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भ्रष्टाचार मिटाने की लफ्फाजी में कितना दम

बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
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अन्ना ने भ्रष्टाचार के खिलाफ मुम्बई से दिल्ली आकर झंडा गाड़ाउसके बाद भ्रष्टाचार से लड़ने के धर्मयुद्ध में एक बार फिर रवानी आ गई। इसके बाद अब कांग्रेस के नेताओं द्वारा अवैध धन संचय के कारनामों का भंडाफोड़ करने की होड़ लगी हुई है। कांग्रेस सबसे ज्यादा दबाव में सोनिया गांधी के दामाद रॉबर्ट वाड्रा को कुछ ही वर्षों में व्यापारिक क्षेत्र में मिली अप्रत्याशित बढ़त के खुलासे की वजह से है। इसमें कई तथ्य ऐसे हैं जिनकी रोशनी में सरकार को वाड्रा के व्यापार बढ़ाने में अनुचित योगदान से इंकार करना मुश्किल है, लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ यह तथाकथित तूफान पहली बार नहीं है बल्कि लोकनायक जयप्रकाश नारायण और वीपी सिंह के समय तो वास्तव में इस मुद्दे को लेकर जनता सड़कों पर आ गई थी जबकि भ्रष्टाचार विरोधी नए मसीहाओं का सारा असर मीडिया की प्याली में उठे तूफान तक सीमित है।

जेपी और वीपी के आंदोलन की परिणतियां कोई बहुत फलदायी नहीं रहीं। भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की कोख से उपजी १९७७ की जनता पार्टी की सत्ता में शामिल लोग भी आगे चलकर कोयले की दलाली में शामिल हो गए। यही हाल वीपी सिंह की पालकी को कंधा देने वाले उनके साथियों और शागिर्दों ने किया। अब तो भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में जो बुद्धिजीवी वर्ग शामिल हो रहा है। उसका हाल और ज्यादा बुरा है। कुल मिलाकर कहना यह है कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को लेकर जनमानस के बीच यह धारणा घर कर चुकी है कि इसकी अगुवाई करने वाले लोग उसे ठगते हैं या जिनकी सद्इच्छा भी है वे नियति के आगे लाचार हैं। आज भ्रष्टाचार अनिवार्य हो चुका है, जिसे कोई समाप्त नहीं कर सकता। हालांकि, भ्रष्टाचार अपराजेय नहीं है, लेकिन लोगों का सोचना भी सही है। लड़ने वाले भ्रष्टाचार के दानव को संजीवनी देने वाले उसके नाभि के अमृतकुंड पर तीर नहीं चला पा रहे और सबसे बड़ी समस्या यह है कि भ्रष्टाचार असल में है क्या, इसे परिभाषित करने में वे पूरी तरह कमजोर साबित हो रहे हैं।

वीपी सिंह ने जब बोफोर्स तोप सौदे में दलाली का मुद्दा उठाया था तब यह बात प्रकाश में आई थी कि इस सौदे में कमीशन तो लिया गया, लेकिन व्यक्तिगत हित के लिए नहीं बल्कि इस कमीशन से चोरीछिपे गुरुजल खरीदा गया जो भारत के आणविक कार्यक्रम के लिए अनिवार्य था। खुले तौर पर देश इसके लिए बजट की व्यवस्था इस कारण नहीं कर सकता था क्योंकि वह विश्व समुदाय का कोपभाजन बन जाता। अगर यह बात यथार्थ है तो इसे भ्रष्टाचार मानें या सदाचार। बुर्जुआ लोकतंत्र में सारी दुनिया में चुनाव के दौरान खर्चीली प्रचार व्यवस्था अपनाई जाती है क्योंकि प्रोपोगंडा के नयेनये साधन विकसित हो चुके हैं। अखबारों में दिए जाने वाले विज्ञापन का खर्चा ही बहुत ज्यादा होता है और मैं नहीं समझता कि अखबार व टेलीविजन पर विज्ञापन का खर्चा उठाए बिना वर्तमान दुनिया में कोई पार्टी या उम्मीदवार चुनावी उद्देश्य को पूरा कर सके। अब जो वैध चंदा होता है उसमें इतनी वसूली कभी नहीं हो सकती कि वह इस खर्चे को समायोजित कर सके। सारी दुनिया में इस कारण धन्ना सेठों को अनुचित लाभ देने का प्रलोभन देकर चुनाव के लिए चंदा उगाहा जाता है। ब्रिटेन में हिंदुजा के विवाद में यह बात उजागर हो चुकी है। अमेरिका के तमाम राष्ट्रपति भी इस कलंक से परे नहीं रहे। भारत इसका अपवाद कैसे हो सकता है?

