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इस देश में समय–समय पर भ्रष्टाचार के विरुद्ध जनजागृति होती रही है। इस बार जागृति का क्वथनांक इतना ऊंचा है कि शायद कोई क्रांति हो ही जाएगी। खासतौर से अरविंद केजरीवाल की मुहिम से सम्मोहित युवाओं में सरफरोशी की तमन्ना जैसा जोश है। इस संदर्भ में अतीत से लेकर वर्तमान तक के इतिहास के कुछ अध्याय पलटने होंगे।
(१) कांग्रेस के खिलाफ बोफोर्स तोप सौदे में दलाली लेने का आरोप लगा था। १९९० में कांग्रेस के उपकार से बनी चंद्रशेखर सरकार के इशारे पर सीबीआई ने इस मामले के आपराधिक मुकदमे में क्लोजर रिपोर्ट लगा दी। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सरसरी तौर पर दलाली को जाहिर करने के पर्याप्त सबूत हैं। इस कारण क्लोजर रिपोर्ट लगाकर किनारा करने की बजाय सीबीआई जांच जारी रखे।
(२) १४ साल बाद दिल्ली हाईकोर्ट ने एक रिवीजन याचिका में यह ठहराया कि सीबीआई ने परीक्षण अदालत में इस मामले में जिन दस्तावेजों के आधार पर चार्जशीट लगाई है वे स्वीडन से लाए गए साक्ष्यों की छायाप्रतिलिपि हैं और भारतीय साक्ष्य अधिनियम के अनुसार छायाप्रतियां अदालत द्वारा संज्ञान में नहीं ली जा सकतीं। इन छायाप्रतियों को सत्यापित करने के लिए स्वीडन के सम्बंधित अधिकारियों की गवाही भी कराने में सीबीआई सक्षम नहीं है। ऐसी हालत में मुकदमे की कार्रवाई आगे नहीं बढ़ सकती और मामला खत्म कर दिया गया।
(३) कानूनी कार्रवाइयों के इन चरणों से यह स्वयंसिद्ध है कि बोफोर्स तोप सौदे में भ्रष्टाचार हुआ था। इसे अदालत ने साबित माना, लेकिन कौन लाभान्वित हुआ, इसकी सही तफ्तीश करने में सीबीआई के अक्षम रहने की वजह से दोषियों को दंडित करने में अदालत ने असमर्थता व्यक्त कर दी।
(४तत्कालीन परिस्थितियों में बोफोर्स सौदे में गड़बड़ी भ्रष्टाचार के दानव का एक प्रतीक थी और इसे तार्किक परिणति पर पहुंचाने के लिए प्रयास करना इस कारण जरूरी था ताकि जनता में आत्मविश्वास पैदा हो सके कि यह दानव अवध्य नहीं है। इसका भी संहार हो सकता है।
(५आश्चर्य की बात यह रही कि भ्रष्टाचार से इतनी ज्यादा दुखी बताई जा रही जनता ही यह अभिव्यक्ति करने लगी कि इसके लिए इंगित लोग मासूम हैं और भ्रष्टाचार खत्म हो या न हो बल्कि और ज्यादा बढ़ जाए, लेकिन इन लोगों पर आंच नहीं आनी चाहिए। जनमत के इस रुख की वजह से ही कांग्रेसियों की यह हिम्मत हुई कि वे अदालत के फैसले की मनमानी व्याख्या करें। वे जब यह कहते थे कि बोफोर्स तोप सौदे में दलाली ली ही नहीं गई और आखिर में अदालत में हमारे नेता पाकसाफ होकर निकले तो कोई यह कहने वाला नहीं था कि झूठ क्यों बोलते होअदालत के सारे आदेशों का निष्कर्ष है कि दलाली तो ली ही गई थी। पर्याप्त साक्ष्य न होने से दोषी दंडित नहीं किए जा सकते क्योंकि भारत के कानून में है कि चाहे सौ मुजरिम बच जाएं पर एक निर्दोष को सजा नहीं मिलनी चाहिए।
(६कारगिल युद्ध में बोफोर्स ने जिस तरह काम किया उसके आधार पर एक बार फिर मीडिया से लेकर जनमत के तमाम और स्वयंभू प्रवक्ताओं ने दहाड़ते हुए कहा कि बोफोर्स की खरीद में दलाली का मुद्दा उठाकर कितना झूठ बोला गया था और यह कितना सही सौदा था जबकि आज देश की आनबानशान को इसी बोफोर्स तोप ने बचाया है।
अब संप्रग सरकार के केंद्र में पदारुढ़ होने के बाद के सीन देखें–
(७क्वात्रोची को बचाने के नाम पर सरकार को घेरकर संसद में बारबार हंगामे हुए। मीडिया में भी बिना नाम लिए सोनिया गांधी को कटघरे में खड़ा किया गया। अरे भले आदमियों यह तो बताओ जब पहले कह रहे थे कि अदालत ने बोफोर्स तोप सौदे में दलाली के आरोप को गलत साबित कर दिया है तो अब नेता हो या इटली का नागरिक क्वात्रोची वे दोषी कहां बचे। इसके अलावा कारगिल युद्ध में देश के लिए वरदान साबित होने के बाद जब बोफोर्स की शान पर बट्टा लगाना आप लोगों ने देशद्रोह करार दे दिया था तो फिर उसका सौदा कराने वाला क्वात्रोची नमन किए जाने योग्य है या उसे निंदित किया जाए।
