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नेताजी भूल गए यह राजा तो आपको नाचीज अहीर समझते थे

बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
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प्रतापगढ़ जिले के कुंडा में सीओ के मारे जाने की घटना में राजा भइया दोषी हैं या नहीं, यह एक अलग बात है और चूंकि मामला सीबीआई जांच के दायरे में है जिससे उम्मीद की जाती है कि दोतीन वर्षों में असली बात सामने आ ही जाएगी। वैसे सीबीआई की कुशलता पर भी बहुत ज्यादा यकीन नहीं किया जा सकता। आरुषि हत्याकांड में सीबीआई की जो फजीहत हुई है उससे उसके बारे में लोगों का भ्रम टूटा है और सीबीआई सरकार के इशारे पर क्या का क्या कर सकती हैयह तो बहुत ही नग्न रूप में लोगों ने मनमोहन सिंह सरकार के समय देख लिया है। पर अगर यह मान भी लिया जाए कि राजा भइया के साथ सीओ हत्याकांड में कोई साजिश हो रही है तब भी वे हमदर्दी के पात्र नहीं हैं। जब वे पूरी तरह बालिग नहीं हुए थे तब भी वे अपने इलाके में अल्पसंख्यक समुदाय के छह लोगों का जिंदा दहन कराने वाले दिलदार हिंदू नायक के रूप में सुर्खरु हो चुके थे। कुंडा में उनकी आम शोहरत आम आदमी की जिंदगी को गाजरमूली से भी सस्ते समझने के रूप में रही है। समाजसेवा का कोई काम उन्होंने आज तक नहीं किया। कलंक की अनगिनत कहानियां उनके साथ जुड़ी हुई हैं और मायावती को बहुत कुछ जो लोगों की आस्था मिली उसकी वजह यह है कि उन्होंने राजा भइया जैसे खलनायकों से बखूबी निपटा है और काफी हद तक वे जिस सुलूक के हकदार थे उसका अहसास उन्होंने कराया है।

मुलायम सिंह मुसलमानों के स्वयंभू मसीहा हैं इसलिए वे राजा भइया जैसे घनघोर मुस्लिम विरोधी पर मेहरबान रहे तो भी हम जैसों को हक नहीं है कि उन पर उंगली उठा सकें, लेकिन खुद मुस्लिम समुदाय ही अपने इस फर्जी मसीहा पर उंगली उठाने लगे तो हम क्या करें। मुलायम सिंह जालौन जिले में आते थे। यहां एक फर्जी राजा था जो कहता था कि मैं मुलायम सिंह को नमस्कार तक नहीं कर सकता क्योंकि मैं राजा हूं और अहीर मुझसे बहुत नीचे हैं। यह दूसरी बात है कि आज वह राजा मुलायम सिंह की चरण वंदना करता है लेकिन यह मुलायम सिंह की हीनभावना है जिसकी वजह से वे राजा की इस चरण वंदना पर अपने को कृतार्थ समझने लगे हैं। अन्यथा असली बात यह है कि अगर यादव इन राजाओं की तुलना में बलशाली न होते और मुलायम सिंह दीवान जर्मनी दास की पुस्तक महाराजा और महारानी के इन विद्रूप पात्रों की तुलना में एक लाख गुना ज्यादा पराक्रमी न होते तो ये उनको अहीर ही समझते रहते। फिर भी मुलायम सिंह को अपनी हस्ती पर गुमान नहीं है और अपनी बहादुर व तेजस्वी कौम पर गुमान नहीं हैयह बहुत ही अफसोस की बात है। इसी कारण उन्होंने बहुत ही धन्य होकर इन राजाओं को राजनीति में स्थापित होने के बाद महत्वपूर्ण केंद्र में स्थापित करने की गलती की है।

