अपनी सभ्यता और संस्कृति की ऱक्षा के लिये संघर्ष करने वालों को दमनकारी शक्तियां आतंकवादी के रूप में प्रचारित कर सच्चाई को तोड़मरोड़ कर पेश कर रही है। सूचना साम्राज्यवाद के कारण लगभग पूरा विश्व समाज इकतरफा प्रचार के साये मंे घिरा है। प्राचीन सभ्यता वाले समाजों को तो आतंकवाद को लेकर सच्चाई के दूसरे पहलू पर गौर फरमाना चाहिये। खासतौर पर भारतीय समाज की स्थिति सबसे ज्यादा बुरी है। कई सदियों तक अन्यायपूर्ण व्यवस्था का पोषण करने की वजह से यह समाज अपना नैतिक विवेक खे चुका है। शहजोर के डंडे से हंकना इस समाज की नियति बन चुका है और इस मामले में उसकी यह प्रवृत्ति दुखद में सामने आ रही है।
सभ्यता और संस्कृति की विकास यात्रा, संदर्भ किसी भी देश का हो बर्बर आदिम समाज के मानवीय मूल्यांे के आधार पर नव निर्माण की उत्कर्ष यात्रा है। लगभग हर सभ्यता के नैतिक और धार्मिक मूल्य बुनियादी तौर पर एक जैसे हैं। त्याग, परोपकार व सहष्णिुता जैसे मूल्यों का हर सभ्यता व संस्कृति में सर्वोपरि स्थान है। काम, क्रोध मध, लोभ, मोह जैसे विकारों से उबरने की साधना के जरिए संस्कृति के तत्वों को गतिशील किया गया है। लेकिन बाजारवादी मूल्यों ने पिछले कुछ दशकों मंे इस पूरी भौतिक व्यवस्था को तहस नहस कर दिया है। इसका प्रणेता एक ऐसा देश है जिसकी बुनियाद कुछ सैकड़ा वर्ष पहले वहां के मूल नागरिकों की हत्या करके रखी गयी थी। आपराधिक मानसिकता के गिरोह ने उस देश पर कब्जे के बाद पूरी दूनिया में ऐसा सिक्का जमाया कि आज वह मूल्यों और नीतियों का नियंता बन बैठा है। यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि आज बाजार के माध्यम से सार्वभौमिकीकरण की बहाई जा रही हवा मंे हर जगह अन्याय और स्वार्थ के मूल्यों को सर्वोपरि मानने वाली प्रवृत्तियां हावी हो जायंे।
पश्चिम प्रदेश जितने भी तथाकथित प्रगतिशील आन्दोलन चल रहे हैं हरेक में छद्म है। बर्फ के उदाहरण से इसे समझा जाना चाहिए। बर्फ ऊपरी अनुभव में ठण्डी होती है लेकिन हकीकत में इसकी तासीर गर्म है। उदारता, स्वतंत्रता और समानता की डुगडुगी पीटने की आड़ में चलने वाले पश्चिम प्रायोजित प्रगतिशील आन्दोलनों की तासीर दावों के एकदम विपरीत है। मानवीय मूल्यों को भ्रष्ट करने वाले षड़यंत्र की अब इन्तहा हो चुकी है।
उदाहरण के तौर पर इस्लाम में जुएबाजी को हराम करार दिया गया है। यह कोई अपवाद की बात नहीं है। जुए की वजह से पौराणिक काल में महाभारत हो गया जिसमें सारे तत्कालीन महारथी खेत रहे। जुए से परिवारों की बरवादी तो आम बात है। लेकिन आधुनिक काल में अर्थव्यवस्था में जुए की अनिवार्यता शेयर बाजार के नाम से स्थापित कर दी गई है। किस कम्पनी का शेयर क्यों चढ़ रहा है या क्यों उतर रहा है इसका कोई पारदर्शी पैमाना नहीं है। तेजडि़ये और मंदिये जो कि जुआ खिलाडि़यों के नये नाम हैं शेयर बाजार की किस्मत तय करते हैं। अमेरिका की तीन कंपनियों का दिवाला निकल गया और पता न चलने से लाखों लोग उनके शेयरों में निवेश ही करते रहे। एनरान, वल्र्डकाॅम और जीराक्स जब इन कंपनियों के डूबने की घोषणा हुई तो शेयर निवेशक स्तब्ध रह गये और कई निवेशकों को अवसाद में मौत को गले लगाना पड़ा। धार्मिक उसूलों के आहत होने के साथ इतनी बड़ी व्यवहारिक चोट की प्रतिक्रिया वल्र्ड टेड सेन्टर पर हमले के रूप में सामने आनी ही थी क्योंकि डब्ल्यूटीओ अन्तर्राष्टीय शेयर बाजार का गढ़ होेने से यह पूरी दुनियां का सबसे बड़ा जुआड़ खाना दिख रहा था जिसे अपनी धार्मिक प्रतिबद्धता के लिए कट्टर रूप से निष्ठावान तबका कैसे बर्दास्त कर सकता है।