और आगे चलें आज जीवन की न्यूनतम सुविधाओं में जो वस्तुएं शामिल हो चुकी हैं किसी जिले का डीएम और एसपी जो प्रशासनिक दबदबे की धुरी है, उन्हें अपनाए बिना कुशलता से कार्य संचालन कर सके यह सम्भव ही नहीं है। दूसरी ओर उसे एक लाख रुपए महीने वेतन मिले तब भी वह अपने स्तर के जीवन निर्वाह में सक्षम नहीं हो सकता। सरकार यह भी नहीं कर सकती कि रातोंरात डीएम और एसपी का वेतन दस लाख रुपए महीने कर दे क्योंकि उसे वेतन ढांचा अधिकतम और न्यूनतम वेतन के अनुपात का ध्यान रखते हुए और अन्य कई व्यवहारिक बातों को ध्यान में रखते हुए निर्धारित करना पड़ता है। हर दिन कई गुना महंगाई भी हो रही है। उसकी दौड़ के हिसाब से कदमताल करना सरकारी तंत्र के लिए सम्भव नहीं है। देखा जाए तो बड़ी कम्पनियों के प्रबंधन के अधिकारियों की तुलना में डीएम और एसपी का वेतन कुछ नहीं है जबकि उनकी जिम्मेदारियां निजी कम्पनियों के मैनेजरों की तुलना में बहुत अधिक हैं। ऐसे में अगर आप वैधानिक तरीके से उनके आर्थिक अस्तित्व की रक्षा नहीं कर सकते तो अनौपचारिक रूप से उन्हें अपने स्तर के अनुरूप जीवन चलाने की छूट देना व्यवस्था की मजबूरी होगा। जिन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई को एक सनसनी समझ रखा है वे पत्तों पर प्रहार करते हैं जड़ों पर नहीं, जिसकी वजह से उनके प्रयासों से भ्रष्टाचार का उन्मूलन सम्भव है ही नहीं।

वाड्रा तो फिर भी तीन पीढ़ियों से बड़ा व्यापार कर रहे हैं और फेवर की सरकार होने से चूंकि उनकी झोली पहले से ही बड़ी है तो उसमें ज्यादा से ज्यादा मुनाफा बटोरने की सुविधा उन्हें मिल जाना आसान हैलेकिन वे लोग जो इस भ्रष्टाचार पर आक्रोश में अपना कुर्ता फाड़े दे रहे हैं यदि उनके गिरेबान में झांकें तो मालूम होगा कि नेता बनने के पहले कुछ बीघा क्षारीय जमीन उनके पास पुश्तैनी सम्पत्ति के नाम पर थी। उन्होंने कोई व्यापार भी नहीं किया क्योंकि जो कुछ उनका बनाबिगड़ा राजनीतिक कैरियर की वजह से और अपने आपमें वह व्यापार से भी ज्यादा पूर्णकालिक व्यस्त कार्य हैलेकिन अगर वे वाड्रा के बराबर हो गए हैं तो उन्होंने यह चमत्कार कैसे कियायह एक अबूझ पहेली है, लेकिन वे सबसे आगे बढ़कर बाहें फटकार रहे हैं तो इसका मतलब है कि उन्होंने लोगों को मूर्ख समझ लिया है। यह दूसरी बात है कि अब स्थितियां बदल चुकी हैं और मूर्ख लोग नहीं बल्कि वे सफेदपोश हैं जो आपका समर्थन पाने की आशा में आपके खिलाफ जुबान नहीं खोलना चाहते और आपके सहारे भ्रष्टाचार को खत्म करने का दिवास्वप्न जनता को दिखाना चाहते हैं।

ऐसे सफेदपोशों में कुछ लोग तो बेहद मायावी हैं जिनकी अपनी करतूतें खुलेंगी तो देश भौचक रह जाएगा और कुछ लोग अति महत्वाकांक्षा के शिकार होने के कारण नाटकीय हो गए हैं।

