मुलायम सिंह यादव ने लोकसभा चुनाव सिर पर देख पिछड़ों में अपनी पार्टी की पैठ के कील-कांटे फिर दुरुस्त करने के औजार उठा लिए हैं, क्योंकि पिछड़ी जातियों का समर्थन ही उनकी मूल पूंजी है। इन जातियों में किसान व शिल्पकार समुदाय के वे तबके शामिल हैं जिन्होंने अपनी मेहनत और हुनर से देश के लिए बहुत ज्यादा योगदान किया है, लेकिन वर्ण व्यवस्था प्रेरित अन्याय की वजह से उन्हें बदले में इनाम की बजाय अभिशाप मिलता रहा है।
पिछड़ों के साथ भेदभाव की इस इंतहा को महसूस करने की वजह से पिछड़ी जाति के न होते हुए भी महामानव डॉ. राममनोहर लोहिया न केवल द्रवित हुए बल्कि उनका क्षोभ बगावती लहरों के रूप में सामाजिक परिवर्तन के ज्वार में ठांटें भरने लगा। डॉ. लोहिया का यह नारा इसी सोच की अभिव्यक्ति के रूप में सामने आया कि पिछड़ों ने बांधी गांठ, सौ में पांवें साठ। उन्होंने जो बीजारोपण किया विश्वनाथ प्रताप सिंह की मंडल क्रांति के बाद आज वह विचार फलीभूत है। सत्ता के केंद्र में पिछड़ी जातियों का वर्चस्व इन्हीं विचारकों द्वारा सामाजिक जड़ता की झील में पैदा की गई क्रांतिकारी उथल-पुथल का नतीजा है, लेकिन विरोधाभास यह है कि हजारों वर्षों से भारतीय समाज अजीब विडम्बना का शिकार है। यहां अन्याय और भेदभाव मिटाने वाले आंदोलन अपनी तार्किक परिणति पर पहुंचने के पहले ही समझौतावादी होकर यथास्थिति की राहों पर भटक जाते हैं। परिवर्तनवादी आंदोलनों के इस हश्र की वजह से सामाजिक नवनिर्माण का किनारा यह देश आज तक नहीं ढूंढ़ पाया है।
खुद मुलायम सिंह कुछ दिनों पहले ऐसे सम्मेलन में शरीक हो रहे थे जिनमें बताया जाता कि कुछ वर्ष पहले अमुक समाज के कितने सांसद और विधायक होते थे, फिर इस समाज के साथ ऐसा षड्यंत्र हुआ कि यह संख्या घटकर आज आधी भी नहीं रह गई है। यह दूसरी बात है कि अब मुलायम सिंह को यह तय करना है कि सौ में साठ की हिस्सेदारी पिछड़ों को दिलाना सामाजिक न्याय है या आजादी के कुछ दशकों तक लोकसभा व विधानसभा में प्रतिनिधित्व की जो तस्वीर थी उसमें सामाजिक न्याय नुमाया हो रहा था। अगर यह सिद्धांत सही है कि संख्या में कम वर्ग का अधिकतम कब्जा सत्ता के गलियारे में होना दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थिति का निर्माण करता था जिसमें सुधार के लिए संख्या में ज्यादा होने के बावजूद वंचित रही जातियों का प्रतिनिधित्व बढ़ाना हमारा फर्ज है और साठ प्रतिशत पिछड़ों की भागीदारी से यह फर्ज पूरा करने की दिशा में कदम आगे बढ़ाया जा रहा है, तो फिर गणित के नियमों का ध्यान भी हमें रखना होगा। प्रतिशत सौ की संख्या के अंतर्गत ही निकलेगा और जब इसमें एक का प्रतिनिधित्व सिफर से शिखर पर पहुंचेगा तो जो शिखर पर है उसके लिए त्याग करना लाजिमी हो जाएगा। यह किसी का अधिकार छीनना नहीं बल्कि सामाजिक संतुलन की प्रक्रिया का अवश्यंभावी परिणाम है पर राजनीतिक फायदे के लिए नेता गणित के नियमों को भूलकर हठधर्मिता करने वालों की हामी भरते हैं जिससे भ्रम पैदा होता है और ऐसा करके वे फूट डालो और राज करो की अंग्रेजों की कपट नीति का अनुशीलन करते नजर आते हैं।
