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आस्था का आग्नेय पथ

बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
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आस्था परकता उच्च मानवीय गुण है लेकिन किसके प्रति आस्था किसी अज्ञात सर्वशक्तिमान के प्रति भयवश समर्पण और उसकी चमत्कारिक शक्ति का अंधविश्वास बहुधा आस्था की पहचान है जबकि यह एक भ्रम है। आस्था का तत्व एक अलग तरह की अवधारणा है।
संस्कारों में जब न्याय भावना पूरी तरह पैठ जमा लेती है तो आस्था का स्फुरण होता है। आस्था मनुष्य की मनुष्यता पर भरोसा मजबूत करती है। एक आस्थावान व्यक्ति सोचता है कि अगर हम किसी व्यक्ति की रचनात्मक योग्यता को प्रोत्साहित करेंगे। किसी के अहित की भावना मन में नहीं रखेंगे। साथ ही व्यक्ति के अधिकार को निरपेक्ष ढंग से तस्लीम करेंगे तो न केवल उसकी बल्कि पूरे समाज की श्रद्घा उसे हासिल होगी।
आस्थावान या आस्तिक के विचारों को फलित होने से रोकने के लिये ईष्र्या क्रोध, प्रतिशोध जैसी शैतानी भावनायें मन को भटकाने का काम करती हैं लेकिन प्रतिबद्घता दृढ़ हो तो अन्दर की अपनी इन कमजोरियों पर नियंत्रण पाता हुआ व्यक्ति आस्था के पथ पर अविचलित होकर अग्रसर बना रहता है।
लेकिन एक भ्रम यह भी है कि आस्था ऐसी गारन्टी है जिससे प्रेरित अनुशीलन से व्यक्ति समाज में महान के बतौर स्थापित हो जायेगा। सच्चाई तो यह है कि इस सद्गुण के कारण व्यक्ति को समाज में अपनी महान व्यक्तित्व के रूप में स्वीकार्यता बनाने की बजाय सबसे बड़े खलनायक के रूप में कलंकित होना पड़ सकता है। ऐसे में जो लोग आस्थावान व्यक्ति के प्रति अनुभूति रखते हुए उसके हश्र को लेकर यह कहते हैं कि कैसा जमाना आ गया है जो शरीफ आदमी को गालियां खानी पड़ रही हैं। वे जाने अनजाने में यह स्थापित कर रहे होते हैं कि आस्थावान व्यक्ति का मतलब अपने भोलेपन के चलते एक सताया हुआ और कातर व्यक्ति होता है। वास्तविकता यह है कि यह भी एक भ्रम है।
सुकुमार होने की बजाय आस्था में जितनी गहराई बढ़ती जायेगी व्यक्ति उतना ही कठोर होता जायेगा। अपने सामाजिक उद्देश्य को लेकर ऐसा व्यक्ति हर अग्नि परीक्षा के समय भले ही कितना भी जोखिम उठाना पड़े। निर्णायक रवैया अपनाता है यह उसके चरित्र की अनिवार्य विशेषता होती है। धारा में बहना नहीं धारा के उल्टे तैरने की चुनौती स्वीकार करने का स्वत: स्फूर्त पुरुषार्थ उसके चरित्र के लिये अभिन्न हो जाता है।
हर अपेक्षा को सफलता के खूंटे से बांधने का सरलीकरण उपदेशकों पर बेहद हावी रहता है। आस्था के पक्ष में दलील देते हुए इस बात से आश्वस्त किये जाने की जरूरत बहुतों को महसूस होती है कि अन्ततोगत्वा आस्थावान व्यक्ति कितनी भी मुसीबत में घिर जाये लेकिन जीत उसकी ही होगी जबकि ऐसे विश्वास को तिलांजलि देना ही श्रेयस्कर है। न तो आस्था और प्रतिबद्घता का गुण सफलता की गारन्टी है न ही असफलता की वजह। व्यक्ति के सद्गुणों पर आस्था रखने के स्वभाव की वजह से उसे दूसरों से धोखा खाकर अपने अस्तित्व की समाप्ति के कगार पर खड़ा होना पड़ जाये तो इसका मतलब यह नहीं कि यह सलाह दी जाने लगे कि आदमी को आस्थावान रहकर अपनी दुर्गति करने की बजाय दुनियादार यानि व्यवहारिक रूप से मक्कार और अïवसरवादी बनना चाहिये। स्थिति का दूसरा पहलू यह है कि आस्थावान व्यक्ति को तथाकथित रूप से दगा देने वाले व्यक्ति के साथ जाने अनजाने में उससे ऐसा अन्याय हो गया हो कि उसके मन में आस्थावान के प्रति प्रतिशोध की दाहअग्नि धधक उठी हो। आस्थावान व्यक्ति कितना खरा है यह इस बात से साबित होता है कि वह पारस बन पाया या नहीं। मतलब यह है कि उसमें अपने संसर्ग में आने वाले व्यक्ति को सोना बनाने की क्षमता विकसित हो पायी या नहीं। अगर जिसके साथ उसने सहयोग किया वह कृतघ्नता पर आमादा हो गया तो इसका मतलब है कि आस्थावान की साधना पारसीकरण की स्थिति तक नहीं पहुंच सकी है। उसकी साधना में कहीं न कहीं खोट रह गयी है।
जीवन का अन्तिम परिणाम मृत्यु है। आप समझौता वादी और अवसरवादी बनकर भी इसी नियति को प्राप्त होंगे और अगर आप वैचारिक दृढ़ता दिखाते हैं तो भी आपकी यही नियति तय है। इसीलिये 18 से 23 वर्ष की उम्र में अपनी वैचारिक दृढ़ता दूसरे शब्दों में कहें तो उसूलों के लिये जीवन का बलिदान करने को तत्पर जेहादी फिदाईनों को साम्राज्यवादी प्रचार के वशीभूत होकर मुझ जैसे लोग घृणित नहीं मान सकते। किसी व्यक्ति के लिये रंगीन उम्र में बिना किसी निजी स्वार्थ के जीवन तक का बलिदान करने का जज्बा होना आसान बात नहीं है। जानने वाली बात यह है कि फिदाईन नौजवान जिन उसूलों में आस्था रखते हैं उनमें कौन सी ऐसी शक्ति है जो उनमें अदम्य साहस का संचार कर देती है। उनका जज्बा आस्था के सम्बल में विश्वास बनाये रखने का आस्तिकों के लिये एक बड़ा आधार है।

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