस के खिलाफ बढ़ती महंगाई और भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण जबरदस्त माहौल बन चुका है। भाजपा में सर्वमान्य नेता का चयन न हो पाने और दिग्गजों में मची उठापटक से उसकी हालत पतली है जिससे पार्टी की साख मटियामेट होती जा रही है। ऊपरी तौर पर देखें तो तीसरे मोर्चे के लिये केंद्रीय सत्ता हथियाने का यह सुनहरा अवसर है लेकिन अगर ऐसा वास्तव में होता तो मुलायम सिंह जैसे घाघ नेता अपने कलकत्ता अधिवेशन में तीसरे मोर्चे के गठन करने के कदम से पीछे न हट जाते।

जो लोग यह समझते हैं कि एचडी देवगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल अंधे के हाथ बटेर लगने की तर्ज पर प्रधानमंत्री बने थे इसलिये इस देश में सटीक तीन तिकड़म कर ले तो किसी का भी मुकद्दर जाग सकता है वे नेता गलतफहमी में हैं। राष्ट्रीय मोर्चा हो या संयुक्त मोर्चा उसका एक वैचारिक आधार था जो न्यूनतम साझा कार्यक्रम में अभिव्यक्त होता था। विश्वनाथ प्रताप सिंह को मीडिया चाहे जितना बड़ा खलनायक साबित करे लेकिन वे ही इसके शिल्पी थे। नीतियों के आग्रह के कारण ही उन्होंने वामपंथियों के साथ अपनी स्वाभाविक मित्रता में आंच नहीं आने दी। के चुनाव के पहले मथुरा में जनता दल की सभा में उन्होंने भाजपा के झंडे अपने मंच से हटवा दिये थे जबकि कांग्रेस विरोधी मतों के ध्रुवीकरण के लिये उन्हें भाजपा के समर्थन की बहुत दरकार थी। ऐसे अनेक प्रसंग हैं जबकि वामपंथियों का विश्वास न गवाने के लिये उन्होंने राजनीतिक जोखिम मोल लिया। मुलायम सिंह मौका पडऩे पर वामपंथियों को किस तरह दूध की मक्खी की तरह निकाल कर फेंक चुके हैं यह बताने की जरूरत नहीं है।

के लोक सभा चुनाव के बाद राष्ट्रपति ने पहले अटल बिहारी वाजपेयी को सरकार के गठन के लिये आमंत्रित किया लेकिन जब वे लोकसभा में विश्वास मत हासिल नहीं कर पाये तो संयुक्त मोर्चा को निमंत्रण मिला। जिस तरह से जनता दल को मिले जनादेश में स्पष्टरूप से विश्वनाथ प्रताप सिंह को प्रधानमंत्री के रूप में देखने की जनाकांक्षा निहित थी भले ही बाद में मीडिया ने अपने पूर्वाग्रहों के लिये तोड़ मरोड़ कर उसमें चंद्रशेखर की दावेदारी को और जोडऩे की कोशिश की हो उसी तरह संयुक्त मोर्चा की सत्ता की दावेदार तक पहुंचने में भी वीपी सिंह को एक बार फिर प्रधानमंत्री पद पर देखने की वैकल्पिक जनमत की चाह शामिल थी।

इसी कारण मुलायम सिंह जैसे कुछ लोगों को छोड़कर पूरा संयुक्त मोर्चा पहले उनके नाम पर ही एकजुट हुआ और नेता प्रधानमंत्री पद स्वीकार करने के लिये उन्हें मनाने उनके दरवाजे तक गये लेकिन वीपी सिंह ने खुद ही मैदान छोड़ दिया जिसकी वजह से वे अपने आवास से गायब हो गये। ऐसी हालत में जाहिर था कि कौन प्रधानमंत्री बने इसकी कुंजी उनके हाथ में रही और तब उनके समीकरणों के अनुरूप होने से पहले देवगौड़ा और इसके बाद गुजराल प्रधानमंत्री बने तो यह एक तार्किक परिणति थी न कि महज संयोग। कांग्रेस ने बेवजह देवगौड़ा और उसके बाद गुजराल की सरकार से समर्थन वापस न लिया होता तो संयुक्त मोर्चा की सरकार पांच वर्ष का कार्यकाल पूरा करती और देश का इतिहास कुछ अलग होता।