बाजार पूरी तरह पापी व्यवस्था पर टिका है। ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए लोगों की खून पसीने की कमाई पर तरह तरह के हथकंडांे से डाका डालना, लाभ के लिए अपने परिजन, प्रियजन से लेकर आम लोगों तक किसी की भी जान सेहत तक की परवाह न करना जैसी आदमखोर प्रवृत्तियांे का प्रसार इसकी देन है यह सोच अध्यात्म की भावना के खिलाफ है। इसी कारण हर धार्मिक व्यवस्था में कहा गया है कि मनुष्य को संयम, इन्द्रिय निग्रह व सादगी को अपनी जीवन शैली में शामिल करना चाहिए लेकिन बाजार तृष्णाओं के विस्फोट से आर्थिक विकास दर बढ़ाने लक्ष्य के लिए समर्पित हैं। उपभोग और पूंजी व संसाधनों के केन्द्रीयकरण पर जोर देकर बाजार में आम आदमी के लिए हवा पानी तक की सुलभता मुश्किल कर दी है। सारी मानवता इसकी चपेट में त्रस्त और अभिशप्त नजर आ रही है। ऐसे में शाश्वत मूल्यों और जमीर पर विश्वास रखने वाले समाजों के द्वारा इसके खिलाफ विद्रोह का झण्डा उठाना लाजिमी है।
भारत मंे कुटिल मानसिकता के निर्माण के कारण अपने ही लोगों के बीच उपनिवेशवादी व्यवस्था चलाई जाती रही है। इस अन्याय ने भारतीय समाज का नैतिक साहस नष्ट कर दिया है बलशाली के आगे वैचारिक और भौतिक रूप से समर्पण करना इस समाज की आदत बन चुकी है यही वजह है कि विश्व के सबसे बड़े दबंग अमेरिका के किसी समाज या जमात के बारे में मनमाने फतवे को सिर माथे रखकर स्वीकार करना भारतीय समाज की लाचारी है। धर्मयुद्ध के लिए फिदायिन जिहाद को एकतरफा तौर पर मुजरिम करार देना अगर भारतीय समाज में अपना जमीर और नैतिक विवेक जिंदा होता पूरी तरह मंजूर नहीं किया जाता। आतंकवादी तौर तरीके बेशक गलत हैं लेकिन इनके इस्तेमाल की नौबत जिस वजह से आ रही है वह इससे भी ज्यादा गलत है। मानवता के अस्तित्व को बचाने और तनावरहित शांति के वातावरण को व्यक्ति से लेकर समष्टि तक में सुनिश्चित करना आज की तमाम समस्याओं का तोड़ है लेकिन हमारी बंधक बुद्धि अपने इस उत्तरदायित्व हो महसूस करने की स्थिति मंे नहीं है। यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। अर्थव्यवस्था में नैतिक अनुशासन को स्थापित किया जाना अब अनिवार्य हो गया है। किसी भी हथकंडे से मुनाफा कमाने की हविश से अब बाज आना ही होगा। मुद्रा पर आधारित विनिमय प्रणाली ने औचित्य और न्यायपूर्ण व्यवस्था को ठिकाने लगा दिया है और पूरी वैश्विक व्यवस्था को जंगल राज में तब्दील कर दिया है। यह खतरनाक स्थिति है। भारत को एक नई विनिमय प्रणाली की ईजाद करनी चाहिए भेड़ की तरह विश्व के सबसे बड़े दादा का पिछलग्गू बनने की बजाय उसे दुनियां में वांछित परिवर्तनों के लिए लीड लेनी होगी। आतंकवाद जिन चुनौतियों से निपटने के सही तौर तरीके सामने नहीं आ रहे हैं। उनके कारण जोर पकड़ रहा है। आतंकवाद दमन के हथकंडों के स्तेमाल से नहीं मिटेगा उसे नैतिक औजार ही मिटा सकेंगे और उसूलों के लिए लड़ने वालों का पक्ष जानने का धैर्य हमें दिखाना होगा। यह एक नया विचार है लेकिन सही विचार है।
