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महारथियों के बीच भी पहचान बना सकता अकिंचन

बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
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अखबार अब एक बड़ी पूंजी का उद्योग हो गया है। हालांकिअब यह सुविधा भी हो गई है कि बड़े शहरों में एक ऑफसेट मशीन पर कई छुटभैया अखबारों की चार सौपांच सौ प्रतियां छपती रहती हैं, जिससे अपने को समाचारपत्र स्वामी और सम्पादक के रूप में स्थापित करने वाले लोग सस्ते में यह हैसियत हासिल कर लेते हैं। घोषणापत्र में जिस शहर से अखबार का प्रकाशन हो वहीं से मुद्रण की बाध्यता भी नहीं रह गई है। इस कारण कम पूंजी के और जिला स्तर के अखबारों में किसी की अच्छी पत्रकारिता के नमूने के रूप में पहचान स्थापित नहीं हो पा रहीलेकिन अभी से एक दशक पहले तक स्थिति यह नहीं थी। स्वयं मैंने १९८८ से लेकर १९९९ तक उरई में नगर सेठ का खिताब प्राप्त श्री प्रदीप माहेश्वरी के अखबार लोकसारथी का सम्पादन कियाजिसकी लोकप्रियता और प्रतिष्ठा का आलम यह रहा कि लोग इसके सामने राष्ट्रीय और प्रदेश स्तर के अखबारों को कमतर मानते थे। गरिमा ऐसी कि डिग्री कॉलेज के प्रोफेसर और चिंतनशील लोग लोकसारथी में अपने आलेख प्रकाशित होना धन्य मानते थे। लोकसारथी ने अगर किसी अधिकारी को बुरा करार दिया और उसने उत्पीड़ित कर अखबार को दबाने की कोशिश की तो जनांदोलन छिड़ गया। चुनाव में विचारधारा के आधार पर जनमत निर्माण की लोकसारथी की मुहिम इतनी सार्थक रहती थी कि कई बार चुनाव परिणाम की दिशा बदलने में लोकसारथी का अहम योगदान रहा।

उस दौर में सांसदविधायक और मंत्री ही नहीं जिलाधिकारी और जिला पुलिस प्रमुख की बजाय शहर के गणमान्य लोग कोई उद्घाटनसमापन कराने में अखबार के सम्पादक को प्राथमिकता देते थे। मेरे मना करने के बाद ही इन महाप्रभुओं की बारी कार्यक्रम में आमंत्रित करने के लिए मानी जाती थी। यह वह दौर था जब जनता दल सरकार की उठापटक की खबरों से देश में एक हलचल रहती थी। इसी दौर में मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू हुई, राम जन्मभूमिबाबरी मस्जिद आंदोलन गरमाया। अयोध्या में ढांचे को ढहाने गये हिंदुत्व समर्थकों पर गोली चालन हुआ। फिर बाबा साहब डॉअम्बेडकर की पुण्यतिथि के दिन अयोध्या के ढांचे को गिराने के बहाने धर्म निरपेक्ष और समतामूलक भारतीय संविधान की आत्मा को ध्वस्त करने के परपीड़न सुख का आनंद लिया गया। यह वह दौर था जब उन वर्गों में लिखनेपढ़ने की चेतना बढ़ रही थी जिन्हें सदियों से विचारशीलता से दूर धकेला गया था। दलितपिछड़े वर्ग के लोगों की पसंद का अखबार कैसा होयह एक चुनौती थी। मुसलमान भी बेचैन थे कि क्या हिंदी समाचारपत्र जगत में उन्हें इंसाफ की नजर से देखने वाले लोग मिल सकते हैं। लोकसारथी ने इस मामले में धारा से हटकर सम्पादकीय लेखन किया। मैं कभी किसी प्रतिबद्ध राजनीतिक आंदोलन का सक्रिय कार्यकर्ता नहीं रहा हूं। जिस वर्ग से था उसकी चेतना के तहत लीक से हटकर या दूसरे पक्ष में परकाया प्रवेश करके तार्किक औचित्य के आधार पर नीरक्षीर चिंतन कर सकूंऐसी कोई परिस्थिति और परिवेश मेरे लिए उपलब्ध नहीं था। आश्चर्य है कि इसके बावजूद मैं वर्गीय पूर्वाग्रह को झटककर अपने दायित्व के निर्वाह के लिए मुखातिब हो सका। इस कठिन दौर में जनपक्षधरता के सही मुकाम को चुनने में मैंने चूक नहीं की। हालांकिलोकसारथी के स्वामी मेरे विचारों से सहमत नहीं थे, लेकिन उनके अंदर यह ख्याल था कि सम्पादक की वैचारिक स्वायत्तता में अपनी असहमति के बावजूद दखल देना गरिमा के खिलाफ है और उनकी यह सोच मेरे लिए सम्बल बनी।