अवसरवादी गठबंधन

तीसरे मोर्चे के वर्तमान में स्वयं भू नेताओं के पास कोई वैकल्पिक नीतियां नहीं हैं। वे अवसरवादी गठबंधन की दम पर सत्ता के सिंहासन तक पहुंचने का तानाबाना बुन रहे हैं। तीसरे मोर्चे के संभावित सहयोगियों में चाहे वामपंथी हों या ममता बनर्जी से लेकर जय ललिता और करुणानिधि तक सबके सरोकार सीमित हैं। उनमें से कोई राष्ट्रीय नेतृत्व के लिये बहुत ज्यादा लालायित नहीं है। राजग के संयोजक शरद यादव भी कल को तीसरे मोर्चे का राग अलाप सकते हैं क्योंकि वे अति महत्वाकांक्षी हैं लेकिन आज भी वे अपने को स्काईलैब की छवि से मुक्त नहीं कर पाये हैं। इस कारण निर्णायक मौके पर उनकी दावेदारी को मजबूत नहीं आंका जा सकता। लेदेकर मुलायम सिंह ही बचते हैं जिन्हें तीसरे मोर्चे की ललक सबसे ज्यादा इसलिये है कि वे में जब अच्छी तरह से उत्तर प्रदेश का प्रशासन भी नहीं संभाल पाये थे तभी प्रधानमंत्री पद के लिये अधीर हो गये थे। इस पृष्ठïभूमि में हाल में कलकत्ता में समाजवादी पार्टी की कार्यकारिणी की बैठक करने के पीछे उनका मकसद तीसरे मोर्चे के गठन के लिये ठोस कदम उठाना समझा जा रहा था पर उन्होंने ऐसा क्यों नहीं किया उनके एंटी क्लाइमेक्स पर बहुत लोग हैरान हैं। हालांकि इसमें कुछ अप्रत्याशित नहीं है। मुलायम सिंह की फितरत को समझने की कोशिश की जानी चाहिये। वे दोनों घोड़ों की सवारी कर रहे हैं जिसके कारण दुविधा में हैं। उन्होंने कहा है कि चुनाव के बाद तीसरे मोर्चे के गठन की सोचेंगे। उन्हें पता नहीं है कि लोक सभा चुनाव में पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की आंधी बरकरार रहेगी या वाम मोर्चा वापसी करेगा। उन्हें इनमें से किसी एक को अभी से अपने खूंटे से बांध लेना घाटे का सौदा लग रहा है। वे अपना विकल्प खुला रखना चाहते हैं। अगर वामपंथी मीर बनते हैं तो उन्हें साथ लेंगे अन्यथा ममता दीदी से रिश्ता बना लेंगे। शरद यादव से वे चिढ़ते हैं लेकिन उन्हें भरोसा है कि अगर निर्णायक वक्त आया तो नीतिश कुमार शरद यादव को नेपथ्य में धकेल कर प्रधानमंत्री बनने के लिये उनकी मदद करेंगे।

कांग्रेस का सहारा छोड़ा नहीं

मुलायम सिंह ने अगर जनता दल के समय संयम से काम लिया होता तो शायद अभी तक कभी के प्रधानमंत्री बन चुके होते लेकिन तब वे बड़ा बेसब्र थे। आज मुलायम सिंह काफी ठंडे हैं। वजह यह नहीं है कि वे पहले से परिपक्व और गंभीर हो गये हैं। स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं ने उन्हें कई चीजों में समझौते के लिये मजबूर कर दिया है। अंदर की खबरें यह हैं कि मुलायम सिंह पहले की तरह 18 से 20 घंटे काम करने की स्थिति में हों यह तो दूर की बात है वे आठ घंटे का समय भी जिस दिन देने की कोशिश करें बुरी तरह पस्त हो जाते हैं। अपने भविष्य को लेकर उनमें आत्मविश्वास की कमी आ चुकी है जिससे वे फूंकफूंक कर कदम रख रहे हैं। स्वयं प्रधानमंत्री बन पायें या नहीं लेकिन अखिलेश की सरकार को खतरा न हो पाये इसकी उन्हें पूरी फिक्र है। इसी कारण वे कांग्रेस से कोई रार नहीं लेना चाहते। रायबरेली में सोनिया के खिलाफ उम्मीदवार खड़ा न करने का एलान तो उनके द्वारा हो ही चुका है। बाद में राहुल के लिये भी वे ऐसी ही घोषणा कर देंगे यह पूरा विश्वास राजनीतिक विश्लेषकों को है। इसी तरह खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के फैसले का उनका विरोध थोथा है। अखिलेश तो मुख्यमंत्री बनने के बाद एक बार धोखे से इसके बारे में समर्थन की राय जाहिर कर ही गये थे। बाद में मुलायम सिंह ने उनको डपटा तो उन्होंने सुर बदल दिया। मुलायम सिंह नीतियों के बंधक नहीं हैं। किसी तरह की सैद्धांतिक प्रतिबद्धता में उनका कोई विश्वास नहीं है। हालत यह है कि आज अगर वे सिद्धांत और नीतियों की बात करें तो पासे उनके खिलाफ पड़ जायेंगे।