अपनी सभ्यता और संस्कृति की ऱक्षा के लिये संघर्ष करने वालों को दमनकारी शक्तियां आतंकवादी के रूप में प्रचारित कर सच्चाई को तोड़मरोड़ कर पेश कर रही है। सूचना साम्राज्यवाद के कारण लगभग पूरा विश्व समाज इकतरफा प्रचार के साये मंे घिरा है। प्राचीन सभ्यता वाले समाजों को तो आतंकवाद को लेकर सच्चाई के दूसरे पहलू पर गौर फरमाना चाहिये। खासतौर पर भारतीय समाज की स्थिति सबसे ज्यादा बुरी है। कई सदियों तक अन्यायपूर्ण व्यवस्था का पोषण करने की वजह से यह समाज अपना नैतिक विवेक खे चुका है। शहजोर के डंडे से हंकना इस समाज की नियति बन चुका है और इस मामले में उसकी यह प्रवृत्ति दुखद में सामने आ रही है।
सभ्यता और संस्कृति की विकास यात्रा, संदर्भ किसी भी देश का हो बर्बर आदिम समाज के मानवीय मूल्यांे के आधार पर नव निर्माण की उत्कर्ष यात्रा है। लगभग हर सभ्यता के नैतिक और धार्मिक मूल्य बुनियादी तौर पर एक जैसे हैं। त्याग, परोपकार व सहष्णिुता जैसे मूल्यों का हर सभ्यता व संस्कृति में सर्वोपरि स्थान है। काम, क्रोध मध, लोभ, मोह जैसे विकारों से उबरने की साधना के जरिए संस्कृति के तत्वों को गतिशील किया गया है। लेकिन बाजारवादी मूल्यों ने पिछले कुछ दशकों मंे इस पूरी भौतिक व्यवस्था को तहस नहस कर दिया है। इसका प्रणेता एक ऐसा देश है जिसकी बुनियाद कुछ सैकड़ा वर्ष पहले वहां के मूल नागरिकों की हत्या करके रखी गयी थी। आपराधिक मानसिकता के गिरोह ने उस देश पर कब्जे के बाद पूरी दूनिया में ऐसा सिक्का जमाया कि आज वह मूल्यों और नीतियों का नियंता बन बैठा है। यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि आज बाजार के माध्यम से सार्वभौमिकीकरण की बहाई जा रही हवा मंे हर जगह अन्याय और स्वार्थ के मूल्यों को सर्वोपरि मानने वाली प्रवृत्तियां हावी हो जायंे।
पश्चिम प्रदेश जितने भी तथाकथित प्रगतिशील आन्दोलन चल रहे हैं हरेक में छद्म है। बर्फ के उदाहरण से इसे समझा जाना चाहिए। बर्फ ऊपरी अनुभव में ठण्डी होती है लेकिन हकीकत में इसकी तासीर गर्म है। उदारता, स्वतंत्रता और समानता की डुगडुगी पीटने की आड़ में चलने वाले पश्चिम प्रायोजित प्रगतिशील आन्दोलनों की तासीर दावों के एकदम विपरीत है। मानवीय मूल्यों को भ्रष्ट करने वाले षड़यंत्र की अब इन्तहा हो चुकी है।
उदाहरण के तौर पर इस्लाम में जुएबाजी को हराम करार दिया गया है। यह कोई अपवाद की बात नहीं है। जुए की वजह से पौराणिक काल में महाभारत हो गया जिसमें सारे तत्कालीन महारथी खेत रहे। जुए से परिवारों की बरवादी तो आम बात है। लेकिन आधुनिक काल में अर्थव्यवस्था में जुए की अनिवार्यता शेयर बाजार के नाम से स्थापित कर दी गई है। किस कम्पनी का शेयर क्यों चढ़ रहा है या क्यों उतर रहा है इसका कोई पारदर्शी पैमाना नहीं है। तेजडि़ये और मंदिये जो कि जुआ खिलाडि़यों के नये नाम हैं शेयर बाजार की किस्मत तय करते हैं। अमेरिका की तीन कंपनियों का दिवाला निकल गया और पता न चलने से लाखों लोग उनके शेयरों में निवेश ही करते रहे। एनरान, वल्र्डकाॅम और जीराक्स जब इन कंपनियों के डूबने की घोषणा हुई तो शेयर निवेशक स्तब्ध रह गये और कई निवेशकों को अवसाद में मौत को गले लगाना पड़ा। धार्मिक उसूलों के आहत होने के साथ इतनी बड़ी व्यवहारिक चोट की प्रतिक्रिया वल्र्ड टेड सेन्टर पर हमले के रूप में सामने आनी ही थी क्योंकि डब्ल्यूटीओ अन्तर्राष्टीय शेयर बाजार का गढ़ होेने से यह पूरी दुनियां का सबसे बड़ा जुआड़ खाना दिख रहा था जिसे अपनी धार्मिक प्रतिबद्धता के लिए कट्टर रूप से निष्ठावान तबका कैसे बर्दास्त कर सकता है।
