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मानवीय सभ्यता को जंगलराज की ओर लौटा रही छद्म आधुनिकता

बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
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भारतीय समाज की मुख्य धारा को जिस वर्ग की प्रवृत्ति से आज भी पहचाना जाता है उसका नाम लेने की जरूरत नहीं है। इस वर्ग की पूरी चेतना अपने परंपरागत वर्चस्व की चिंता में केंद्रित है। सार्वभौम मूल्यों को अनदेखा किया जाना इसका अवश्यंभावी परिणाम है। यही वर्ग एफडीआई जैसे मुद्दों पर गुड़ खाये गुलगुले से परहेज जैसी स्थिति दर्शा रहा है।

बहुत से लोगों ने स्थितियों के मेरे विश्लेषण पर नाखुशी प्रकट करते हुये समयसमय पर क्षोभ पूर्ण प्रतिक्रिया प्रकट की है।

उन्हें लगता है कि मुर्दा हो चुके जातिवाद के विषधर में मैं पुनजान फूंकने का काम कर रहा हूं। मैं यह नहीं कहता कि उन लोगों की मानसिकता में कोई कलुष है लेकिन यह बात जरूर है कि मैं उन्हें अपनी बात नहीं समझा पा रहा हूं। भारतीय समाज की परंपरागत संरचना में वर्ग सत्ता का प्रतिनिधित्व करने वाले लोग उत्तर प्रदेश में बसपा और सपा को जातिवादी पार्टियां करार देते हैं। फिर उनका समर्थन यही लोग क्यों करते हैं। इसका जवाब पूछा जाये तो यह लोग भ्रमित हो जाते हैं। अब अगर एक क्षण के लिये यह मान लिया जाये कि बसपा की ताकत एक जाति विशेष की उसके लिये प्रतिबद्धता है क्योंकि वह जातिगत वर्चस्व की गलत महत्वाकांक्षा से पीड़ित है लेकिन सवाल यह है कि क्या बसपा उस जाति के ही अकेले समर्थन से जीत जाती है?

जाति विहीन समाज के फर्जी ठेकेदारों को यह पता होना चाहिये कि अगर उनका समर्थन न मिले तो बसपा की ताकत और के चुनाव में मात्र विधान सभा सीटों तक सिमटी रही थी इस सफलता से वह ऊपर कैसे पहुंच पाती। में जब सपा बसपा ने गठबंधन कर चुनाव लड़ा था तब भी बसपा को मात्र सीटें ही मिली थीं। उसे ताकत देने का काम तो जातिवादी कहकर उसे गरियाने वाले ही करते हैं। दरअसल बसपा का समर्थन करने वाला तबका जातिवादी नहीं है। उसे सम्मान और गरिमा के साथ जीने का अधिकार बसपा के मजबूत होने के नाते ही मिला है। वह तब भी बसपा को वोट देता है जब हाथी के निशान से गैर जाति का और उसकी जाति का दूसरी पार्टी से उम्मीदवार हो लेकिन सामाजिक न्याय के कदम को जातिवाद का नाम देकर बदनाम करने वाले अपने सिद्धांत और पार्टी के लिये प्रतिबद्धता छोड़कर हाथी का बटन सिर्फ इसलिये दबा आते हैं कि बसपा उनकी जाति का उम्मीदवार अपने निशान पर खड़ा कर देती है। आखिर कौन हुआ जिसका कोई धर्म नहीं हैजातिवाद ही धर्म है। मानवीय समाज को छद्म दलीलें देने वालों से यह भी पूछना चाहता हूं कि अगर आप अंग्रेजों का साथ देने वाले राजाओं को बिरादरी वाद के नाते आजादी के बाद भी अपना कुलगौरव घोषित कर स्वतंत्रता संग्राम की कुर्बानियों को अपमानित करने का काम कर रहे हैं तो मायावती ने क्या गुनाह किया है। इस माइंडसेट का अनुकरण करने वाले उनके बिरादरी के लोग महारानी की तरह उनके रहनसहन और दबंगई से सम्मोहित हैं तो यह स्वाभाविक तार्किक परिणति ही तो है।

यही तर्क मुलायम सिंह को उनकी बिरादरी से मिलन वाली ताकत को लेकर भी विचारणीय है। जब आप के लिये देश व समाज के गौरव से ऊपर अपनी बिरादरी की शान है तो अपनों ही में से दूसरा मजहब अपनाने वाले लोग अगर आतंकवाद के सवाल पर या अन्य भावनात्मक सवालों पर ऐसा ही आचरण व्यवहार करते आपको नजर आते हैं तो आपको अजीब सा लगता है। यह क्यों नहीं लगता कि यह तो होना ही है क्योंकि इसके बीज आप ही ने तो रोपे हैं। बहरहाल यह लंबी बहस की बातें हैं। धूर्तता और संकीर्णता की मानसिकता के कारण ही इस देश में वामपंथ को मुख्य धारा की वर्ग सत्ता इसलिये नकारती रही क्योंकि विचारक माक्र्स उनके नहीं दूसरे देश में जन्मा था। मार्क्सवाद के प्रति तमाम पूर्वाग्रहों में से एक यह भी रहा है कि कम्युनिस्ट मजदूरों की हठधर्मिता को समर्थन देने वाले यानी व्यापार के दुश्मन हैं। अगर यह पूर्वाग्रह सही है तो एक कम्युनिस्ट देश यानी चीन ने यूज एंड थ्रो वाला सस्ता सामान बनाकर व्यापार में इंग्लैंड और अमेरिका की खटिया खड़ी कैसे कर दी। विश्व व्यापार में उसकी तूती क्यों बोल रही है। हालांकि मैं यह नहीं कहता कि कम्युनिस्ट व्यवस्था अपनाने से ही कोई देश व्यापारिक बढ़त ले सकता है। व्यवस्था जो भी हो पर रणनीति को लेकर दिमाग और कदमचाल में तालमेल हो तभी बात बनती है। एफडीआई को मंजूर करने का फैसला जिस समय मनमोहन सरकार ने लिया था उस समय सारे लोग इसे पश्चिम के प्रभाव में राष्ट्रविरोधी जैसा कोई कदम मान रहे थे पर आज बड़ा तबका एफडीआई के पक्ष में होता जा रहा है क्योंकि दमदार दलीलों से वह पुष्ट है।