दूसरी ओर अखबारों का जो नया पाठक वर्ग तैयार हुआ। स्थानीय स्तर पर वह लोकसारथी के प्रति इस कदर समर्पित हो गया कि अखबार के उत्कर्ष काल में कानपुर से आने वाले समाचारपत्र भी उसके सामने प्रसार की होड़ में पीछे हो गए। साहित्य अकादमी सम्मान से पुरस्कृत डॉरामशंकर द्विवेदी विचारधारा के दृष्टिकोण से विपरीत ध्रुव पर खड़े थे और इसमें उन्होंने कोई बदलाव नहीं कियालेकिन इसके बावजूद उन्होंने मेरे प्रति जबर्दस्त स्नेह दिखाया। यह मेरी और अखबार की स्वीकार्यता को मजबूत करने वाला तथ्य बना। उन्होंने बिना कोई पारिश्रमिक लिए लोकसारथी में दस्तक के नाम से एक स्तम्भ लिखा जो बाद में दिल्ली के एक मशहूर प्रकाशन से पुस्तक के रूप में बाजार में आ चुका है और खासा बिका है। डॉद्विवेदी ही नहीं दक्षिणपंथी विचारधारा के कई विद्वान थे जिन्होंने लोकसारथी के स्टैंड से सहमत न होते हुए भी मेरे प्रति सकारात्मक आस्था रखी। चाहे एसएसपी के खिलाफ आंदोलन चला हो या डीएम के,यह लोग हमेशा मेरे समर्थन की अगुवाई के लिए तत्पर हुए। जिन्होंने मेरे साथ वैचारिक समीपता बना रखी थी उन गणमान्यों का समर्थन मिलना तो स्वाभाविक ही था। पेशेवर दृष्टिकोण से भी लोकसारथी किसी भी दिग्गज व्यवसायिक अखबार से कम नहीं रहा।

उन दिनों दूरदर्शन पर प्रसारित रामायण और महाभारत सीरियल को लेकर अखबार में जिस तरह से परिचर्चाएं प्रायोजित की गईं उससे लोकप्रियताप्रसार दोनों में अखबार को काफी फायदा हुआयानी भागीदारी की पत्रकारिता जिसे अब रीडर कनेक्ट भी कहा जाने लगा है लोकसारथी ने इसका सबक तब समाचारपत्र जगत को पढ़ाया जब स्थापित अखबार इसकी कल्पना भी नहीं कर पाए थे। नवीनतम और रोमांचक समाचार देने में लोकसारथी की तेजी का हाल यह था कि कई पुलिस अधिकारी मुझसे यह कहते थे कि या तो आपने चोरी से कोई वायरलेस तंत्र संचालित करने की व्यवस्था बना रखी है या आपकी बदमाश गिरोहों से गहरी साठगांठ हैजिसके कारण सुदूर के थानों को अपने क्षेत्र में होने वाली घटनाओं की सूचना बाद में मिलती है और आप उस विषय में हम लोगों से पहले पूछताछ कर लेते हैं। लोकसारथी व अपने द्वारा सम्पादित आधा दर्जन से ज्यादा अन्य स्थानीय दैनिकों के बारे में मैं उदाहरण के साथ विस्तार से ब्लॉग में श्रंखला चलाना चाहता हूं, वजह यह है कि स्थापित अखबार स्थानीय जनभावनाओं को पूरा मंच नहीं दे पा रहे हैं और आज भी जिला स्तर के पेशेवर दृष्टि से सक्षम और विचारधारा से परिपूर्ण अखबारों की बहुत आवश्यकता है, जिनके बड़े अखबारों की तरह मुनाफे को लेकर बहुत ऊंचे ख्वाब न हों और जो सामाजिक सरोकारों की पूर्ति में वैभव से ज्यादा शांति और तृप्ति महसूस करें। लोकसारथी के जिक्र से शुरुआत इसलिए की है क्योंकि यह इस मामले में एक मॉडल है। लोकसारथी के आने तक इटावा के देशधर्म की क्रांतिकारी पहचान को काफी हद तक विराम लग चुका था। इस कारण मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि लोकसारथी पूरे उत्तर प्रदेश का जिला स्तर से छपने वाला सर्वाधिक जनप्रिय और लोगों की निगाह में विश्वसनीय अखबार था।

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