बाजार पूरी तरह पापी व्यवस्था पर टिका है। ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए लोगों की खून पसीने की कमाई पर तरह तरह के हथकंडांे से डाका डालना, लाभ के लिए अपने परिजन, प्रियजन से लेकर आम लोगों तक किसी की भी जान सेहत तक की परवाह न करना जैसी आदमखोर प्रवृत्तियांे का प्रसार इसकी देन है यह सोच अध्यात्म की भावना के खिलाफ है। इसी कारण हर धार्मिक व्यवस्था में कहा गया है कि मनुष्य को संयम, इन्द्रिय निग्रह व सादगी को अपनी जीवन शैली में शामिल करना चाहिए लेकिन बाजार तृष्णाओं के विस्फोट से आर्थिक विकास दर बढ़ाने लक्ष्य के लिए समर्पित हैं। उपभोग और पूंजी व संसाधनों के केन्द्रीयकरण पर जोर देकर बाजार में आम आदमी के लिए हवा पानी तक की सुलभता मुश्किल कर दी है। सारी मानवता इसकी चपेट में त्रस्त और अभिशप्त नजर आ रही है। ऐसे में शाश्वत मूल्यों और जमीर पर विश्वास रखने वाले समाजों के द्वारा इसके खिलाफ विद्रोह का झण्डा उठाना लाजिमी है।
भारत मंे कुटिल मानसिकता के निर्माण के कारण अपने ही लोगों के बीच उपनिवेशवादी व्यवस्था चलाई जाती रही है। इस अन्याय ने भारतीय समाज का नैतिक साहस नष्ट कर दिया है बलशाली के आगे वैचारिक और भौतिक रूप से समर्पण करना इस समाज की आदत बन चुकी है यही वजह है कि विश्व के सबसे बड़े दबंग अमेरिका के किसी समाज या जमात के बारे में मनमाने फतवे को सिर माथे रखकर स्वीकार करना भारतीय समाज की लाचारी है। धर्मयुद्ध के लिए फिदायिन जिहाद को एकतरफा तौर पर मुजरिम करार देना अगर भारतीय समाज में अपना जमीर और नैतिक विवेक जिंदा होता पूरी तरह मंजूर नहीं किया जाता। आतंकवादी तौर तरीके बेशक गलत हैं लेकिन इनके इस्तेमाल की नौबत जिस वजह से आ रही है वह इससे भी ज्यादा गलत है। मानवता के अस्तित्व को बचाने और तनावरहित शांति के वातावरण को व्यक्ति से लेकर समष्टि तक में सुनिश्चित करना आज की तमाम समस्याओं का तोड़ है लेकिन हमारी बंधक बुद्धि अपने इस उत्तरदायित्व हो महसूस करने की स्थिति मंे नहीं है। यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। अर्थव्यवस्था में नैतिक अनुशासन को स्थापित किया जाना अब अनिवार्य हो गया है। किसी भी हथकंडे से मुनाफा कमाने की हविश से अब बाज आना ही होगा। मुद्रा पर आधारित विनिमय प्रणाली ने औचित्य और न्यायपूर्ण व्यवस्था को ठिकाने लगा दिया है और पूरी वैश्विक व्यवस्था को जंगल राज में तब्दील कर दिया है। यह खतरनाक स्थिति है। भारत को एक नई विनिमय प्रणाली की ईजाद करनी चाहिए भेड़ की तरह विश्व के सबसे बड़े दादा का पिछलग्गू बनने की बजाय उसे दुनियां में वांछित परिवर्तनों के लिए लीड लेनी होगी। आतंकवाद जिन चुनौतियों से निपटने के सही तौर तरीके सामने नहीं आ रहे हैं। उनके कारण जोर पकड़ रहा है। आतंकवाद दमन के हथकंडों के स्तेमाल से नहीं मिटेगा उसे नैतिक औजार ही मिटा सकेंगे और उसूलों के लिए लड़ने वालों का पक्ष जानने का धैर्य हमें दिखाना होगा। यह एक नया विचार है लेकिन सही विचार है।
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