वंशवाद में नेहरू परिवार पीछे छूटा

वीपी सिंह लोहियावादी नहीं रहे जबकि मुलायम सिंह की वैचारिक स्तर पर लोहियावादी के रूप में ही सबकुछ पहचान है। यह उनका करिश्मा है कि इसके बावजूद उन्होंने वंशवाद को नेहरू परिवार से कई गुना पीछे छोड़ दिया है फिर भी कोई उनसे लोहियावादी होने की उपाधि छीनने का साहस नहीं कर सकता। पिता राष्ट्रीय अध्यक्षबेटा मुख्यमंत्रीचाचा पार्टी के प्रमुख राष्ट्रीय महासचिवदूसरे चाचा प्रदेश के शक्तिशाली कैबिनेट मंत्रीचचेरा भाई सांसदपत्नी सांसदइटावा के जिला पंचायत अध्यक्ष से लेकर सैफई के ब्लाक प्रमुख तक भी कुनबा के पास ही कुर्सी अखिलेश को मुलायम सिंह ने यह जो लोहियावाद की शानदार विरासत सौंपी है लोहिया का इससे अच्छा तर्पण कोई दूसरा नहीं हो सकता। दूसरी ओर वीपी सिंह ने अपने बेटे को राजनीति में नहीं आने दिया जिसके लिये कहा जाना चाहिये कि उनके पास दूरदर्शिता नहीं थी। आर्थिक भ्रष्टाचार का कोई आरोप उन पर नहीं लगा जबकि मुलायम सिंह यादव का पूरा परिवार कुबेर से होड़ ले रहा है। तीसरे मोर्चे की बुनियाद में इन सिद्धांतों के अलावा राज्यों को अधिकतम स्वायत्तता देनाउद्योगों के प्रबंधन में मजदूरों की भागीदारीप्रत्याशियों को सरकारी चुनाव फंड से आर्थिक मदद मुहैया कराना और लोकतंत्र में सबसे बड़ी बाधा जाति व्यवस्था को अप्रासंगिक करने के लिये दलित और पिछड़ों को एक मंच पर खड़ा करना शामिल था जिसके लिये उन्होंने एक तरफ बाबा साहब को भारत रत्न दिया दूसरी तरफ मंडल मोर्चा की रिपोर्ट का क्रियान्वयन किया। मुलायम सिंह स्मरण नहीं करना चाहते कि में लोहिया ने खुद जाकर बाबा साहब से मुलाकात की थी ताकि उनकी पार्टी और सोशलिस्ट पार्टी के बीच चुनावी गठबंधन हो सके। बाबा साहब तैयार भी हो गये थे लेकिन उनका असमय निधन हो जाने से लोहिया की यह साध पूरी नहीं हो पायी।

आज हालत यह है कि उत्तर प्रदेश के सरकारी दफ्तरों में अघोषित तौर पर बाबा साहब के चित्रों को गायब किया जा चुका है। समाजवादी पार्टी दलितों और पिछड़ों को विपरीत धु्रव पर पहुंचाने के लिये उत्प्रेरक की भूमिका अदा कर रही है। पदोन्नतियों में आरक्षण की समाप्ति का उनका फैसला इसका स्वाभाविक परिणाम है। अब वैचारिक स्तर पर क्या भिन्न बचा है जो कांग्रेस और भाजपा से अलग है फिर भी तीसरा मोर्चा का रागइससे बड़ी प्रवंचना क्या हो सकती है। लोक सभा चुनाव के बाद का परिदृश्य बहुत अनिश्चित है लेकिन अगर वैचारिक दिशा को लेकर देश नहीं चलेगा तो उसका हश्र कितना खतरनाक होगा यह बात सोनियाराहुलनरेंद्र मोदी अथवा मुलायम सिंह को नहीं सोचनीहम सबको सोचनी है।

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