बहरहाल डॉ. लोहिया ने यह भी कहा था कि पिछड़ी जातियों को अलग-अलग जाति संख्या भुलाकर पहले खुद में जातिविहीन और इसके बाद पूरे समाज को जातिविहीन करने का काम करना होगा। सामाजिक न्याय की जद्दोजहद का यह अनिवार्य परिणाम है। दूसरी ओर मुलायम सिंह ने अपने दूसरे मुख्यमंत्रित्व काल में पिछड़ों को यह संकल्प दिलाकर कि वो अपनी जाति का उल्लेख अपने नाम के साथ सगर्व करें, डॉ. लोहिया के सिद्धांतों की उलटी गिनती कर डाली थी। डॉ. लोहिया हों या डॉ. अंबेडकर वंचितों के लिए सत्ता के द्वार खोलने के संघर्ष में खुद को होम कर उन्होंने यह सपना देखा था, यह महत्वाकांक्षी व्यक्त की थी कि अंततोगत्वा इससे जातिविहीन नागरिक समाज के निर्माण का लक्ष्य वे पूरा कर पाएंगे। यानी इसके बाद अगर व्यक्तिगत जनप्रियता के आधार पर किसी जाति विशेष के नेता ही पूर्ववत सभी सीटों पर आसीन हो जाएं तो कोई हर्ज नहीं। विरोध अल्प संख्या में होते हुए भी जातिगत आधार पर अधिकतम प्रतिनिधित्व की व्यवस्था बहाल रखने की जिद का है। पिछड़ों और दलितों को उनकी आबादी के मुताबिक प्रतिनिधित्व की व्यवस्था सामाजिक परिवर्तन का अंतरिम चरण है। इसको निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए यह जरूरी है कि जब विभिन्न जातियों के नेता समाज में सार्वभौम नीतियों के आधार पर सभी वर्गों में अपने लिए स्वीकार्यता का गुण विकसित करें तो हालात बदल जाएंगे। मुलायम सिंह को पिछड़ों की चिंता इसी संदर्भ में करनी चाहिए। इसे तोड़मरोड़ कर जातिगत पहचान को मजबूत करने को अभीष्ट के रूप में जताना समाजवादी आंदोलन के पितृपुरुषों की भावना के साथ छल है। यह बात मुलायम सिंह को ध्यान रखनी चाहिए।
मुलायम सिंह यादव ने लोकसभा चुनाव सिर पर देख पिछड़ों में अपनी पार्टी की पैठ के कील-कांटे फिर दुरुस्त करने के औजार उठा लिए हैं, क्योंकि पिछड़ी जातियों का समर्थन ही उनकी मूल पूंजी है। इन जातियों में किसान व शिल्पकार समुदाय के वे तबके शामिल हैं जिन्होंने अपनी मेहनत और हुनर से देश के लिए बहुत ज्यादा योगदान किया है, लेकिन वर्ण व्यवस्था प्रेरित अन्याय की वजह से उन्हें बदले में इनाम की बजाय अभिशाप मिलता रहा है।
पिछड़ों के साथ भेदभाव की इस इंतहा को महसूस करने की वजह से पिछड़ी जाति के न होते हुए भी महामानव डॉ. राममनोहर लोहिया न केवल द्रवित हुए बल्कि उनका क्षोभ बगावती लहरों के रूप में सामाजिक परिवर्तन के ज्वार में ठांटें भरने लगा। डॉ. लोहिया का यह नारा इसी सोच की अभिव्यक्ति के रूप में सामने आया कि पिछड़ों ने बांधी गांठ, सौ में पांवें साठ। उन्होंने जो बीजारोपण किया विश्वनाथ प्रताप सिंह की मंडल क्रांति के बाद आज वह विचार फलीभूत है। सत्ता के केंद्र में पिछड़ी जातियों का वर्चस्व इन्हीं विचारकों द्वारा सामाजिक जड़ता की झील में पैदा की गई क्रांतिकारी उथल-पुथल का नतीजा है, लेकिन विरोधाभास यह है कि हजारों वर्षों से भारतीय समाज अजीब विडम्बना का शिकार है। यहां अन्याय और भेदभाव मिटाने वाले आंदोलन अपनी तार्किक परिणति पर पहुंचने के पहले ही समझौतावादी होकर यथास्थिति की राहों पर भटक जाते हैं। परिवर्तनवादी आंदोलनों के इस हश्र की वजह से सामाजिक नवनिर्माण का किनारा यह देश आज तक नहीं ढूंढ़ पाया है।