(८अगर लोगों के अंदर भ्रष्टाचार को लेकर इतना ही गुस्सा धधक रहा है तो केंद्र के घोटाले तो आम जनता के लिए बहुत अप्रत्यक्ष होते हैं। जनता को भ्रष्टाचार की व्यवस्था से होने वाले उत्पीड़न का दंश जब राज्य सरकार के स्तर पर यह बुराई चरम सीमा पर हो तब बहुत बुरी तरह से चुभता है। इस कारण उसकी भ्रष्टाचार विरोधी चेतना की अभिव्यक्ति के जलजले में केंद्र के नेता तो डूबेंगे ही लेकिन उसके पहले इस बुराई के खिलाफ उसका खूंखार स्वरूप राज्य के दागी नेताओं का सफाया कर देगा। क्या यह माना जाए कि उत्तर प्रदेश जो कि देश का सबसे बड़ा राज्य हैइसमें जनसमर्थन का मायावती और मुलायम सिंह के प्रति कम न होना स्वच्छ व्यवस्था के लिए जनमत के जबर्दस्त आग्रह का परिचायक है या तथाकथित बुद्धिजीवियों के निष्कर्ष में कोई गड़बड़ी है जिस पर वे विचार नहीं करना चाहते।
(९भारतीय समाज का अभी तक का आचरण यह बताता है कि पूरी दुनिया में भ्रष्टाचार और अनैतिकता को समाज की सामूहिक चेतना कभी स्वीकार नहीं करती लेकिन यहां यह स्थिति नहीं है। यहां कोई और बात है जिसके लिए भ्रष्टाचार को पूजना भी पडे़ तो भारतीय समाज तैयार है। अरविंद केजरीवाल का आंदोलन इस गणित से क्रांति में बदल जाने की कल्पना करना आत्मप्रवंचना के अलावा और कुछ नहीं है।
(१०मौजूदा केंद्र सरकार ऐसे ही एक अगूढ़ कारण की वजह से भारत के बौद्धिक अगुआ समाज की निगाह में सबसे बड़ी खलनायक है। उसे इस सरकार में बैठे रावणों का वध करना ही है चूंकि उन्हें भ्रष्टाचारी साबित करके यह उद्देश्य हासिल करने में ज्यादा आसानी हो सकती है अन्यथा अगर वे बहुत दूध के धुले भी हों तब उन्हें विदेशी मूल के होने या अन्य कई तरह के तर्कों के अस्त्र से मार गिराने के लिए यह भ्रम पैदा करना लाजिमी है कि इनके न रहने के बाद सतयुग आ जाएगा।
(११संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की मुखिया का विदेशी मूल का होना,उनका यह भेद खुल जाना कि वे भले ही हिंदू परम्पराओं और संस्कारों के प्रति अपनी वफादारी साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही हैं, इसके बावजूद वे मूल रूप से ईसाई धर्मावलम्बी हैं। उन्होंने प्रधानमंत्री के पद पर एक अल्पसंख्यक को विराजमान कर रखा है। उनके समय केंद्र में जो शक्ति केंद्र उभरे हैं, यह संयोग नहीं हो सकता कि वे सभी या तो धार्मिक रूप से या जाति के तौर पर या क्षेत्र के तौर पर राष्ट्रीय राजनीति की मुख्य धारा से छिटके हुए तबकों का प्रतिनिधित्व करते हैंक्या यही कारक तो केंद्र सरकार के खिलाफ अपने आपको देश का नियामक समझने वाले वर्ग में उनके प्रति घृणा की भावना का उद्दीपन नहीं कर रहे।
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मजाक में तो सोनिया गांधी को स्वयंभू संकटमोचक के रूप में मेरी ओर से यह मशविरा है कि वे राहुल बाबा की शादी तत्काल किसी भारतीय और हिंदू लड़की से कर दें ताकि पहले नेहरू परिवार की बहू के रूप में बनाई गई अपनी छवि को गंवाने की उन्होंने जो गलती की है उसका शमन हो सके। इसके बाद अंत भला सो सब भला की तरह सोनिया गांधी का भी भला हो जाएगालेकिन गम्भीरता के आधार पर इस पूरे विश्लेषण का सार यह है कि केंद्र सरकार में बैठे लोगों ने वास्तव में इंतहा कर दी है पर मुख्य धारा के जितने दल और नेता हैं उनमें से कोई उनसे कम नहीं है। पूरी राजनीतिक व्यवस्था पर चाहे वे पक्ष के लोग हों या विपक्ष केअलीबाबा–चालीस चोर हावी हैं और उनके सहजोर होने की वजह यह है कि जनमत का निशाना भी सामाजिक कारणों की वजह से भ्रष्टाचार पर सटीक नहीं लग पाता। इस बार भी बोफोर्स तोप सौदे की तरह ही मौजूदा खुलासों का पानी के बुलबुले की तरह समय निकलने के साथ हश्र हो जाएगा। जब तक भ्रष्टाचार की स्थितियां पैदा करने वाले मूल कारकों का जिनमें वर्ण व्यवस्था और उपभोग पर आधारित अध्यात्म विरोधी बाजार व्यवस्था का अंत नहीं हो जाता तब तक भ्रष्टाचार विरोधी नाटकीय लड़ाइयां अखबारों और टीवी चैनलों की सुर्खियां तो बनेंगी लेकिन उनसे कोई परिवर्तन नहीं होगा।
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