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यातायात माह में दुखियारी पुलिस

बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
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पुलिस का यातायात जागरूकता माह आज 1 नवंबर से शुरू हो गया लेकिन यातायात संबंधी अनुशासन के नाम पर पुलिस में कोई सक्रियता नजर नहीं आयी। जिला पुलिस प्रमुखों का रोना है कि उन्हें कोई फंड ही नहीं दिया गया। कुछ करायें भी तो पैसे कहां से लायें। बेचारे पुलिस के अधिकारी मामूली मानदेय पर समाजसेवा जो कर रहे हैं नतीजतन उन्हें यह पीड़ा जाहिर करनी पड़ी है। वैसे क्या गजब है कि पुलिस यह कह रही है कि उसके पास पैसे का इंतजाम नहीं है। इससे ज्यादा मक्कारी की कोई बात नहीं हो सकती।

हालांकि पुलिस से अपनी तरफ से सरकारी काम के लिये साधन जुटाने की जो बात कही जाती है मैं उसके बेहद खिलाफ हूं। पुलिस को तफ्तीश के सिलसिले में कहीं आनेजाने के लिये पूरा डीजल, पेट्रोल मिलना चाहिये जो नहीं मिलता। थानों पर पूछताछ व अन्य काम से रोज लोगों को बुलाना पड़ता है। खानपान के लिये भी फंड हो। थाना भवनों के रखरखाव, स्टेशनरी आदि के लिये भी फंड नहीं मिलता।

अपनी तरफ से व्यवस्था करने का बोझा पुलिसजनों पर डालने का अंग्रेजों के जमाने से चला आ रहा है। इसी रिवाज का नतीजा विभाग में पनपी लुटेरी मनोवृत्ति है लेकिन यातायात जागरूकता जैसा काम अलग प्रकृति का है। यह ड्यूटी नहीं हर पुलिस अधिकारी का व्यक्तिगत सामाजिक दायित्व है। पुलिस का दबदबा कितना होता है सब जानते हैं। अगर इस दबदबे का वह रचनात्मक उपयोग करे तो किसी पुलिस अधिकारी को अपनी जेब से ऐसे कामों के लिये खर्च नहीं करना पड़ेगा। अगर एसपी और एसओ स्कूल संचालकों व अन्य धन्ना सेठों से योगदान के लिये बात कर लें तो बिना एक सरकारी पैसा खर्च किये यातायात जागरूकता ही नहीं प्रबंधन तक के लिये इतना कुछ हो सकता है कि लोगों को आनंद आ जाये। अभी कुछ दशक पहले तक डीएम और एसपी अपने जिले का महोत्सव कराने से लेकर कितने बड़ेबड़े सामाजिक कार्य बिना सरकारी बजट के करा देते थे तब उनके दिमाग में भी यह बात नहीं आती थी कि सामाजिक कार्यों के लिये भी सरकारी बजट मिलना चाहिये पर आज पुलिस अधिकारी सभी से तो पैसा ले रहे हैं। रिश्वतखोरी दाल में नमक के बराबर नहीं बल्कि व्यापारियों व किसी को भी जो उनके अर्दब में हैं पूरी तरह चूस डालने की हद तक है। उस पर भी मानसिकता यह है कि अगर कोई 20-25 हजार रुपये एसपी के कहने से सामाजिक कार्य को देने को भी तैयार हो तब भी एसपी साहब की नीयत गवारा नहीं करेगी। उन्हें लगेगा कि यह बड़ा आदमी यातायात जागरूकता के लिये जो पैसा दे रहा है उसके पीछे मेरे पद और वर्दी का डर है जिसकी वजह से यह मेरे हक का पैसा हुआ।

मैं यातायात जागरूकता के लिये किसी से पैसा क्यों मांगूं। अगर दिखता है कि कोई मुझसे दबकर पैसा दे सकता है तो वह पैसा भी ले लूंगा और सीधे अपनी जेब में रखूंगा। हालांकि जिलों की पुलिस के लिये इस मामले में दूसरी भी समस्यायें हैं। जब सूर्यकुमार शुक्ला यातायात पुलिस के अपर महानिदेशक थे तो उन्होंने व्यवस्था की थी कि जिलों की पुलिस यातायात नियमों को तोडऩे वालों से जितना जुर्माना वसूलेगी उसका 75 प्रतिशत हिस्सा उसी जिले को इसलिये लौटा दिया जायेगा ताकि जिलों के अधिकारी अपनी जरूरत के मुताबिक सुचारु यातायात की व्यवस्थाओं के लिये खर्चा कर सकें। वे हटे तो आने वाले अफसरों को लालच के कारण यह उदारता मंजूर नहीं रही। अब वे जिलों में यातायात जुर्माने के संग्रह का एक धेला नहीं देते। आइकॉन, ट्राली बैरियर आदि सामानों की केंद्रीयकृत खरीद करते हैं ताकि कमीशन का लाभ खुद को मिल सके। यातायात जागरूकता का बजट भी वे अपने स्तर पर पुस्तिकायें, पंपलेट थोक में छपवाने में खर्च कर लेते हैं।