वैसे भी राजा भइया हों या साजा भइया यह राजा तो हैं नहींक्योंकि इनकी तथाकथित रियासतें जिले तो क्या तहसीलों से भी छोटी हैं और राजा का आय का साधन अपने क्षेत्र में वसूल होने वाला लगान रहता था जबकि सब जानते हैं कि मुलायम सिंह जिन राजाओं के आभामंडल से इतने अभिभूत हैं उनमें से किसी की रियासत ऐसी नहीं है जिसमें किसान बहुत ज्यादा लगान देने में सक्षम रहे हों। इनका जो भी वैभव था वह अपने इलाके में सम्पन्न और उद्यमी वैश्यों के यहां डकैती डलवाकर अर्जित सम्पदा पर निर्भर करता था। अंग्रेजों ने मात्र उपाधि के बतौर इन डकैतों को राजा का दर्जा दे दिया थालेकिन जब इनका देश की आजादी के बाद भारतीय संघ में विलय हुआ तो इनकी असलियत सामने आ गई। इनमें से ज्यादातर किसी को भी प्रीविपर्स नहीं मिलता था। इन सारे लोगों ने आजादी की लड़ाई में साथ दिया था फिर भी एक कौम है जो गर्व के साथ इन राजाओं की बात आने पर कहती है कि हमारे राजा साहब हमारे महाराज साहबजबकि जो लोग अंग्रेजों के साथ थे अगर जरा भी देशभक्ति है तो उनके प्रति कोई श्रद्धा नहीं होनी चाहिए। ऐसा भी नहीं है कि अपने पूर्वजों की गलती के प्रायश्चित के लिए उन्होंने कोई बहुत लियाकत का परिचय सिंधियाओं की तरह दिया हो। सामाजिक सरोकार से वे जुड़ गये हों। कल वे जो करते थे आज भी वही कर रहे हैं। इस कारण यह सामाजिक बहिष्कार के पात्र होने चाहिए थेसम्मान के नहीं और अगर वोटों की गंगा इनकी कौम से बह रही होती तो इंदिरा गांधी ने राजाओं के सारे विशेषाधिकार समाप्त करने का फैसला जब किया था तो उनका राजनीति से सफाया हो गया होता पर वे तो गरीबी हटाओ का नारा देकर उस जमाने में जबकि गरीबों में भी अंधराजभक्ति थी, प्रचंड बहुमत से सत्ता में वापस लौटी थीं।

इंदिरा गांधी नेता थींइस कारण उन्हें मालूम था कि वे जिस दिशा में आगे बढ़ेंगी जमाना उसी राह पर उनके पीछे चलेगा। मुलायम सिंह में ऐसे आत्मविश्वास की कमी है। इस कारण राजनीति में अपनी दम पर और जुझारु यादव कौम के समर्थन की बदौलत मजबूती से स्थापित होने के बाद भी उन्हें राजाओं की बैसाखी की जरूरत महसूस हुई। मुलायम सिंह में अपनी लीक खुद बनाने का हौसला नहीं है और उनकी यह कमजोरी उन्हें नेता के आसन से पदच्युत करने वाली है। राजाओं के मामले में दो टूक फैसला करने का अब वक्त आ गया है और उस कौम के समर्थन के लालच में राजाओं की वंदना अब स्वीकार नहीं हो सकती जिसकी झूठी वीरता पर विश्वास करके देश ने एक हजार साल तक गुलामी का दंश झेला है। देश की नई पीढ़ी अब गुलामी का एक क्षण भी बर्दाश्त करने को तैयार नहीं है क्योंकि नये हिंदुस्तान के मुस्तकबिल की तस्वीर लिखने वाले यह पैदाइशी सूरमा नहीं बल्कि दलितपिछड़े और अल्पसंख्यक समाज के लोग बन चुके हैं। बहरहाल राजा भइया जो हैं सो तो हैं ही अखिलेश ने कुछ और राजाओं के महत्वपूर्ण विभाग कम करके कुंडा कांड के सामने आने के पहले सही दिशा में जो कदम आगे बढ़ाया था अब उसको मजबूत करने की जरूरत है।

मुलायम सिंह को पाखंड से उबरना चाहिए। पहले तो अपने आपको उन्हें लोहियावादी कहना बंद कर देना चाहिए क्योंकि वंशवाद उनकी सबसे बड़ी कमजोरी है जिसके लोहिया विरोधी थे, लेकिन लोहिया से इतर चलने वाले लोग भी बहुत अच्छा कर सकते हैं इसलिए वे अगर लोहियावादी न भी रह जाएंगे तो खारिज नहीं हो पाएंगे बशर्ते कुछ और बेहतर करके दिखा सकें। दूसरे समाजवाद की खातिर उन्हें दोबारा अमर सिंह जैसों को गले लगाने, राजाओं के ग्लैमर के आगे नतमस्तक होने और उद्योगपतियों व फिल्म स्टारों के सहारे चुनाव जीतने की बिसात बिछाने से बाज आना होगा। यह एक आदमी की आवाज लगने से मुलायम सिंह को हो सकता है कि नक्कारखाने में तूती की आवाज से भी कम महत्वहीन लगे लेकिन अगर वे अपनी अंतर्रात्मा में झांककर इस धिक्कार को महसूस करेंगे और इतिहास के नाजुक मोड़ पर निर्णायक रुख अख्तियार करेंगे तो हो सकता है कि वे सही मायने में इतिहास पुरुष बनकर इतिहास में दर्ज होने में सफल हों।

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