खुद मुलायम सिंह कुछ दिनों पहले ऐसे सम्मेलन में शरीक हो रहे थे जिनमें बताया जाता कि कुछ वर्ष पहले अमुक समाज के कितने सांसद और विधायक होते थे, फिर इस समाज के साथ ऐसा षड्यंत्र हुआ कि यह संख्या घटकर आज आधी भी नहीं रह गई है। यह दूसरी बात है कि अब मुलायम सिंह को यह तय करना है कि सौ में साठ की हिस्सेदारी पिछड़ों को दिलाना सामाजिक न्याय है या आजादी के कुछ दशकों तक लोकसभा व विधानसभा में प्रतिनिधित्व की जो तस्वीर थी उसमें सामाजिक न्याय नुमाया हो रहा था। अगर यह सिद्धांत सही है कि संख्या में कम वर्ग का अधिकतम कब्जा सत्ता के गलियारे में होना दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थिति का निर्माण करता था जिसमें सुधार के लिए संख्या में ज्यादा होने के बावजूद वंचित रही जातियों का प्रतिनिधित्व बढ़ाना हमारा फर्ज है और साठ प्रतिशत पिछड़ों की भागीदारी से यह फर्ज पूरा करने की दिशा में कदम आगे बढ़ाया जा रहा है, तो फिर गणित के नियमों का ध्यान भी हमें रखना होगा। प्रतिशत सौ की संख्या के अंतर्गत ही निकलेगा और जब इसमें एक का प्रतिनिधित्व सिफर से शिखर पर पहुंचेगा तो जो शिखर पर है उसके लिए त्याग करना लाजिमी हो जाएगा। यह किसी का अधिकार छीनना नहीं बल्कि सामाजिक संतुलन की प्रक्रिया का अवश्यंभावी परिणाम है पर राजनीतिक फायदे के लिए नेता गणित के नियमों को भूलकर हठधर्मिता करने वालों की हामी भरते हैं जिससे भ्रम पैदा होता है और ऐसा करके वे फूट डालो और राज करो की अंग्रेजों की कपट नीति का अनुशीलन करते नजर आते हैं।
बहरहाल डॉ. लोहिया ने यह भी कहा था कि पिछड़ी जातियों को अलग-अलग जाति संख्या भुलाकर पहले खुद में जातिविहीन और इसके बाद पूरे समाज को जातिविहीन करने का काम करना होगा। सामाजिक न्याय की जद्दोजहद का यह अनिवार्य परिणाम है। दूसरी ओर मुलायम सिंह ने अपने दूसरे मुख्यमंत्रित्व काल में पिछड़ों को यह संकल्प दिलाकर कि वो अपनी जाति का उल्लेख अपने नाम के साथ सगर्व करें, डॉ. लोहिया के सिद्धांतों की उलटी गिनती कर डाली थी। डॉ. लोहिया हों या डॉ. अंबेडकर वंचितों के लिए सत्ता के द्वार खोलने के संघर्ष में खुद को होम कर उन्होंने यह सपना देखा था, यह महत्वाकांक्षी व्यक्त की थी कि अंततोगत्वा इससे जातिविहीन नागरिक समाज के निर्माण का लक्ष्य वे पूरा कर पाएंगे। यानी इसके बाद अगर व्यक्तिगत जनप्रियता के आधार पर किसी जाति विशेष के नेता ही पूर्ववत सभी सीटों पर आसीन हो जाएं तो कोई हर्ज नहीं। विरोध अल्प संख्या में होते हुए भी जातिगत आधार पर अधिकतम प्रतिनिधित्व की व्यवस्था बहाल रखने की जिद का है। पिछड़ों और दलितों को उनकी आबादी के मुताबिक प्रतिनिधित्व की व्यवस्था सामाजिक परिवर्तन का अंतरिम चरण है। इसको निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए यह जरूरी है कि जब विभिन्न जातियों के नेता समाज में सार्वभौम नीतियों के आधार पर सभी वर्गों में अपने लिए स्वीकार्यता का गुण विकसित करें तो हालात बदल जाएंगे। मुलायम सिंह को पिछड़ों की चिंता इसी संदर्भ में करनी चाहिए। इसे तोड़मरोड़ कर जातिगत पहचान को मजबूत करने को अभीष्ट के रूप में जताना समाजवादी आंदोलन के पितृपुरुषों की भावना के साथ छल है। यह बात मुलायम सिंह को ध्यान रखनी चाहिए।
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