मनमोहन सिंह ने विरोधियों पर सवाल उछाला था कि अगर डीजल मूल्य वृद्धि व एफडीआई का कदम गलत है तो आप बतायें कि आप अर्थ व्यवस्था की सेहत सुधारने के लिये क्या कदम उठायेंगे। यह सवाल अब तटस्थ लोगों को भी जायज लगने लगा है। कम से कम भाजपा और कांग्रेस दोनों ही इस मामले में एक ही थैली के चट्टाबट्टा हैं। वे पाखंड कुछ भी करें क्योंकि सामाजिक वर्ग सत्ता का प्रतिनिधित्व वाले लोग दोनों पार्टियों को पोषित करते हैं। दरअसल नयी अर्थ नीति को सिरे से ही खारिज करने की जरूरत है। उसके किसी एक सिरे को पकड़ कर कहना कि इस कदम से अनर्थ हो जायेगा लेकिन समग्र तौर पर नयी अर्थ व्यवस्था के प्रति सॉफ्ट कार्नर रखना यह आत्म प्रवंचना के अलावा कुछ नहीं है। हर खेल के अपने नियम होते हैं।

नयी अर्थ नीति के जो नियम हैं उसमें एफडीआई स्थिति विकास का अनिवार्य चरण है। असल बात यह है कि अमेरिका नीति नयी अर्थ व्यवस्था की बुनियाद ही गलत है जिसके विकल्प में नया मॉडल लाने की बात अब बंद हो चुकी है। इसमें मुनाफे के लिये ग्राहकों के सामूहिक संहार की हद तक बढऩे में गुरेज नहीं है। मानवीय सभ्यता की उत्कृष्टता इसमें है कि वह त्यागसंयम पर बल देती है जिससे सादगी और अपरिग्रह में आचरण को आदर्श माना जाता है पर अमेरिकी अर्थ नीति के चंगुल में फंस कर नैतिक विधान को भारत में उलटा कर दिया गया है। भोगवाद यहां भी पराकाष्ठा पर पहुंच गया है। एक सज्जन ने मुझसे कहा कि जिस तरह आज बड़ी कंपनियां और औद्योगिक घराने सरकारों पर हावी होने जा रहे उससे यह लगता है कि ईस्ट इंडिया कंपनी के वर्चस्व से ज्यादा बुरी स्थिति भारतीयों को भोगनी पड़ेगी। हालांकि मैं उनके अतिवाद से सहमत नहीं हूं। वे कंपनियों के द्वारा सरकारों को बाईपास करने की बढ़ती ताकत के कारण देश में पूर्ण अराजकता का खतरा देख रहे थे पर मैंने उनसे कहा कि चंबल के डकैत सरगना भी अपने गिरोह में एक व्यवस्था के तहत काम करते हैं। इस कारण कंपनियां अपनी सर्व सत्ता कायम करने के बाद एक व्यवस्था कायम करेंगी न कि अराजकता।

अनर्थ होने के आयाम दूसरे हैं। भोगवाद की पराकाष्ठाभावनाओं को पूर्ण तिलांजलिजीवन के प्रति आत्मकेंद्रित दृष्टिकोण यह प्रवृत्तियां पहले से बदतर जंगल युग के दौर में लौटा देने का काम कर रही हैं। अन्ना की गलती यह थी कि उन्होंने तथाकथित आधुनिकतावादियों के समर्थन को अपनी पूंजी समझा जबकि आधुनिकता मानी यह है कि आप इतना स्मार्ट हों कि अपनी अंतरात्मा के खिलाफ व्यूह रचना को खारिज कर वास्तविक रूप से हितकर एक नया रास्ता इसके लिये ईजाद कर सकें। वर्ग सत्ता अपने आपको आध्यात्मिक रूप से भी ज्यादा श्रेष्ठ करार देती है लेकिन यहां भी पाखंड है। अगर आध्यात्मिकता में उसकी कोई निष्ठा होती तो जो बात मैं कह रहा हूं उसे बहुत ऊंची आवाज में कहना चाहिये था। बहरहाल इन धूर्त और मक्कारों को छोड़ें क्या कोई और भी इसकी सोच रहा है। उत्तर की प्रतीक्षा रहेगी…

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