व्यवस्था की चुनौतियों के कारण जो स्याहसफेद हो रहा है लोग उस भ्रष्टाचार से व्यथित नहीं हैं लोग तो उस भ्रष्टाचार से आजिज हैं जिसकी वजह से इस देश में रूल ऑफ लॉ और नागरिकों के न्यूनतम मौलिक अधिकार निरीह होकर रह गए हैं। मनोवैज्ञानिक स्तर पर सही काम करने वाले को जिस भ्रष्टाचार की वजह से आज की व्यवस्था में नाकारा होने की अनुभूति झेलनी पड़ती है क्योंकि उसके सामने दंदफंद करने वाला दूसरा आदमी न केवल पैसे में आगे बढ़ जाता है बल्कि समाज से सम्मान लेने में भी वह उससे कई गुना आगे दिखाई देता है। यह भ्रष्टाचार कैसे समाप्त होगाभ्रष्टाचार विरोधी अलम्बदारों से ज्यादा उसे आशा की किरण हाईटेक हो रही व्यवस्था में नजर आ रही है। हर आंकड़ा ऑनलाइन, हर तथ्य ऑनलाइन यह इंटरनेट व कम्प्यूटर की वजह से सम्भव हो रहा है और इसने बहुत कुछ चीजों को पारदर्शी बना दिया है या बनाने की ओर अग्रसर कर दिया है।

जाहिर सी बात है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ सबसे ज्यादा कारगर मंत्र व्यवस्था में पारदर्शिता लाना है और तकनीकी क्रांति ने इसका अवसर काफी हद तक सुलभ करा दिया है, लेकिन तकनीक पर मनुष्य निर्भर हो जाए यानी वह तकनीक के आगे स्वयं को बौना मानकर अकर्मण्यता ओढ़ ले तो यह तो सृष्टि में सभी जीवों के बीच मनुष्य की स्थापित महानता के विरुद्ध आचरण होगा, लेकिन उसे जो करना है वह चंद चेहरों को बेनकाब कर मस्त हो जाने से नहीं होगा। असल जिंदगी न तो खबरों का व्यापार करने वाली मीडिया की दुनिया है न ही कोई अमिताभ बच्चन की फिल्म हैकि एक चिह्नित खलनायक को खत्म कर दिया और सुधर गई व्यवस्था। बदलाव का रास्ता बेहद कठिन है और उसके लिए गहरी समझदारी व दृढ़ इच्छाशक्ति की जरूरत है।

हम तथाकथित सफल देशों के नक्शेकदम पर चलकर ऐसे रास्ते पर क्यों चलें जिस पर हमारी व्यवस्था का संतुलन डगमगा जाना अपरिहार्य है। हमारे देश की आबादी सवा अरब से ज्यादा हो गई है। हम यहां महंगी निजी गाड़ियों की ललक क्यों पैदा करेंक्यों उनके उत्पादन में टैक्स की छूट दें जबकि हम जानते हैं कि इतनी बड़ी आबादी ने अगर निजी वाहन की सुविधा अफॉर्ड की तो व्यवस्था को सड़कपुल, यातायात प्रबंधन, बीमा क्लेम आदि में इतने ज्यादा संसाधन झोंकने पड़ेंगे कि तरक्की के लिए दूसरा कुछ वह कर ही नहीं पाएगी। सारी व्यवस्था बाईपास बनाने में ही खटती रहेगी। न उससे शांति और सुरक्षा का दायित्व निर्वाह करने की आशा रह जाएगी न लोगों की शिक्षा और चिकित्सा की परवाह करने की। सपाट शब्दों में कहें तो यह एक उदाहरण है, लेकिन अंधानुकरण से हमने खुद अपने आपको अराजकता की ओर ढकेल दिया है, चूंकि सफेदपोश सबसे ज्यादा सुविधाभोगी हैं, इस कारण पूंजी और उत्पादन की शक्ति को बेवजह के कामों में लगाने का विरोध करने की उससे कल्पना भी नहीं की जा सकती। यह तो पूरा माइंडसेट बदलने की बात होगी और बात होगी आध्यात्मिक पुनर्जागरण कीजिसमें सादगीअपरिग्रह और त्याग सर्वोच्च मूल्य हैं। इनका आग्रह करने पर यह सफेदपोश कहेंगे कि अब दुनिया इतनी आगे बढ़ चुकी है कि पुरानी नैतिक व्यवस्था में इसे बांधना नामुमकिन हैलेकिन स्थितियां पुरानी होती हैं मूल्य तो हमेशा शाश्वत हैं और असम्भव को सम्भव करना ही परिवर्तन हैक्रांति हैइसी के साथ विराम।

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