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रईस हो तो भूता जी जैसा

बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
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भिंड में स्वनाम धन्य हरिकिशन दास जाधव जी भूता हुये हैं। वे भिंड की नगर पालिका के ऐतिहासिक अध्यक्ष रहे। जब मैं पांचवीं में पढ़ता था संदिग्ध स्थितियों में उनका देहावसान हो गया था। खुले वाहन में नगर की सड़कों पर उनकी शवयात्रा निकाली गयी जिसमें हजारों लोग उमड़े।

भूता जी गुजराती वैश्य समाज के थे और भिंड में उनका इकलौता परिवार था। लोकतांत्रिक राजनीति में जातिवाद का बोलबाला आजादी के बाद से ही रहा है लेकिन भूता जी तो अपवाद थे। इसी कारण जातिवाद की सरहदें पार कर वे नगर पालिका के अध्यक्ष बन सके। धनाढ्य तो हर कोई हो सकता है लेकिन वैभवशाली होकर कुलीन रईस होने के लिये धन के साथसाथ संस्कार होना भी जरूरी हैं। भूता जी की धुंधली सी स्मृतियां मेरे जेहन में ताजा रहती हैं। जब तक होश नहीं संभाला धनाढ्य होने और कुलीन होने में क्या फर्क है इसे नहीं समझ पाया लेकिन जैसेजैसे निजी जीवन में मेरा संघर्ष बढ़ा मैंने शब्दों के बारीक अर्थ को समझना शुरू किया तो मेरे लिये भूता जी एक प्रतीक हो गये। मुझे याद आती है भूता जी की कोठी जिसका स्थापत्य प्राचीन काल के विश्व प्रसिद्ध नगरों के रईसों की इमारतों के अनुरूप था। भूता जी अच्छा कारोबार करते थे और इसके बाद उनको सांस्कृतिक, साहित्यिक गतिविधियों में भी पूरी रुचि थी जिसमें दिल खोलकर खर्च किया करते थे। उनकी कोठी में देश के दिग्गज कवियों और लेखकों में से किसी एक का चातुर्मास हर साल होता था। बाबा नागार्जुन भी उनमें से एक थे। उनके आतिथ्य सत्कार की व्यवस्था में वे कोई कोताही नहीं करते थे। लेखक को खानेपीने में उसकी जो पसंद हो सब मिलता था। मेरे तमाम अग्रज मुझे बताते थे कि उनके समय के कई स्टार साहित्यकारों ने भूता जी की कोठी में उस दौरान प्रवास कर भिंड नगर को धन्य किया।

भूता जी पालिका के अध्यक्ष हुये तो उन्होंने अपनी रुचि और संस्कारों के अनुरूप ही यहां भी अपना कमाल दिखाया। उन्होंने हर साल भिंड में एक महीने के अनूठे मेले के आयोजन का अभिकल्पन किया। साहित्य प्रेमी होने के कारण इसके लिये मेला स्थल पर 50 हजार की क्षमता वाला निराला रंग विहार स्टेडियम बनवाया। निराला जी वैसे तो पूरे देश के लिये हिंदी साहित्य जगत की एक कालजयी धरोहर हैं लेकिन उनके अपने गृह प्रदेश यूपी में भी उनके नाम पर स्टेडियम नहीं है। शायद निराला के नाम पर देश भर में इतना बड़ा रंग विहार अकेला भिंड में बना था। उनके द्वारा मेला के दौरान जो अखिल भारतीय कवि सम्मेलन और मुशायरे का आयोजन होता था उसके सामने नेहरू जी के समय लाल किले पर होने वाला कवि सम्मेलन भी शायद फीका था।

