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पानी के व्यापार की दस्तक अब बुंदेलखंड में सुनी जाने लगी है। इससे जुड़ी कंपनियां सक्रिय हैं जो चाहती हैं कि यहां भी पेयजल और सिंचाई व्यवस्था उनके नियंत्रण में आ जाये। अगर ऐसा होता है तो ये मुनाफाखोर कंपनियां एक लीटर पानी पर इतने ज्यादा जलशुल्क की वसूली का प्रावधान करा सकती हैं कि आम आदमी के लिये पानी सपना बन जाये जबकि जल ही जीवन है। तो क्या आगे चलकर दो लोटा पानी के लिये आम आदमी को अघोषित तौर पर इन कंपनियों का दासत्व स्वीकार करना पड़ेगा।
यह आशंका अभी दूर की कौड़ी लगती है क्योंकि इस साजिश का ताना बाना बहुत प्रत्यक्ष नहीं है। लेकिन बहुत ही बारीकी से अंजाम दी जा रही यह साजिश खामोशी के साथ बलवती होती जा रही है। इस विपत्ति को टालने का काम केवल सामुदायिक जल प्रबंधन की पुरानी परंपरा को बहाल करने से ही संभव है। यूरोपीय यूनियन के सहयोग से बुंदेलखंड के तीन जिलों झांसी, ललितपुर व जालौन में संचालित पानी पर महिलाओं की प्रथम हकदारी आंदोलन ने प्रतिरोध की जरूरत को सशक्त आधार प्रदान किया है।
परियोजना के जल सहेली और महिला पंचायत के ढांचे ने अपने कार्य क्षेत्र में क्रांतिकारी कार्यों को अंजाम दिया है। माधौगढ़ व रामपुरा ब्लाक के कई गांवों में महिलाओं के दबाव में ब्लाक व ग्राम पंचायतों को पेयजल की समस्या से पीडि़त मोहल्लों में प्राथमिकता के आधार पर हैंडपंप लगवाने पड़े। ललितपुर व हमीरपुर में उन्होंने तालाब खुदवाने के लिये अंशदान भी दिया और श्रमदान भी किया। महिलाओं की प्रथम हकदारी के पीछे अवधारणा यह है कि चूंकि जल संकट क्षेत्र में पानी लाने में महिलाओं की सबसे ज्यादा ऊर्जा और समय खपता है जिसकी वजह से जल चेतना के मामले में उनकी संवेदनशीलता का स्तर पुरुषों से काफी आगे हो सकता है। व्यवहार में यह अनुमान सही प्रमाणित हो रहा है।
जल सहेली आंदोलन के कई और उपयोगी बाई प्रोडक्ट सामने आ रहे हैं जिनकी चर्चा नहीं हो रही है। जालौन जिले के रामपुरा व माधौगढ़ ब्लाकों में सूखे के दौरान पशुपालन का रिवाज मिट सा गया था जिसके पीछे सबसे बड़ा कारण था मवेशी की प्यास बुझाना। हैंडपंप से मवेशियों को पानी पिलाने के लिये बार-बार खींचने की मशक्कत भारी पड़ रही थी जिससे लोगों ने मवेशी रखना ही बंद कर दिये थे। तालाब बहाल हुए तो यह समस्या दूर हो गयी। तालाब एक पंथ कई काज जैसी भूमिका अदा कर रहे हैं। मवेशियों की प्यास तो इनसे बुझती ही है सिंचाई के रूप में इनके पानी का इस्तेमाल कर चारा भी पैदा किया जाने लगा है। महिलाओं की पानी पर प्रथम हकदारी आंदोलन की सफलता की वजह से पूरी माधौगढ़ तहसील व आसपास पशुपालन फलफूल उठा है। मवेशियों की बाढ़ आ रही है जिसके बाद दूध का व्यापार करने वाली निजी कंपनियों ने अपने पैर पसारने शुरू कर दिये हैं। माधौगढ़ में एक निजी कंपनी 50 हजार लीटर क्षमता की डेयरी स्थापित करने जा रही है। वर्तमान में यह कंपनी 34 रुपये लीटर तक का भाव दे रही है। दूध की इतनी कीमत हासिल होने से ग्रामीण भविष्य के लिये सुनहरे सपने देखने लगे हैं। कम लागत में ज्यादा मुनाफे की व्यवसायिक सोच विकसित होने से वे अब अच्छी नस्ल के मवेशी पालन के लिये भी तेजी से प्रेरित हो रहे हैं जिससे अन्ना पशु प्रथा पर नियंत्रण होगा और जिले के सबसे उपजाऊ इलाके में बारहों महीने फसलें लहलहाती दिखने का सपना चरितार्थ हो सकेगा।
तालाबों के सरसब्ज होने से इससे जीविका को आधार देने वाली पुरानी परंपरायें भी पुनर्जीवित होने लगी हैं। परियोजना के कार्य क्षेत्र के मल्लाहनपुरा गांव में बीहड़ की घास यानी डाब से मूंज बटने का व्यवसाय घर-घर में फिर चल उठा है जिसकी ग्वालियर तक के बाजार में खासी खपत हो रही है। सरपत के कन्वर्जन के आधार पर मोढ़े बनाने आदि के कुटीर व्यवसाय भी जोर पकडऩे लगे हैं। मल्लाहनपुरा गांव में इससे खुशहाली की नई इबारत लिखी जाती दिख रही है। पानी बेचने के धंधे का मंसूबा संजोने वालों के चेहरे उक्त परियोजना की सफलता से उतरे हुए हैं जो अत्यंत आश्वस्तकारी हैं।
स्वच्छ जल मौलिक अधिकार
संयुक्त राष्ट्र संघ ने अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया और ब्रिटेन जैसे विकसित राष्ट्रों के बहिष्कार के बावजूद 2010 में स्वच्छ जल को लोगों का मौलिक अधिकार मानने का प्रस्ताव पारित कर दिया है। प्रस्ताव में कहा गया है कि सुरक्षित और स्वच्छ पेयजल और सफाई हर व्यक्ति का मौलिक अधिकार है। इस दौरान बताया गया कि विश्व भर में 88 करोड़ 40 लाख लोगों के पीने के लिये साफ पानी नहीं मिलता और करीब 2.6 अरब लोगों को शौचालय की व्यवस्था नहीं मिलती। दुनिया भर में हर साल 15 लाख बच्चे पानी और गंदगी से होने वाली बीमारियों से मर जाते हैं।
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