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खेती में ठाकुर बनाम बैकवर्ड का अंतर

बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
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केपी सिंह।
केपी सिंह।

बुंदेलखंड अल्प वर्षा वाला इलाका है जिसमें खेती को जिंदा रखना चुनौती भरा काम है। इसी कारण यहां शुष्क खेती जैसे प्रयोग हुये। जालौन जिला भी बुंदेलखंड अंचल का हिस्सा है। सन् 2000 से लेकर 2012 तक बुंदेलखंड के अन्य जिलों की तरह जालौन जिले में कई वर्ष ऐसे रहे जिनमें नगण्य बारिश हुयी। फिर भी इस जिले में खेती बहुत ज्यादा नहीं बिखरी। कई बार तो ऐसा लगता है कि सूखे की चुनौती में किसानों ने यहां खेती को ज्यादा लाभकारी बनाने में और ज्यादा कामयाबी हासिल की। जो इस जिले में किसानों की बेमिसाल प्रतिभा और उद्यमिता का प्रमाण है।

जालौन जिले में खेती का सामाजिक आर्थिक आधार पर विश्लेषण करें तो कई रोचक निष्पतियां सामने आयेंगी। इस जिले में माधौगढ़ तहसील का चरित्र अलग है और कोंचजालौन का अलग। माधौगढ़ तहसील में आजादी के पहले तीन बड़ी रियासतें थीं। जाहिर है कि तीनों के अधिपति ठाकुर समाज से संबंध रखते थे। रामपुरा राजा के खिलाफ आजादी के पहले पूर्व कैबिनेट मंत्री चतुर्भुज शर्मा और टीहर के यशस्वी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी उमाशंकर मिश्र ने लगान बंदी आंदोलन चलाया था। इस रियासत में किसी किसान को खेती का स्थायी पट्टा नहीं किया जाता था। राजा हर साल किसान का नवीनीकरण करते थे। जिसका चाहे पट्टा निरस्त कर उस साल के लिये दूसरे किसान को खेती का अधिकार सौंप देते थे। यह अन्यायपूर्ण प्रथा उवारदारी कहलाती थी। चतुर्भुज शर्मा और उमाशंकर मिश्रा ने इस उवारदारी का अंत कराया। कोंच व उरई तहसील में स्थिति अलग थी। यहां खेती का बंदोबस्त लंबरदारों के दायरे में था जो लोध या कुर्मी समाज से संबंधित थे।

जिले की जालौन तहसील में गूजरों को राजाकहा जाता है। सबसे अच्छी मिट्टी और जलवायु माधौगढ़ तहसील की है लेकिन यहां की खेती अभी भी परंपरागत ढर्रे पर है। दूसरी ओर कोंचउरई व जालौन तहसीलों में खेती का ट्रेंड बेहद प्रगतिशील है। यहां के किसानों ने जालौन जिले के किसानों का नाम खेती के नक्शे पर सारे देश में सबसे ज्यादा बुलंदी पर पहुंचाया। एक समय कोंच को मसूरलैंड कहते थे। यहां प्रति किसान आय पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों से भी ज्यादा थी। इस तहसील के कारण तक पंजाब के बाद देश में सबसे ज्यादा टै्रक्टर जालौन जिले में होते थे। जब मसूर की बारम्बार पुनरावृत्ति हुयी तो फसल खराब होने लगी जिससे कोंच में खेती को संकट पैदा हुआ। यहां के किसानों ने इसके बाद मैंथा और मसूर की खेती का वरण कर लिया। आज हरी मटर में पूरे देश में जालौन के किसानों का नाम है। यह खेती कुर्मी और गूजर करते हैं। लोधियों को भी अच्छा खेतिहर माना जाता है।

तमाम अनुकूलताओं के बावजूद माधौगढ़ तहसील में खेती जड़ता का शिकार है। यहां के किसानों की खेती हर साल सबसे ज्यादा और सबसे कम कीमत में बिकती है। माधौगढ़ सब रजिस्ट्री दफ्तर के आंकड़े इसकी पुष्टिकरते हैं। निष्कर्ष साफ है कि ठाकुरों को खेती करना नहीं आता। वे खामख्वाह खेती पर हावी रहे। उनकी मानसिकता यह है कि वे मजदूरों का उत्पीडऩ कर उनसे बेगारी के कारण होने वाली बचत को ही खेती का लाभ मानते थे। यह अकेले जालौन जिले की बात नहीं है। जब तक खेती ठाकुरों के हाथ में रही यह देश अन्न के लिये तरसता रहा। अपना पेट भरने के लिये भी आजादी के कई वर्षों तक इसी कारण गेहूं आयात करना पड़ता था। जब खेतिहरों को यानी बैकवर्ड जातियों को उनसे छीनकर खेती पर कब्जा मिला तब हालात सुधरे जिसके बाद हरित क्रांति हुयी। आज खेती के मामले में हिंदुस्तान न केवल अपनी जरूरतें पूरी करने में सक्षम है बल्कि कृषि उत्पादों का निर्यातक देश बन गया है। यही कारण है कि अमेरिकाकनाडा इसे कृषि उत्पादों में सबसे बड़ा प्रतिस्पद्र्धी मानकर डब्ल्यूटीओ के जरिये उस पर ऐसी नीतियां थोप रहे हैं जिससे यहां के किसान बर्बाद हो जायें। मनमोहन की सरकार अमेरिका की मानस संतान होने के कारण इस उद्देश्य में सहर्ष मोहरा बन रही है।

बहरहाल बुंदेलखंड की दारुण स्थिति की चर्चा होती है तो यहां नियुक्त पूरब या पश्चिम अंचल के अधिकारी कहते हैं कि जालौन जिले के मामले में बुंदेलखंड की तस्वीर की धारणा छल है। यहां का किसान वैसे तो संपन्न है ही, सूखे में भी समृद्ध रहा है। वर्तमान में बनारस के कलेक्टर सौरभ बाबू जब जालौन में थे तो कई बार उन्होंने पंक्तियों के लेखक से यह बात कही थी। खेती का इतिहास लिखा जायेगा तो उसमें जालौन जिले के किसानों को मील के पत्थर के रूप में दर्ज करना पड़ेगा। इसका श्रेय यहां बैकवर्ड समाज के लंबरदारों को है। पूरे देश के पैमाने पर खेती का वर्ण व्यवस्था के आधार पर भी वर्गीय विश्लेषण होना परिस्थितियों का तकाजा है।

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