उनके देहावसान के बाद भी यह परंपरा कई वर्षों तक चलती रही। मैं स्वयं साक्षी रहा हूं कि भिंड के इस आयोजन में देश का शायद ही अपने समय का कोई बड़ा कवि और शायर बचा हो जिसने रचनायें न पढ़ी हों। इसी तरह नुमाइश में अखिल भारतीय बालीवाल टूर्नामेंट का आयोजन भी हर साल कराया जाता था जिसमें देश की सबसे बड़ी टीमें भाग लेने के लिये आती रहीं। दूरदूर तक बालीवाल प्रेमियों के लिये भिंड की नुमाइश के टूर्नामेंट का इंतजार रहता था। भूता जी ने एक प्रकाशन संस्थान भी भिंड में स्थापित किया था जिसका नाम शायद लोकायत था। हालांकि इसमें उन्हें घाटा उठाना पड़ा लेकिन भिंड जिले के उन्होंने मौलिक लेखकों को इसके माध्यम से अपना कृतित्व उजागर करने का मंच प्रदान किया जिनकी रचनायें पढ़कर समकालीन समीक्षकों ने उन्हें साहित्य जगत में गुदड़ी का लाल घोषित किया।

इनमें से बाराकला निवासी बजरंग सिंह भी थे जिनका लोकायत द्वारा प्रकाशित धारा के तिनके उपन्यास बागी समस्या पर सबसे संवेदनशील रचना मानी गयी है। भूता जी के देहावसान के काफी बाद उनके यश प्रताप का ही नतीजा था कि उनके पुत्र नवीन चंद्र भूता ने विधायक निर्वाचित होकर फिर राजनीति में जातिवाद के बोलबाले का मुंह तोड़ा। भूता जी का स्मरण मुझे दीपावली पर करना बहुत मौजू इसलिये लग रहा है क्योंकि आज करोड़पति से लेकर अरबपतियों की जमातें छोटे शहरों में भी पैदा हो रही हैं लेकिन उनके अंदर समृद्ध अभिरुचियां नहीं हैं इस कारण वे कुलीन नहीं हैं। वे अपने वैभव पर कुंडली मारकर बैठे रहते हैं और किसी रचनात्मकता को आश्रय देने का गुण उनमें नहीं होता। वे पैसा खर्च करते हैं उन नेताओं को संतुष्टï रखने में जो उन्हें ब्लैकमेल कर सकते हों। उनका धन समाज में गलत आदमियों के वर्चस्व का कारण बन गया है जबकि अवांछित अराजकतत्वों की पैठ मजबूत होने से सड़क छाप का नहीं धनाढ्यों का ही सबसे ज्यादा नुकसान होता है। उन्होंने आतंकित होकर किसी के लिये खर्च करना जाना है जिसकी वजह से ब्लैकमेलर नेता व अधिकारी पोसे जा रहे हैं। वे शुरू में उनसे कमीशन लेते हैं बाद में उनके धंधे में पार्टनर हो जाते हैं और इसके बाद उनका धंधा खुद हथिया लेते हैं। व्यापारी सड़क पर आ जाता है और गलत लोग व्यापार में स्थापित हो जाते हैं।

आज सबसे बड़ी विडंबना यही है कि व्यापार जगत में व्यापारी नहीं रह गये। पेट्रोल पंप, कंपनियों की एजेंसी, डीलरशिप नेता और अधिकारी चला रहे हैं। यह सब व्यापारिक गुणों और व्यापारिक नैतिकता से परे हैं। इस कारण व्यापार का अनिष्ट हो रहा है जो समाज के लिये घातक है। फिर सबसे बड़ी बात यह है कि आदमी के अंदर कुदरती तौर पर तमाम विशेषतायें होती हैं जिनका प्रकटन अभिरुचियों (हॉबी) के रूप में होता है। बाहरी बढ़ावे से उसकी हॉबी और निखरनी चाहिये पर वह हर हॉबी को किनारे रखकर केवल पैसा कमाने की मशीन बन जाये, कुदरत ने मनुष्य को जिन कारणों से श्रेष्ठता दी है उनकी हत्या कर ले यह बहुत ही अफसोसनाक है। यह तो पैसे की हवस में आदमियत को बेचकर स्वयं को पशु की श्रेणी में धकेलने की तरह है जिसमें कोई हाबी नहीं होती, न ही उसकी कोई सांस्कृतिक रचनात्मक महत्वाकांक्षा होती है।

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