यह विसंगतियां तो हैं ही लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि पुलिस यातायात नियमन को अपनी प्राथमिकता में नहीं रखती। दिवंगत आईपीएस अफसर हाकिम सिंह अकेले ऐसे थे जिन्होंने डीजीपी होने पर अनुशासित यातायात को अपनी प्राथमिकता में घोषित किया था। वे मूलतपंजाब के रहने वाले थे और उनके तमाम रिश्तेदार अमेरिका व अन्य पश्चिमी देशों में थे। इस कारण कई बार अमेरिका के शहरों में वे घूमे और पुलिस की जरूरत के चश्मे से अमेरिका की व्यवस्थाओं को देखा। उन्होंने पाया कि पश्चिमी देशों में पुलिस बड़ी मस्त है। दरअसल वहां जीरो टोलरेंस जैसे अभियान मेट्रो पुलिस चलाती है। इसमें पार्किंग के लिये तय स्थान को छोड़कर दूसरी जगह वाहन खड़े करने वालेजल्दी निकलने की हड़बड़ी में गलत साइड में घुस जाने वालेचौराहे पर सिग्नल देखकर भी न रुकने वाले वाहन चालक को किसी भी तरह बख्शा नहीं जाता भले ही वह कितना भी प्रभावशाली क्यों न हो। सार्वजनिक स्थान पर सिगरेट पीना मना है तो मना है। पकड़े गये तो राष्ट्रपति का बेटा क्यों न हो जुर्माना भरना पड़ेगा। छोटीछोटी बातों पर सख्ती से नियमों का पालन करना वहां के लोगों की प्रैक्टिस में शामिल हो गया है। प्रतिशत लोग वैसे भी आज्ञाकारी स्वभाव के होते हैं लेकिन अराजक समाज में उनकी भी हरकतें बिगड़ जाती हैं। अगर अराजक माहौल नहीं रहेगा तो बस पुलिस के लिये उन प्रतिशत लोगों को काबू में करने का काम रह जायेगा जो मानसिकता से अपराधी हैं।

पश्चिम की पुलिस को अपने आम नागरिकों का नहीं बस इसी पांच फीसदी हिस्से पर काम करना पड़ता है। यदि भारत में भी पुलिस जीरो टोलरेंस का महत्व समझ ले तो यहां अनुशासित समाज का निर्माण अमेरिका से ज्यादा आसान है। ट्रैफिक की अराजकता यहां शरीफों तक को बिगाडऩे का सबसे बड़ा कारण है। सिटी मजिस्ट्रेट और सीओ सिटी उत्तर प्रदेश के हर जिला मुख्यालय पर तैनात हो गये हैं लेकिन इन पदों पर बैठे अफसर काठ के उल्लू हैं। इनका बुनियादी काम होना चाहिये कि शहर में अतिक्रमण पर एकदम अंकुश लगायें, मुख्य बाजार में हर हाल में पार्किंग के लिये जगह तय करायें और कम से कम शहर के अंदर तो वाहन चालन नियमों के अनुसार लोग करने के लिये बाध्य रहें इसके प्रति सख्त रहें लेकिन यह अपनी भूमिका और पद के औचित्य के बारे में किसी को समझा नहीं पा रहे। पांच साल में ट्रैफिक अनुशासन की प्रतिबद्धता दिखा दी जाये तो आम नागरिकों में बढ़ती अराजक मानसिकता का एकदम समन हो जायेगा और पुलिस की चुनौती काफी हल्की हो जायेगी लेकिन इस जरूरत को न भांप पाना बताता है कि हमारी सर्वोच्च प्रशासनिक प्रतियोगिता प्रणाली तक में कितना खोट है। किताबों के रट्टू तोता ही इसमें चयनित हो सकते हैं लेकिन चुनौतियों से निपटने का हाजिर जवाब दिमाग वे कहां से ला पायेंगे।

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